भाजपा पिछड़ों को बांटने की अपनी तुरुप चाल से एक साथ दो निशाने साध रही है. इस तुरुप चाल का पहला मकसद जहां पिछड़ों में फूट डालकर महागठबंधन के गुब्बारे की हवा निकालना है. वहीं दूसरा महत्वपूर्ण मकसद हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में आरक्षण की मांग कर रहे जाटों, पाटीदारों और मराठों के आंदोलन की धार कुंद करना भी है.
लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की चुनौतियों से निबटने के लिए मोदी सरकार ने पूरी तरह कमर कस ली है. विपक्ष के चक्रव्यूह को भेदने के लिए अब भाजपा-नीत सरकार पिछड़ा दांव खेलने जा रही है. मोदी-शाह की अगुवाई में देश की 52 फीसदी पिछड़ी जातियों को पिछड़ा और अति पिछड़ा में बांटने का पूरा खाका तैयार कर लिया गया है. सरकार के इस कदम से देश में एक बार फिर मंडल कमीशन जैसा राजनीतिक घमासान छिड़ने के आसार पैदा हो गए हैं.
पिछड़ी जातियों के वोटों पर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी नज़रें तो उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान ही टिका दी थी, लेकिन सरकार अब क्षेत्रीय क्षत्रपों के इस एकाधिकार को अंजाम तक पहुंचाने की तैयारी करने में जुट गई है. मोदी सरकार का मानना है कि महागठबंधन के प्रभाव वाले प्रमुख राज्यों में अगर पिछड़ी जातियों की एकता भेद दी जाए, तो 2019 में भाजपा का परचम एक बार फिर पक्के तौर पर फहराया जा सकता है. पिछड़ों को बांटने की इस चतुर चाल का आधार बनाया जा रहा है, नए पिछड़ा वर्ग आयोग की ताजा रिपोर्ट को, जो जल्द ही संसद के पटल पर आने वाली है.
आपको याद होगा कि पिछले साल पिछड़ों के लिए नए आयोग के गठन पर संसद में मुंह की खा चुकी मोदी सरकार ने 23 अगस्त 2017 को एक नया राजनीतिक दांव चला था. तब केंद्रीय कैबिनेट ने निर्णय लिया था कि अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों को मिलने वाले आरक्षण के लाभों की समीक्षा के लिए एक नए आयोग का गठन किया जाएगा. यह आयोग पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाली जातियों के उप-वर्गीकरण पर भी विचार करेगा. आयोग के गठन के पीछे सरकार की आतुरता और छदम मंशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए सिर्फ बारह सप्ताह का समय दिया गया. खबर है कि दो बार समय विस्तार के बाद अंततः 31 जुलाई को आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है.
आयोग की सेवा शर्तों में कहा गया था कि आयोग अन्य पिछड़ा वर्ग की व्यापक श्रेणी समेत जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण के लाभों के असमान वितरण के सभी बिन्दुओं पर विचार करेगा. इसके अलावा आयोग को ओबीसी के अंतर्गत आने वाली सभी जातियों के उप-वर्गीकरण के लिए वैश्विक तरीके वाला तंत्र, प्रक्रिया, मानदंड और मानक का खाका तैयार करना होगा. साथ ही आयोग केंद्रीय सूची में दर्ज ओबीसी के समतुल्य सम्बन्धित जातियों, समुदायों, उप-जातियों की पहचान करेगा तथा उप-श्रेणियों में वर्गीकृत करेगा. दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी.
रोहिणी को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के निदेशक डॉ. जे. के. बजाज, भारत के रजिस्ट्रार जनरल, जनगणना आयुक्त और केंद्र के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के संयुक्त सचिव को पदेन सदस्य नामित किया गया. गौरतलब है कि इस आयोग का गठन भी संविधान के उसी अनुच्छेद-340 के तहत किया गया है, जिसके अंतर्गत मंडल कमीशन ने सामजिक एक शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की थी.
बहरहाल, आयोग ने सभी स्टेक होल्डर्स से बातचीत और अपनी लम्बी चौड़ी कवायद के दौरान तमाम आंकड़े जुटाकर यह निष्कर्ष निकाला है कि किस तरह आरक्षण के लाभों का पिछड़ों के बीच ही बीते 25 वर्षों से असमान वितरण का खेल चल रहा है. सच्चाई यह है कि आरक्षण का असली बंदरबांट पिछड़ों के बीच की कुछ चुनिंदा अगड़ी जातियां ही कर रही हैं, जबकि सेवा कार्यों और ग्रामीण हुनर से जुड़ी तमाम जातियां अभी भी जहां की तहां पड़ी हुई हैं. भाजपा का असली मकसद इन अति पिछड़ी जातियों के साथ हो रही नाइंसाफी का नारा देकर उनकी राजनैतिक तंद्रा को तोड़ना तथा उन्हें भाजपा के पक्ष में गोलबंद करना है.
अब जरा पिछड़ी जातियों के पीछे छिपी हकीकत की पड़ताल करते हैं. देश में पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए गठित पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में कुल 2399 पिछड़ी जातियां हैं, जिनमें से 837 जातियां अति-पिछड़ी हैं. मंडल कमीशन ने माना कि देश में पिछड़ी जातियों की संख्या 3743 है, जो आबादी का तकरीबन 52 फीसदी है.
सन 1990 में तत्कालीन वी. पी. सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को जस का तस लागू कर दिया था. हालांकि दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के एक सदस्य एल. आर. नायक ने उस समय भी आरक्षण के लाभ के समान वितरण के लिए पिछड़ों को दो श्रेणियों- मध्यवर्गी पिछड़े और अत्यंत पिछड़ों में वर्गीकृत करने का सुझाव दिया था. लेकिन राजनैतिक कारणों से उनके इस सुझाव को अनदेखा कर दिया गया.
बाद में 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में दिए गए अपने फैसले में साफ़ किया कि अगर केंद्र या कोई राज्य सरकार पिछड़ा वर्ग को पिछड़ा और अति पिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करना चाहे, तो ऐसा करने में कोई संवैधानिक अड़चन या कानूनी रोक नहीं है. इसी आदेश की आड़ में देश के नौ राज्यों- आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, बंगाल-बिहार, महाराष्ट्र्र, तेलंगाना, हरियाणा, झारखंड और तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों का उप वर्गीकरण किया जा चुका है. इसलिए भाजपा का अगला निशाना अब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्यों में पिछड़ों के बीच दरार पैदा कर महागठबंधन की मुहिम को भोथरा कुंद करना है.
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पिछड़ों का उप-वर्गीकरण मोदी सरकार की अति पिछड़ों के वोट हथियाने की राजनीतिक पैंतरेबाजी भर है. असल में सरकार का लक्ष्य 2019 का चुनाव है. भाजपा दरअसल, हाशिए पर जा रही इन अति पिछड़ी जातियों के वोट बटोरने का तानाबाना बुन रही है. इसी मकसद से वर्ष 2015 में सरकार ने जस्टिस ईश्वरप्पा की अगुवाई में एक एक्सपर्ट कमेटी गठित की.
जस्टिस ईश्वरप्पा उस समय पिछड़ा वर्ग आयोग के चेयरमैन थे. 2 मार्च 2015 को सौंपी अपनी रिपोर्ट में ईश्वरप्पा कमेटी ने पिछड़ों को तीन श्रेणियों में बांटने की सिफारिश की. ये श्रेणियां थीं- पहली, अत्यंत पिछड़ा जिसमें विमुक्त जातियां थीं, दूसरी अति पिछड़ा, जिसमें कामगार और हुनरमंद जातियां थीं और तीसरी शेष पिछड़ी जातियां, जो खेती और पशुपालन जैसे कार्यों में व्यस्त थीं. यादव और कुर्मी जैसी जातियां इसी तीसरी श्रेणी में वर्गीकृत की गईं.
माना जा रहा है कि इस उप-वर्गीकरण से देश की पिछड़ी जातियां दो समूहों में बंट जाएंगी. एक समर्थ पिछड़े, जिसमें यादव, कुर्मी जैसी कुछ चुनिंदा जातियां होंगी तथा दूसरा अति पिछड़े, जिसमें लोहार, बढ़ई, मौर्य, कुशवाहा, काछी, कहार, मल्लाह, नाई जैसी तमाम वे जातियां शामिल होंगी, जो अभी तक आरक्षण के लाभों से लगभग वंचित रही हैं. भाजपा की नज़र इन्हीं 22 फीसदी अति पिछड़ी जातियों के वोटों पर है. पिछले लोकसभा चुनाव तथा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा इन अति पिछड़ों का समर्थन जुटाने में कामयाब रही थी.
दरअसल, भाजपा पिछड़ों को बांटने की अपनी तुरुप चाल से एक साथ दो निशाने साध रही है. इस तुरुप चाल का पहला मकसद जहां पिछड़ों में फूट डालकर महागठबंधन के गुब्बारे की हवा निकालना है. वहीं दूसरा महत्वपूर्ण मकसद हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में आरक्षण की मांग कर रहे जाटों, पाटीदारों और मराठों के आंदोलन की धार कुंद करना भी है. अभी कयास यह लगाए जा रहे हैं कि भाजपा 2019 का चुनाव राम मंदिर के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बखेड़ा खड़ा करके लड़ेगी. लेकिन सच्चाई यही है कि भाजपा का असली एजेंडा अति पिछड़ों पर दांव लगाकर 2019 की जंग फ़तह करना ही है.