morarka-sir-on-modiगुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम 18 तारीख को घोषित हुए. हिमाचल को लेकर ये माना जाता है कि वहां की जनता हर पांच साल पर सरकार बदल देती है. 15-20 वर्षों में पांच साल भाजपा, पांच साल कांग्रेस ऐसा ही चलता रहा है. इस बार बारी थी भाजपा की. उम्मीद थी कि भाजपा जीतेगी, कम-ज्यादा सीट का फर्क हो सकता है. लेकिन इसमें भी दो बात नोट करने लायक है. पहला, मई 2014 के बाद भाजपा अपने आप को इतना लोकप्रिय समझ रही है, जैसे पूरा देश उसके साथ है और कांग्रेसमुक्त भारत हो चुका है.

कांग्रेस नाम की कोई चीज है ही नहीं. पहले भाजपा ने सोचा था कि चुनाव जीतने के बाद हिमाचल का मुख्यमंत्री एनाउंस करेंगे. जब कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह का नाम एनाउंस कर दिया, तब ये असमंजस में पड़ गए. हिमाचल में ठाकुरों का बहुत जोर है. तब भाजपा को थक-हार कर प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करना पड़ा. डींग हांकने की बात खत्म हो गई कि हम बाद में एनाउंस करेंगे. प्रेम कुमार धूमल ने एनाउंस किया कि हमलोग इस बार 90 प्रतिशत सीट जीतेंगे. कांग्रेस को 68 में से केवल सात सीट मिलेगी.

भाजपा के नेताओं को इस तरह की बात करने का संक्रामक रोग लग चुका है. नरेन्द्र मोदी 56 ईंच की छाती लेकर घूम रहे हैं. अमित शाह एक बहुत जूनियर, बहुत छोटे कद के भाजपा के सदस्य थे. उनको सिर्फ इसलिए पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया, क्योंकि वे मोदी के विश्वासी हैं. ये पार्टी चलाने का सही तरीका नहीं है. पार्टी में बाकी लोग भी हैं. आज कोई बोलता नहीं है, क्योंकि आपकी लोकप्रियता है. पहली बार भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह बहुमत हमेशा रहेगा.

आप पार्टी को ऐसी हालत में ला देंगे कि पार्टी रहेगी ही नहीं. प्रेम कुमार धूमल को भी इंफेक्शन लग गया. उन्होंने कहा कि 90 प्रतिशत सीटें मिलेंगी. 90 प्रतिशत सीटें तो मिली नहीं. ये सही है कि हिमाचल में भाजपा जीत गई, लेकिन प्रेम कुमार धूमल खुद अपनी सीट हार गए. इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी? ये बहुत कम होता है कि जो दो बार मुख्यमंत्री रह चुका हो और अगली बार मुख्यमंत्री घोषित हो, जनता उसेे चुनाव में हरा दे. इसका क्या संकेत है? जनता क्या कहना चाहती है, इसका विश्लेषण करना जरूरी है. जनता कहना चाहती है कि आपका मुख्यमंत्री जनता को एक्सेप्टेबल नहीं है. ये तो हिमाचल की बात हुई.

भारत की जनता बेवक़ू़फ नहीं है

अब गुजरात पर आते हैं. गुजरात बहुत ही विचित्र स्टेट है. पहली बात तो ये कि ये बैकवर्ड स्टेट नहीं है, विकसित स्टेट है. आज से नहीं, हमेशा से. 1960 में गुजरात बना था, तब से ही विकसित है. मुंबई स्टेट के टुकड़े हुए थे, महाराष्ट्र और गुजरात. 1960 से 1995 तक, 35 साल वहां कांग्रेस का एकछत्र राज रहा. भाजपा के लोग विकास की बात करते हैं. किसी को आंकड़े निकालने चाहिए कि 1960 में गुजरात की क्या स्थिति थी और 35 साल में भाजपा ने क्या हासिल किया? 1960 के पहले अमूल डेयरी थी. डॉ. कूरियन ने व्हाइट रिवॉल्यूशन किया था. ये 1960 के बाद की देन नहीं है और 1995 के बाद की देन होने का तो सवाल ही नहीं है. दूसरा वहां हमेशा व्यापार का जोर रहा है. गुजरात के लोग विशुद्ध व्यापारी माने जाते हैं. ये भी वहां की परंपरा रही है. गुजरात इंडस्ट्रियल स्टेट है. प्लॉट का बिकना, उद्योग का आना वहां की पुरानी परिपाटी है. भाजपा ने इसमें भी क्रेडिट लिए. हालांकि, लेने को तो हर चीज का क्रेडिट ले सकते हैं.

आज मंगलयान जाता है, उसका भी क्रेडिट मोदी ले रहे हैं. कहते हैं जवाहरलाल नेहरू ने कुछ किया ही नहीं, 70 साल तक कुछ नहीं हुआ. अगर स्पेस मिशन नहीं होता, एटॉमिक एनर्जी नहीं होती, तो आज अचानक ये मंगलयान कैसे चला गया? यह कहना ऐसा ही है, जैसे हमारी हिन्दी फिल्मों में शत्रुघ्न सिन्हा के डायलॉग होते थे, खामोश और बड़बोलेपन के डायलॉग होते थे. लेकिन देश के प्रधानमंत्री कोई एक्टर नहीं हैं, कोई फिल्म डायरेक्ट नहीं कर रहे हैं. प्रधानमंत्री जो बोलते हैं, वो पूरे देश की तरफ से बोलते हैं या पूरे देश को संबोधित करते हैं.

उनको अपनी वाणी पर थोड़ा अंकुश लगाना चाहिए और जिम्मेदारी की बात करनी चाहिए. ये उनका स्वभाव नहीं है. ठीक है, हरेक का अपना स्वभाव होता है. इनका स्वभाव है बात को बढ़ा-चढ़ाकर बोलना. राजनीति में चुनाव के दौरान सभी नेता बात बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं. एक तरह से ये गलत नहीं है. लेकिन मई 2014 में प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा में इन्होंने जो-जो वादे कर दिए, कम से कम प्रधानमंत्री बनने के बाद उनको थोड़ा सा संतुलित तो करते, लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं किया. ढाई साल से कोशिश करते रहे, न कोई फॉरेन बैंक बंद हुआ, न 15 लाख हरेक के एकाउंट में आए और न ही किसानों की आमदनी बढ़ी.

जो मुख्य वादे किए थे, उसमें से वन रैंक, वन पेंशन भी था, जिसको कार्य में लाना ही मुश्किल है. यह कारगर हो ही नहीं सकता. लेकिन इन्होंने कभी अपने चुनावी भाषण को मॉडरेट नहीं किया. उसी बात को जारी रखा. ढाई साल में कुछ नहीं हुआ. जब कुछ नहीं हुआ, तब पता नहीं इनको क्या सूझी कि आठ नवंबर 2016 को विमुद्रीकरण कर दिया. सबको कह दिया कि आठ नवंबर की रात 12 बजे के बाद आपके नोट खारिज हैं. मेरी समझ से भारत जैसे देश में, जहां की जनता शिक्षित नहीं है, गांव में साधारण तरह से लोग रहते हैं, वो कैश समझते हैं. वो रोकड़ा, रुपए समझते हैं.

ये कार्ड और मॉडर्न शहरों के लिए ठीक है. कॉरपोरेट सेक्टर को इससे क्या फर्क पड़ा? वो तो कार्ड से ही ऑपरेट करता है. बैंक के जरिए चेक से ऑपरेट करता है, लेकिन किसान नहीं. जब किसान का धान बिकता है, गेहूं बिकता है, तो मंडी पर कैश में बिकता है. बिना सोचे-समझे नोटबंदी कर दी. एक और गड़बड़ हुआ. करेंसी चेंज करने के लिए उतने नोट भी तैयार नहीं थे. तीन-चार महीने लोगों को बड़ी परेशानी हुई. लोग कहते हैं कई लोग भीड़ में, लाइन में खड़े-खड़े मर गए. वो एक अलग स्थिति है, लेकिन स्थिति सामान्य होने में तीन-चार महीने लग गए. नोटबंदी का कारण बताते हुए सरकार ने कहा कि इससे ब्लैकमनी दूर हो जाएगी, टेररिस्ट की फंडिंग दूर हो जाएगी और नकली नोट भी बंद हो जाएंगे.

ये तीनों चीजें असंभव हैं. जो अर्थशास्त्र को थोड़ा भी समझता है, वो बता सकता है कि ये तीनों चीजें नहीं हो सकती हैं. तब फिर पैंतरा बदल लिया. फिर सरकार ने कहा कि कैशलेस ट्रांजेक्शन और कार्ड का ज्यादा उपयोग हो, इसलिए ऐसा किया. ये झूठ है. आपने पूरे देश को खुद अपनी वाणी से संबोधित किया और फिर बाद में कहते हैं कि उसका कारण ये नहीं था, वो था. फिर कैशलेस नहीं हुआ, तो लेसकैश होगा. फिर कहते हैं लाखों एकाउंट में जो लोगों ने ब्लैकमनी जमा कर दिए, हम उनकी इनक्वायरी करेंगे. हम लाखों लोगों को नोटिस देंगे.

ये जिम्मेदार सरकार की निशानी नहीं है. ये गैरजिम्मेदार बात है. एक साधारण आदमी जो किसी कंपनी का कर्मचारी होता है, वो जब कुछ गलत करते हुए पकड़ा जाता है तो इधर-उधर की बातें करता है. बातें घुमाता है. ये साधारण बात है. लेकिन देश के मंत्री, अधिकारी और प्रधानमंत्री को ये छूट उपलब्ध नहीं है. उनको जो बात करनी है, उसमें उनको अडिग रहना पड़ेगा. सरकार को कहना चाहिए था कि हमसे ये भूल हो गई है. आप भगवान नहीं, इंसान ही तो हैं. ये निशानी है एक जिम्मेदार, ऊंचे कद के आदमी की, जो लंबे दौर तक प्रधानमंत्री रह सकता है. नोटबंदी के असफल होने के बाद फिर सरकार ने जल्दी-जल्दी में जीएसटी लागू कर दिया.

देश में जीएसटी पर 20 साल से बहस चल रही थी. कोई भी उसका विरोध नहीं कर रहा था. सिर्फ गुजरात सरकार, जिसके मुख्यमंत्री मोदी थे, उन्होंने ही इसका विरोध किया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्हें समझ में आया कि ऐसा करना जरूरी है और जल्दबाजी में ये फैसला ले लिया. इतने तरह के रेट लगा दिए कि फिर कन्फ्यूजन हो गया. फिर आपने लोगों को कन्फ्यूज कर दिया. व्यापारी वर्ग बिल्कुल तिलमिला गया कि ये क्या हो गया. फिर आ गया गुजरात चुनाव. मोदी जी तो चुनाव के ही आदमी हैं. इन्हें चुनाव में ही मजा आता है. खूब भाषण दीजिए.

इलेक्शन में संजीदा बहस तो होती नहीं है. आपके सामने एक लाख आदमी खड़े हैं और आपको केवल जोर-जोर से घोषणा करनी है. उसमें ये निपुण हैं. गुजरात इनका अपना गढ़ है. बारह साल यहां रह कर केंद्र में गए हैं. अमित शाह जिन्होंने 56 इंच से बढ़ाकर अपनी छाती 58 इंच की कर ली है, उन्होंने कहा कि हम गुजरात चुनाव में 150 प्लस जीतेंगे यानी कि 2012 में जब आप सरकार में थे, तब 115 जीते थे, अब 2017 में 150 प्लस. क्यों, क्योंकि मोदी ने देश को चेंज कर दिया, अमेरिका के प्रेसिडेंट, चीन के प्रेसिडेंट, जापान के प्राइम मिनिस्टर सब सोच रहे हैं कि इंडिया इतना अच्छा कभी था ही नहीं. उनकी मोदी से व्यक्तिगत दोस्ती हो गई. 150 प्लस का दावा हवा-हवाई हो गया. 100 मिलने के लाले पड़ गए, 99 पर सुई अटक गई. ये एक बहुत महत्वपूर्ण संकेत है. भारत की जनता साधारण है, उनका स्वभाव साधारण है, लेकिन वे बेवकूफ नहीं हैं. एक बार आपकी बात मान लेगी, ठीक है. आपने कुछ नहीं किया तो दोबारा क्यों मानेगी?

गांव ने भाजपा को वोट क्यों नहीं दिया?

गुजरात में क्या हुआ है? दो तीन चीजें हुई हैं. भाजपा का विश्लेषण सही था कि कांग्रेस तैयार नहीं है. कांग्रेस हमको टक्कर नहीं दे पाएगी, इसलिए अमित शाह ने 150 का फिगर दिया. लेकिन पाटीदार समाज ने खेल बिगाड़ दिया. 2015 में पाटीदार समाज के लोगों पर गोली चली थी, जिसमें 12 आदमी मर गए थे. इसे लेकर पाटीदार समाज भाजपा से नाराज था. पाटीदार समाज में एक नया लड़का हार्दिक पटेल है, जिसकी उम्र इलेक्शन लड़ने की अभी तक नहीं हुई है, उसने लोगों की धारणा ऐसी बदल दी कि जहां-जहां पटेल हैं, वहां वोट बंट गए. पटेल परंपरागत तौर पर हमेशा कांग्रेस के खिलाफ रहे हैं. कांग्रेस जब भी जीती है, पटेल के जोर से नहीं जीती है. पटेल ने वोट नहीं दिए हैं. भाजपा, जो केशुभाई पटेल के समय से अभी तक जीत रही है, पटेलों के जोर पर जीत रही है.

खुद के समर्थकों को नाराज करना भाजपा की राजनीति में कोई नई रणनीति रही होगी. बाकी के दलों को ये नई रणनीति सीखनी बाकी है. आनंदीबेन पटेल को रिटायर कर दिया, क्यों किसी को पता नहीं? ये पार्टी का अंदरूनी मामला है, लेकिन उनको हटाकर कम से कम पटेल को तो बनाते. विजय रूपाणी को सिर्फ इसलिए बनाया कि वे अमित शाह के आदमी हैं. अपना आदमी बनाने से चुनाव तो नहीं जीत पाएंगे. ये बातें विरोधाभासी हैं. आपको सीएम उसे बनाना पड़ेगा, जो चुनाव जिताने की क्षमता रखे. विजय रूपाणी को तो खुद की सीट के लाले पड़ गए थे. खुद तो वे जीत गए, लेकिन वो तो 2 फीसदी वाले जैन समाज से आते हैं. वैसे भाजपा कहेगी कि जाति-पाति का कोई मतलब नहीं है. इस देश में कब तक ये जाति चलेगी. कांग्रेस ने 70 साल में सब बर्बाद कर दिया. हमलोग न्यू इंडिया बनाएंगे.

जाति नहीं जाती

क्या सचमुच भारत में जाति खत्म हो सकती है? कद में मोदी से बहुत बड़े नेता जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव या राम मनोहर लोहिया सभी ने अथक प्रयास किए, फिर भी जाति प्रथा खत्म नहीं कर सके. राममनोहर लोहिया कहते थे कि जाति नहीं जाती. उनका कहना था कि आप अपना मजहब बदल कर हिन्दू से मुसलमान बन सकते हैं, लेकिन आप बनिया से ठाकुर नहीं बन सकते हैं. उसका आपके यहां कोई रास्ता नहीं है. जाति आपकी परंपरा है. त्रुटियां हर समाज में होती हैं. हिन्दू दर्शन की जो त्रुटियां हैं, उसमें ये भी है. भाजपा अपने आप को हिन्दुओं का प्रतिनिधि मानते हैं. भाजपा को ऐसी बात नहीं करनी चाहिए.

अगर जातियों का प्रभाव कम करना है, तो जातियां जो प्रश्न उठाती हैं, उसका जवाब भाजपा को देना पड़ेगा. जब पाटीदार ने आरक्षण मांगा तो कभी भी सरकार ने उनसे बात ही नहीं की. आज भी पाटीदार की सीटों में से ज्यादा सीटें भाजपा को मिली हैं. अगर आधी सीटें भी गईं, तो आपको नुकसान तो हो गया न. सौराष्ट्र को ही ले लीजिए. जहां भाजपा सरकार सरदार सरोवर डैम और पानी तो ले आई, लेकिन वहां लोगों ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया. विश्लेषण यह है कि भाजपा को अब भी शहर के लोग वोट देते हैं. गांव के लोग इसलिए वोट नहीं देते, क्योंकि किसानों को भाजपा ने त्रस्त कर दिया.

भाजपा ने वादा किया था कि हम किसानों की आमदनी दोगुनी कर देंगे, जो लागत होगी, उससे डेढ़ गुना एमएसपी दाम मिलेगा. फिर वही बात है कि डेढ़ गुणा दाम देने की सरकार की क्षमता ही नहीं है. सरकार के पास उतने पैसे ही नहीं हैं. अब कह रहे हैं कि छह साल में आमदनी दोगुनी कर देंगे. वह भी संभव नहीं है, क्योंकि जमीन की उत्पादकता तो डबल हो नहीं सकती. मिनिमम सपोर्ट प्राइस बढ़ानी है, वो सरकार बढ़ाती नहीं है, तो फिर छलावा. गुजरात के किसानों ने भाजपा को संकेत दे दिया है कि हम भाजपा के खिलाफ हैं. हां इसमें ये बात याद रखनी चाहिए कि अगर कोई ये समझे कि राहुल गांधी इलेक्शन जीत गए हैं, तो ये गलत बात है.

भाजपा से हताश होकर, मोदी से रुष्ट होकर लोगों ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया है. उसका फायदा कांग्रेस को हुआ है, क्योंकि वही पार्टी वहां थी. वहां मल्टीपार्टी नहीं है. यूपी नहीं है कि वहां समाजवादी पार्टी भी है, मायावती भी हैं, चार पार्टियां हैं. गुजरात में तो बस दो ही पार्टी है. जिसे भाजपा वाले पप्पू बोलते थे, गालियां देते थे, परिवादवाद बोलते थे, अचानक पता चला कि वही आदमी 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए टक्कर दे सकता है.

राजनीति को हल्के तरीके से लेना उचित नहीं, ये किसी का व्यक्तिगत व्यापार नहीं है. विडंबना देखिए, कांग्रेस को भाजपा वाले कहते हैं कि वे परिवारवाद चला रहे हैं. भाजपा तो पूरे देश को समझती है कि ये हिन्दुओं का परिवार है, जबकि ऐसा है नहीं. हिन्दू भाजपा के साथ नहीं हैं. भाजपा के साथ 18 प्रतिशत लोग हैं. जिनके दिमाग में भाजपा ने ये भर रखा है कि हमलोग हिन्दू हैं, मुसलमान खराब लोग हैं, चार-चार शादियां करते हैं, ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. एक दिन मुसलमान हमसे ज्यादा हो जाएंगे, तो फिर इस देश का क्या होगा? ये सब मिथ्या है. सब निराधार बातें हैं. प्रश्न यह है कि हिन्दू समाज इनके साथ है क्या, नहीं है. राहुल गांधी को ये बात समझ में आ गई.

यह जनभावना होती है कि हमारे इलाके में सोमनाथ का मंदिर है, मान्यता है, तो वहां जाना चाहिए. यही सोचकर राहुल सोमनाथ मंदिर गए. उस पर भी लोग हंसे, हंसिए नहीं. भाजपा का तो एक ही मुद्दा है, मंदिर मस्जिद. लेकिन मंदिर पर किसी का एकाधिकार तो नहीं है. राहुल सोमनाथ गए, तो उनसे सवाल क्या पूछे गए? वो उस सोमनाथ मंदिर में कैसे गए, जवाहरलाल नेहरू जिसके पुनर्निर्माण के खिलाफ थे. ये एक नई बात थी. किसी के दादा जी किसी बात के खिलाफ हों, तो क्या उसके पोते के अधिकार खत्म हो जाते हैं? एक आदमी मंदिर क्यों जाता है? एक तो व्यक्तिगत आस्था और दूसरा जब चुनाव में कोई खड़ा होता है, तब मंदिर जाना पड़ता है. कोई नेता मंदिर नहीं भी जाता है, तब भी चुनाव के वक्त जाना पड़ता है, जनता को ये विश्वास दिलाने के लिए कि हम नास्तिक नहीं हैं, हम आस्तिक हैं.

देश का भविष्य क्या है?

मेरे हिसाब से गुजरात चुनाव के बाद सबसे बड़ा प्रश्न यह पैदा हो गया है कि इस देश का भविष्य क्या है? क्या यह देश एक ऐसी पार्टी के हवाले रहेगा, जो 18 प्रतिशत वोट के आधार पर, झूठे बयान देकर, झूठी उम्मीदें जगाकर, झूठे सपने दिखाकर और मुसलमानों के खिलाफ गाली-गलौज करके और हिन्दुओं को गुमराह कर सत्ता में रहे. इससे तो विकास नहीं होता है. सत्ता ऐसी पार्टी या पार्टियों के हाथ में होनी चाहिए, जो संविधान को लागू करे, जिसे बहुत सोच-समझ कर बनाया गया है. संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि मुस्लिम हिन्दू से ऊपर होने चाहिए.

लेकिन ये भी नहीं लिखा है कि मुसलमानों को नजरअंदाज कर दीजिए. मोहन भागवत का हाल का बयान है कि जो आदमी हिन्दुस्तान में रहता है, वो हिन्दू है. अरे तो फिर झगड़ा कहां है? भाजपा या संघ वाले हिन्दू शब्द इस्तेमाल करते हैं, बाकी के लोग भारतीय नागरिक का प्रयोग कर रहे हैं. अगर भारतीय नागरिक हैं, तो सबके अधिकार बराबर हैं. भाजपा को अपनी चिंता करनी है, वो अपने ढंग से सरकार चलाएगी या आरएसएस के तरीके से. कांग्रेस 135 साल पुरानी पार्टी है, भाजपा उसे राजनीति न सिखाए. बाकी की कई धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं, सोशलिस्ट पार्टी और जनता दल से निकले हुए लोग हैं, उनको आकलन करना चाहिए कि शायद अतिउत्साह में इन्होंने देश के हिन्दुओं की कुछ अवहेलना की हो. शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का एक बहुत अच्छा जजमेंट आया था.

लेकिन, मुसलमानों को खुश करने के लिए कांग्रेस ने उस जजमेंट को बदल दिया. ये तो अच्छी बात नहीं है. अगर सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट दे दिया तो दे दिया. जब इससे हिन्दू नाराज हो गए तो कांग्रेस ने अयोध्या में विवादास्पद ढांचे का ताला खुलवा दिया. इसके बाद राम मंदिर का शिलान्यास भी हो गया. फिर भाजपा के लोगों ने बाबरी मस्जिद तोड़ दी. इसने देश में हिन्दू-मुसलमान के बीच एक नई दरार पैदा कर दी. इससे देश का तो फायदा नहीं है. कोई भी पार्टी अगर देश का नुकसान कर के इस देश में राज कर भी ले, चुनाव जीत भी जाए, तो उससे क्या होगा?

वादे पूरे न हों तो मा़फी मांगनी चाहिए

प्रधानमंत्री कहते हैं कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ. ये एक फर्जी बात है. 70 साल में अटल बिहारी वाजपेई का भी छह साल का राज शामिल है. तीन साल का मोरारजी भाई का राज भी शामिल है, जिसमें अटल बिहारी वाजपेई विदेश मंत्री थे. क्या भाजपा को अपने लोगों की भी परवाह नहीं है? इनको तो अपने लोगों की भी परवाह नहीं है. गुजरात इलेक्शन का मूल संदेश यह है कि लोगों ने कहा कि भाजपा हमें फॉर ग्रांटेड न ले. भाजपा दोबारा भी जीत सकती है, लेकिन काम के आधार पर. 56 ईंच की छाती और मुसलमानों को गाली देकर चुनाव नहीं जीत सकते. इधर, गुजरात चुनाव में जब से राहुल गांधी का व्यक्तित्व बढ़ा, भाजपा का रुख भी नरम हुआ है.

गुजरात चुनाव में जो पत्रकार दो-दो महीने तक वहां रहे, उनका कहना है कि अगर प्रधानमंत्री 37 रैली नहीं करते और ये कह कर अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगा देते कि मैं गुजराती हूं, यहां का हूं, तो शायद 55 सीटें भी नहीं मिलतीं. देश ने कभी भी प्रधानमंत्री को चुनावी फायदे के लिए इतने निचले दर्जे का भाषण देते नहीं देखा. लेकिन, पार्टी को जिताना है तो शिकायत नहीं कर सकते.

2019 में लोकसभा का चुनाव है और डेढ़ साल में कांग्रेस कोई चमत्कार कर दे, ऐसा नहीं लगता. मोदी चमत्कार करने की कोशिश करेंगे, तो फिर मुंह की खाएंगे. यह चमत्कारों का देश नहीं है. यह देश जिम्मेदार आदमियों का देश है. यह कृषि प्रधान देश है. किसान शेयर बाजार में रुपया नहीं लगाता है कि एक दिन ऊपर चला गया, एक दिन नीचे चला गया. आकाश देखता है कि इस साल नहीं तो अगले साल बारिश होगी. किसान बहुत सहनशील व्यक्तित्व का होता है. सरकार किसानों को दोगुनी आय की जगह 25 फीसदी आय कर दे, यही बहुत बड़ी बात होगी. इसके लिए सरकार को काम करना पड़ेगा. सिर्फवादे से काम नहीं होगा. भाजपा सिर्फवही वादे करे जो पूरे हो सकते हैं. जो वादे पूरे न हो, उसके लिए माफी मांग लेनी चाहिए.

ग़रीब को कैसे मैनेज करेंगे?

अमित शाह ने एक बार कहा कि 15 लाख रुपए जुमला था. जुमले की भी एक सीमा होती है. ये ठीक है कि भारत के लोग अभी भी पूर्ण शिक्षित नहीं हैं, लेकिन सब समझते हैं. 1977 में इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लागू की, तो कांग्रेसी यही यही कहते थे कि गांव वालों को क्या मालूम? गांव वालों ने इंदिरा सरकार को उठा कर बाहर फेंक दिया. ये 40 साल पहले की बात है. आज तो जनता ज्यादा सजग है और जागरूक भी. सरकार प्रेस को पैसे से खरीद सकती है. लेकिन जो आम लोग हैं, जो गरीब हैं, उसे कैसे मैनेज करेंगे? गरीब बोल नहीं रहा है, लेकिन वो समझ सब रहा है. गुजरात के गांवों में कांग्रेस को भाजपा से दोगुनी ज्यादा सीटें मिली हैं. शहरी लोगों से भाजपा डरती है. अब अगर किसान को उसकी लागत का रुपया मिले, तो इसके लिए अनाज का पैसा तो वही देगा न जो शहर में बैठा हुआ खरीद कर उसे खा रहा है.

एक अंतिम बात ये कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का कई देशों ने तब बहिष्कार कर दिया, जब ये मालूम पड़ा कि इसमें मैनिपुलेशन हो सकता है. एक आदमी बैलेट पेपर पर ठप्पा लगाता है, तो इसका मैनिपुलेशन तो नहीं हो सकता है. कभी भी इसे रिकाउंट कर सकते हैं. न्यू इंडिया छोड़िए, देश को उसका ओल्ड इंडिया वापस कर दीजिए. देश ओल्ड इंडिया से काफी खुश था. मोदी फिर जीतें, 15 साल प्रधानमंत्री रहें. इससे किसी को कोई समस्या नहीं है. हर पांच साल पर जनता सरकार चुनती है. लेकिन, अगर चुनाव आयोग पीएमओ की बात सुनकर अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगाएगा, तो फिर यह खतरनाक है. तब भारत भी अफ्रीकी देश की तरह हो जाएगा. अब देश के लिए और सरकार के लिए भी जागने का समय आ गया है.

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