सिर पर टोपी, ऊंचा पजामा, चेहरे पर दाढ़ी। अगर आप देश के छोटे जिलों से आते हैं तो अपने बचपन से इस पहचान को आप समझते हैं । ये अपनी परंपरा में मुसलमान होते हैं । आपके ज़हन में मुसलमान की यह छवि बस गयी है । हिंदू हृदय सम्राट और हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है, बल्कि वे स्वयं कहते हैं कि वे गुजरात के छोटे से जिले बड़गांव के रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने का काम किया करते थे। आज वे देश के सर्वोच्च पद पर हैं । पर उनके ज़हन में एक खास कौम के कपड़ों की जो पहचान है उसे उन्होंने जिस तरह जाहिर किया है उससे देश में तबाही का सबब बना है। पर क्या मुसलमानों ने कभी यह सोचा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह छवि उनके लिए कितनी घातक साबित हो रही है । आज तो और ज्यादा जब आतंकवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल चुका है और हर आतंकवादी अधिकांश मुसलमान ही समझा जा रहा है । अपने दीन में विश्वास रखने वाले मुसलमान की यह सच्ची छवि नहीं है । न जाने कब से और क्यों सिर पर टोपी, ऊंचा पजामा और चेहरे पर दाढ़ी किस अंधविश्वास के चलते मुसलमानों के मन में घर कर गयी और बहुतायत में रहते हुए यह छवि रूढ़ हो गयी । इक्कीसवीं सदी में हम देख रहे हैं मुसलमान प्रगतिशील हो रहा है , अपनी परंपरागत छवि से अलग । मुसलमानों में खोजा मुसलमान सबसे शिक्षित, स्वच्छ और बेहतरीन सोच के नजर आते हैं । मुसलमानों का बोहरा समुदाय भी ऐसी ही छवि का मालिक है । मुसलमानों की इन तीन बिरादरियों का मैं इसलिए जिक्र कर रहा हूं कि मुसलमानों में जड़ता पहचानी जा सके । जिन मस्जिदों से अजान की आवाज आती है उन मस्जिदों में खोजा और बोहरा समुदाय के मुसलमान नहीं जाते । और न वो अजान को पसंद करते हैं । वे अपनी अलग मस्जिद और जमातखाने में जाते हैं । खोजा और बोहरा दोनों को ऊंचे पजामे से परहेज है । वे दाढ़ी रख भी सकते हैं और नहीं भी । लेकिन मोदी जी समेत हम सबने अपने बचपन से मुसलमानों की एक ही छवि मन में समेटी है । मोदी जी देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर भी उस छवि से मुक्त नहीं हो सके हैं और इसीलिए वे कपड़ों से लोगों को पहचानने की बात करते हैं ।
कट्टरता हमें बदहवास बनाती है । कोई अल्पसंख्यक यदि खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे तो वह अधिक कट्टर हुआ है देखा जा सकता है । आज देश के अधिकांश मुसलमानों की ऐसी ही स्थिति है । बजाय इसके कि वे अपनी छवि में कुछ क्रांतिकारी तब्दीली करें , वे जड़ता के शिकार हो रहे हैं ।वे भयग्रस्त भी हैं क्योंकि चौतरफा उन्हें घेरा जा रहा है । देश में हिंदूवाद अपना फन फैलाए बैठा है और उसे सत्ता का संरक्षण प्राप्त है । मुसलमानों के सामने अभी वक्त है कि वे खुद में तब्दीली लाएं । अपनी झूठी पहचान और छवि को त्यागें । मुझे फिल्म ‘खुदा गवाह’ का वह हिस्सा याद आता है जिसमें मौलाना कोर्ट में सच्चे मुसलमान की पहचान बताते हुए कहता है कि ‘दाढ़ी में दीन हैं पर दीन में दाढ़ी नहीं’ । खोट की बात यह है कि हमारे जहन में न जाने कब से (शायद बचपन से) यह बात घर कर गई है कि मुसलमान ऐसे ही होते हैं । और आज की सत्ता इसका दुष्प्रचार करके भुना रही है । यह समय मुसलमानों के लिए संयम और विवेक का है । अजान की जिद एक बेईमान जिद है। जरूरत है सर्वसम्मति से वैज्ञानिक सोच के साथ और गर्व के साथ कुछ ऐसे फैसले लेने की जिसे यह कतई न समझा जाए कि ये फैसले किसी दबाव में लिए गए हैं । क्या मुसलमान कौम ऐसा कर पायेगी । यदि ऐसा हुआ तो यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की बिगड़ती छवि को भारत के संदर्भ में अलग तरीके से पेश कर पाएगी । यह पहल हिंदुवादियों को अलग से भ्रम में डालेगी, यह भी तय है ।
मोदी ही आयेंगे ….
देश मान बैठा है कि अगले आम चुनावों में मोदी ही आयेंगे । तो फिर किसी भी कवायद के क्या मायने हैं और इसीलिए आप देखेंगे भी कि सोशल मीडिया के कार्यक्रम अधिकांश भोथरे हो रहे हैं । बहसें कुछ दे नहीं पा रही हैं । बहसों में ऊबाऊपन है । यूं ट्यूब के किसी भी कार्यक्रम या डिबेट को उठाइए वही घिसे पिटे चेहरे, वही मोहरे । यह चिंता यदि किसी को है तो वह वाजिब है । आलोक जोशी इस चिंता से इन दिनों दो चार हो रहे हैं। बात करें यदि ‘सत्य हिंदी’ वेबसाइट की तो ऐसा लगता है कि चलाना है तो चला रहे हैं । पहले भी लिखा था कि बिल्ली के भाग से छींका फूट जाए तो विषय भी मिल जाते हैं । लेकिन पैनलिस्ट !! विनोद अग्निहोत्री के लिए किसी ने क्या खूब व्यंग्यात्मक टिप्पणी की – ‘सार्वजनिक बुद्धिजीवी’ । हर जगह उपलब्ध हो जाएंगे । एक डिबेट में बोलते हैं कि कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान हमें कांग्रेस पर छींटाकशी नहीं करनी चाहिए । उससे ठीक पहले दिन चिंतन शिविर चलते इन्हीं महोदय ने मुकेश कुमार के कार्यक्रम में जम कर छींटाकशी की । श्रवण गर्ग जैसे अनुभवी और सम्मानित व्यक्ति को क्यों हर रोज हर जगह उपस्थित होना, समझ से परे है । सबसे कमजोर और हल्की अंबरीष कुमार की डिबेट में भी श्रवण गर्ग जी नजर आ जाते हैं । साख का सवाल है, कम से कम बुलाने वालों को ही समझना चाहिए । ‘मिस्टर दरअसल’ आशुतोष के रूप अनोखे हैं । जब किसी दूसरे की डिबेट में शरीक होते हैं तो अलग लेकिन जब ‘आशुतोष की बात’ में होते हैं तो हमेशा भागते हुए जान पड़ते हैं । जैसे चाकलेट पाने के लिए कोई अधीर बच्चा एक सांस में कुछ भी सुना देता है । संचालन की सीख जोशी जी से लें । मुकेश भाई से निवेदन है कि राजनीतिक कार्यक्रम न ही करें तो बेहतर है । राजनीति से अलग उनके कार्यक्रम बहुत उम्दा होते हैं , और विषय में ताजगी रहती है। कार्यक्रम ऐसे हों जिन्हें सुनने की लालसा रहे । जैसे संतोष भारतीय के साथ अभय दुबे को सुनना । उनके विश्लेषण में रस लिया जा सकता है । बाकी चाहे ‘न्यूज क्लिक’ के कार्यक्रम हों या ‘वायर’ के सब जगह दोहराव है । यों भी जब सब कुछ ‘वोट’ के लिए हो रहा हो, और सब कुछ उसी में सिमट कर रह गया हो तब इन कार्यक्रमों से कुछ मिलता नहीं । देखने वाले तो देखते ही हैं चाहे कुछ हासिल न हो तो भी । नीलू व्यास के कार्यक्रम ही देख लीजिए । लगता है जैसे तैसे खींचा जा रहा है । वैसे भी जब सब तरफ से हथियार डाल कर स्वीकार कर लिया गया हो कि आगे भी आयेंगे तो मोदी जी ही तो फिर किसी भी चीज का क्या मतलब रह जाता है ।
मेरे पिछले लेख में कुछ लोगों को यह समझने में परेशानी हुई कि आशय क्या है । जब लिख रहा था तो समझ रहा था । जिन्होंने समझा उन्होंने तारीफ की ।लेख में एक पंक्ति मेरा आशय साफ करती है कि ‘देश की राजनीति को लुटियंस जोन की नजर से देखें या देश के दूरदराज किसी खेत की मुंडेर पर खड़े व्यक्ति की नजर से ।’ इस गहराई को समझेंगे तो बात पानी की तरह साफ हो जाएगी । या यह भी कह सकते हैं कि नेहरू की नजर से देखें या महात्मा गांधी की नजर से ! आजादी के बाद दोनों के नजरिए में फर्क था । आशुतोष को एक बात साफ कर दूं कि किसी पैनलिस्ट से उन्होंने पूछा था कि क्या महात्मा गांधी ने कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी । इस बारे में गांधी जी की ‘हिंद स्वराज्य’ पुस्तक के शुरू में ही लिखा है । इसलिए यह सत्य है ।