26 मई 2014, देश में 25 साल के बाद एक अकेले दल को बहुमत मिला. न भूतो, न भविष्यति की तर्ज पर शोरशराबे के साथ भाजपा की सरकार आई. चुनाव पूर्व किए गए सैकड़ों वादों और भारत की तस्वीर बदल देने के इरादों की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने पहले ही साल से घोषणाओं और योजनाओं की झड़ी लगा दी. अब, इस सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं. सरकारी वादों और दावों को ़खबर मानने की नई परंपरा के बीच चौथी दुनिया ने मोदी सरकार की 6 ऐसी योजनाओं का विश्लेषण किया है, जो जनता के हित से सीधे जुड़ी हुई हैं. ये विश्लेषण सरकारी और विश्वसनीय ग़ैर सरकारी आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित है…
आंकड़ों में रौशनी, ज़मीन पर अंधेरा
15 अगस्त 2015 को लालकिले से देश को संबोधित करते हुए, जब प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की कि वे आगामी 1000 दिनों में देश के 18 हजार से ज्यादा गांवों तक बिजली पहुंचा देंगे, तो लगा था कि अब सच में पूरे भारत को अंधेरे से मुक्ति मिल जाएगी. 1 मई 2018 तक 18,452 अविद्युतीकृत गांवों तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य न तो ज्यादा बड़ा था और न ही कठिन, क्योंकि सरकारी आंकड़े ही कहते हैं कि मोदी से पहले के कई प्रधानमंत्रियों ने विद्युतीकरण को लेकर इससे ज्यादा बड़ा लक्ष्य हासिल किया है.
मोदी सरकार को करीब तीन सालों में देश के 18 हजार गांवों को रौशन करना था, जबकि इससे पहले केवल 2005-06 में देश के 28 हजार से ज्यादा गांवों में बिजली पहुंचाई गई, वहीं इंदिरा गांधी ने तो अपने कार्यकाल में प्रतिवर्ष 20 हजार से ज्यादा गांवों को विद्युतीकृत किया था. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का यह लक्ष्य इस मायने में खास था कि इसके पूरा हो जाने से देश से पूरी तरह अंधेरा खत्म हो जाता. 1000 दिन से पहले ही प्रधानमंत्री ने यह घोषणा भी कर दी कि हमारी सरकार ने समय से पहले देश से अंधेरा मिटाने का लक्ष्य हासिल कर लिया है. लेकिन प्रधानमंत्री की इस घोषणा के अगले दिन ही देश के कई हिस्सों से अंधेरे में जीवन गुजार रहे कई गांवों की ऐसी तस्वीरें सामने आईं, जिन्होंने सरकारी आंकड़ों की कलई खोल दी.
नवंबर 2014 में मोदी सरकार ने विद्युतीकरण के लिए दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना शुरू की. यह एक तरह से पुरानी योजना राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना का नाम बदलना भर था, क्योंकि इस योजना की रफ्तार भी कमोबेस पुरानी योजना जैसी ही है. पुरानी योजना के जैसी ही इस योजना के साथ सबसे बड़ी समस्या है, विद्युतीकरण की परिभाषा, जो यह कहती है कि जिस किसी गांव के 10 फीसदी घरों में बिजली पहुंची हो, उसे विद्युतीकृत मान लिया जाएगा. इस परिभाषा के आधार पर आंकड़ों में तो गांव विद्युतीकृत घोषित हो जाते हैं, लेकिन उसके बाद भी अधिकतर ग्रामीण बिजली की राह देख रहे होते हैं.
प्रधानमंत्री ने पूरे भारत के विद्युतीकृत होने की घोषणा कर दी, लेकिन सच्चाई यह है कि बीते तीन सालों में देश के केवल 8 फीसदी गांवों में हर घर में बिजली पहुंची है. पिछले सात महीनों की ही बात करें, तो 3900 गांव विद्यतीकृत हुए हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 236 गांवों में ही हर घर को बिजली नसीब हुई. देश के 3 करोड़ से ज्यादा घर आज भी बिजली की राह देख रहे हैं. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र के ही कई गांवों में अब तक बिजली नहीं पहुंच सकी है. कई ऐसे भी गांव हैं, जहां केवल तार और खंभे हैं, लेकिन बिजली नहीं, वहींकई गांवों के चंद घरों में बिजली पहुंचाकर उसे पूर्ण विद्युतीकृत घोषित कर दिया गया है.
इधर सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी पीठ थपथपा रही है. पूर्व ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने तो विद्युतीकरण को लेकर अपनी सरकार की उपलब्धि दिखाने के लिए नासा के द्वारा जारी की गई तस्वीर को ट्वीटर पर पोस्ट कर दिया. विद्युतीकरण को लेकर आधारहीन दावों की फेहरिस्त में एक नाम नगला-फटेला का भी है, जिसके बारे में 70वें स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘आपको हैरानी होगी, दिल्ली से सिर्फ तीन घंटे की दूरी पर हाथरस इलाके में एक गांव नगला-फटेला है.
नगला-फटेला तक पहुंचने में मात्र तीन घंटे लगते हैं, लेकिन वहां बिजली पहुंचने में 70 साल लग गए.’ इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि प्रधानमंत्री के इस दावे के करीब दो साल बाद भी नगला-फटेला के ज्यादातर ग्रामीण बिजली की राह देख रहे हैं. देश के 17 करोड़ 99 लाख घरों में से 3 करोड़ 14 लाख घरों में अब तक बिजली नहीं पहुंच सकी है. सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के एक करोड़ 33 लाख से ज्यादा ग्रामीण घर अब भी अंधेरे में हैं, वहीं बिहार, ओड़ीशा और झारखंड को मिला दें, तो इन तीन राज्यों में भी करीब इतने ही घर अब तक विद्युतीकरण की राह देख रहे हैं.
लकड़ी के चूल्हों में दम तोड़ रहा उज्ज्वला का उद्देश्य
छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में उज्ज्वला योजना का हाल यह है कि जिले में करीब 70 प्रतिशत लोगों ने सिलेंडर का दोबारा रिफिलिंग नहीं कराया है. कई लोगों ने तो गैस चूल्हे को बोरी में बंद कर रख दिया है. दूसरी तरफ, मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में 36 हजार 15 महिलाओं को कनेक्शन मिले थे, लेकिन इनमें से 75 प्रतिशत कनेक्शनधारियों ने दूसरी बार सिलेंडर नहीं लिया. पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से तो हितग्राहियों द्वारा मोदी सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत दिए गए रसोई गैस कनेक्शन और कार्ड को बेचने की भी खबरें आईं. बिलासपुर जिले के मरवाही तहसील के कई गावों के गरीब आदिवासी परिवार सिलेंडर खत्म होने के बाद रीफिलिंग नहीं करा पाते हैं और कई लोग तो गैस कनेक्शन को पांच-पांच सौ रुपए में बेच दे रहे हैं. खुद छत्तीसगढ़ सरकार मान रही है कि वहां उज्ज्वला योजना के 39 फीसदी हितग्राही ही दोबारा अपने सिलेंडर को रिफिल कराते हैं. जाहिर है, ये घटनाएं उज्ज्वला योजना को लेकर किए जा रहे दावों पर सवालिया निशान लगाती हैं.
लकड़ी और उपलों का धुआं सहने को मजबूर ग्रामीण महिलाओं को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा शुरू की गई उज्ज्वला योजना अगर सही अर्थों में धरातल पर उतर जाती, तो यह एक तरह से ग्रामीण भारत के लिए सूराज का सपना सच होने जैसा होता. लेकिन अफसोस कि प्रधानमंत्री की यह महत्वाकांक्षी योजना भी अधर में अटकी नजर आ रही है. 1 मई 2016 को उत्तर प्रदेश के जिस बलिया से प्रधानमंत्री मोदी ने उज्ज्वला योजना की शुरुआत की थी, उस बलिया के कई गांवों के साथ-साथ लगभग पूरे देश में यह योजना दम तोड़ रही है. अव्वल तो, उन सभी लोगों तक इस योजना का फायदा ही नहीं पहुंचा, जो इसके लिए उपयुक्त थे, जिन लोगों को इसके तहत गैस सिलेंडर और चूल्हे मिले, मजबूरीवश वे भी इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं.
लोगों को चूल्हे और गैस सिलेंडर तो दे दिए जा रहे हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर दोबारा सिलेंडर नहीं रिफिल करा पा रहे हैं, क्योंकि इसका खर्च बहुत ज्यादा है. उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों में ज्यादातर वे लोग हैं, जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं. ये मनरेगा मजदूर हैं या दिहाड़ी पर काम करते हैं. वर्तमान समय में मनरेगा तो दम तोड़ ही रही है, निजी क्षेत्र में भी काम का अभाव है. ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि गरीब आम आदमी 800 रुपए खर्च कर कैसे सिलेंडर रिफिल करा पाएगा.
उज्ज्वला योजना के तहत गरीब महिलाओं को एक एलपीजी सिलेंडर के साथ एक बर्नर और एक पाइप दिया जाता है. इसके लिए सरकार प्रति कनेक्शन 1600 रुपए का खर्च खुद वहन करती है, लेकिन सिलेंडर और बर्नर का खर्च जो करीब 1600 रुपए ही होता है, उसके लिए ऑयल मार्केटिंग कंपनियां उपभोक्ताओं को एक तरह का लोन देती हैं. इस लोन की भरपाई के लिए कंपनियां सिलेंडर रिफिल कराते समय उपभोक्ता को मिलने वाली सब्सिडी काट लेती हैं. यही कारण है कि ज्यादातर उपभोक्ता दोबारा सिलेंडर रिफिल नहीं करा पाते, क्योंकि उन्हें सीधे तौर पर सब्सिडी का लाभ नहीं मिल पाता. इससे जुड़े आंकड़े भी इस योजना की सफलता पर सवाल खड़े करते हैं. इसी साल जनवरी महीनें में आई एक रिपोर्ट कहती है कि उज्ज्वला योजना के बाद से एक तरफ जहां एलपीजी कनेक्शन की दर 16.26 फीसदी बढ़ी है, वहीं गैस सिलेंडर का उपयोग मात्र 9.89 फीसदी बढ़ा है.
इससे स्पष्ट है कि लोगों तक इस योजना के पहुंच जाने के बाद भी इसका उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है. इधर सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी पीठ थपथपा रही है. इसी साल जनवरी में एक समाचार चैनल को दिए गए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि उज्ज्वला योजना के तहत देश में अबतक 3.35 करोड़ से ज्यादा सिलेंडर बांटे जा चुके हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि इस योजना की सफलता को देखते हुए इसके लक्ष्य को बढ़ाकर 8 करोड़ सिलेंडर तक कर दिया गया है और इसे भी समय से पहले पूरा कर लिया जाएगा. 8 करोड़ सिलेंडर बांटने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार ने इस मद में बजट में भी बढ़ोतरी कर दी है. इसके लिए चालू वित्त वर्ष के दौरान 4800 करोड़ रुपए के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है.
इस योजना के क्रियान्वयन से पहले क्रिसिल द्वारा किए गए एक सर्वे में 86 प्रतिशत लोगों ने बताया था कि वे गैस कनेक्शन महंगा होने की वजह से इसका प्रयोग नहीं करते हैं, जबकि 83 प्रतिशत लोगों ने सिलेंडर महंगा होना भी इसका प्रयोग न करने का कारण बताया था. इस सर्वे में सिलेंडर मिलने के लिए लगने वाला लंबा समय और दूरी भी एक प्रमुख बाधा के रूप में सामने आई थी. लेकिन सरकार ने योजना लागू करते समय कनेक्शन वाली समस्या को छोड़ अन्य किसी पर ध्यान नहीं दिया है, उल्टे सिलेंडर पहले के मुकाबले और ज्यादा महंगा कर दिया गया है. इसी तरह से जल्दी सिलेंडर डिलीवरी को लेकर होने वाली झंझटों पर भी ध्यान नहीं दिया गया.
सरकार ने गैस कनेक्शन महंगा होने की समस्या की तरफ ध्यान दिया था और इसका असर साफ़ दिखाई पड़ रहा है. बड़ी संख्या में लोगों की एलपीजी कनेक्शन लेने की बाधा दूर हुई है, लेकिन क्रिसिल द्वारा बताई गई अन्य बाधाएं, ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. लोगों को कनेक्शन मिले हैं, लेकिन इनके उपयोग का सवाल बना हुआ है. सवाल यह है कि क्या आंकड़ों के जरिए इस योजना को सफल सिद्ध करने की सरकारी कोशिश इसके उद्देश्यों को पूरा कर पाएगी…?
बेरोज़गारी : न्यू इंडिया की नई पहचान
6 फरवरी को राज्यसभा में सरकार की तरफ से बताया गया कि वर्तमान समय में बेराजगारी दर 5 फीसदी को पार कर रही है, जो 2013 में 4.9 फीसदी, 2012 में 4.7 फीसदी और 2011 में 3.8 फीसदी थी. हालांकि सरकार के मंत्री राव इंद्रजीत सिंह द्वारा ये आंकड़े बताने के चंद दिन बाद ही, बेराजगारी दर 6 फीसदी को पार कर गई. सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों में नौकरियों का अकाल है. इसी साल आई कॉरपोरेट मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि 31 जनवरी 2018 तक 17 लाख कंपनियां रजिस्टर्ड थीं, जिनमें से अब तक 5 लाख 38 हजार कंपनियां बंद हो चुकी हैं. इन 5 लाख 38 हजार में से 4 लाख 95 हजार कंपनियों ने बिजनेस न मिलने को बंद का कारण बताया. केवल 2017 में करीब 3 लाख कंपनियों ने अपना कारोबार समेट लिया. इधर, प्रधानमंत्री स्वरोजगार पर बल दे रहे हैं. बजट सत्र में 7 फरवरी को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘आज का मध्यमवर्गीय नौजवान नौकरी करने के बजाय नौकरी देने वाला बन रहा है.’
लेकिन मुद्रा और स्टार्टअप जैसी योजनाओं के खस्ता हाल प्रधानमंत्री के इस बयान की सार्थकता को कठघरे में खड़ा करते हैं. मुद्रा योजना के तहत अब तक के लोन वितरण के आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि दिए गए लोन में से 92 फीसदी शिशु श्रेणी के, 6.7 फीसदी किशोर श्रेणी के और मात्र 1.4 फीसदी तरुण श्रेणी के लोन हैं. जिस शिशु श्रेणी के तहत 92 फीसदी लोन वितरित किए गए, उनका भी औसत काफी कम है. 2015-16 में इसका औसत 19 हजार और 2016-17 में 23 हजार था. गौर करने वाली बात यह भी है कि 30 जून 2017 तक मुद्रा योजना के तहत दिए गए लोन में से 39 लाख 12 हजार रुपए एनपीए हो गए हैं, यानि उनके वापस लौटने की कम संभावना के मद्देनजर बैंकों ने उन्हें बट्टे खाते में डाल दिया है. ये सब उस योजना के आंकड़े हैं, जिसकी सफलता को लेकर आए दिन सत्ताधारी पार्टी के नेता और यहां तक की प्रधानमंत्री भी ढोल पीटते रहते हैं.
स्टार्टअप इंडिया का हाल भी कुछ ऐसा ही है. इस योजना की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था स्टार्टअप इंडिया के जरिए हमारी कोशिश देश के युवाओं को जॉब सीकर से जॉब क्रिएटर बनाने की है. अफसोस कि स्टार्टअप को लेकर देखा गया प्रधानमंत्री का सपना टूट रहा है. हाल में आई संसदीय समिति की रिपोर्ट कहती है कि 6 फरवरी 2018 तक डीआईपीपी यानि औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने 6981 स्टार्टअप्स चयनित किए थे, लेकिन उनमें से मात्र 99 स्टार्टअप्स को फंड और मात्र 82 को कर्जमाफी के सर्टिफिकेट आवंटित किए गए हैं.
मार्च 2019 के लिए डीआईपीपी ने 100 नए स्टार्टअप्स की मदद का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन अब तक के प्रदर्शन को देखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करना भी मुश्किल ही लग रहा है. आईबीएम की रिपोर्ट बताती है कि वित्तीय कमी के कारण 90 फीसदी स्टार्टअप शुरू होने के पांच साल के भीतर बंद हो जाते हैं. स्टार्टअप इंडिया के प्रचार-प्रसार को लेकर सरकार की सुस्ती पर भी संसदीय समिति ने सवाल उठाया है. 2017-18 में स्टार्टअप इंडिया के प्रचार-प्रसार के लिए 10 करोड़ आवंटित किए गए थे, लेकिन इनमें से मात्र 4 लाख रुपए ही खर्च हो पाए. इन आंकड़ों के जरिए स्वरोजगार सृजन के प्रयासों को लेकर सरकार की उदासीनता सहज ही समझी जा सकती है.
ग्रामीण स्तर पर मनरेगा को रोजगार का प्रमुख माध्यम माना जाता था, लेकिन आज यह योजना पूरी तरह से मृतप्राय होती जा रही है. साल-दर-साल इस योजना के जरिए सौ दिन का रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या घटती जा रही है. 2013-14 में इस योजना के द्वारा पूरे 100 दिनों का रोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या 46,59,347 थी, जो 2016-17 में 39,91,169 और 2017-18 में 27,38,364 हो गई. गौर करने वाली बात यह भी है कि एक तरफ काम मांगने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ काम में कमी आती जा रही है.
हाल के दिनों में बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओड़ीशा में मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने वालों की संख्या में 30 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्ज हुई है. लेकिन देशभर में कुल मनरेगा मजूदरों में से 2 फीसदी से भी कम मजदूर 2017-18 में 100 दिन का काम पा सके. गुजरात में 1.30, महाराष्ट्र में 11.87, राजस्थान में 5.04, मध्य प्रदेश में 3.8, छत्तीसगढ़ में 13.90, उत्तर प्रदेश में 0.87 और बिहार में मात्र 0.68 फीसदी लोगों को 2017-18 में 100 दिन का काम मिला.
आज भी तारणहार की राह देख रही है गंगा मैया
कानपुर, फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरपुर, श्रीनगर, गुरुग्राम, जयपुर, पटियाला, जोधपुर… ये दुनिया के 14 सबसे प्रदूषित शहर हैंै और ये उसी भारत के शहर हैं, जहां 4 साल पहले प्रधानमंत्री ने स्वच्छता को एक महत्वाकांक्षी मिशन बनाया था. 2014 के बाद से अब तक, कोई भी साल ऐसा नहीं गुजरा, जब स्वच्छता अभियान के नाम पर करोड़ों के बजट वाला कार्यक्रम नहीं हुआ हो. झाड़ू हाथ में थामे नेताओं द्वारा फोटो खिंचवाना तो एक तरह से सियासी सिंबल बन गया, लेकिन देश में गंदगी का अंबार यथावत बना रहा.
पिछले साल एक आरटीआई के जरिए पता चला था कि मोदी सरकार ने एक साल के भीतर स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार-प्रसार में ही करीब 100 करोड़ रुपए खर्च कर दिए. स्वच्छता अभियान का उद्देश्य सिर्फ सड़कों पर ही दम नहीं तोड़ रहा, नदियां भी कूड़ाघर में तब्दील होती जा रही हैं. गंगा को निर्मल बनाने के लिए 13 मई 2015 को नमामी गंगे योजना शुरू हुई थी. इसके लिए 5 सालों में 20 हजार करोड़ का फंड मंजूर हुआ, जिसमें से 2015-18 के बीच 4131 करोड़ रुपए खर्च होने थे, लेकिन फरवरी 2018 तक इसमें से मात्र 3062 करोड़ रुपए ही खर्च हो सके हैं.
गंगा सफाई को लेकर सरकार की कोशिशों की बात करें, तो इसके लिए जिम्मेदार मंत्री नितिन गडकरी के प्रयास भी उनके मंत्रालय की पूववर्ती मंत्री उमा भारती के ढर्रे पर ही हैं. मंत्री बनने के बाद जिस तरह उमा भारती तारीख-पर-तारीख देती रहीं, कुछ वैसा ही गडकरी भी कर रहे हैं. जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद ही नितिन गडकरी ने कहा था कि अगले एक सप्ताह में वे गंगा सफाई को लेकर अपनी कार्ययोजना पेश करेंगे. अक्टूबर 2017 में गडकरी गंगा सफाई के लिए अपना पहला प्लान लेकर आए. 12 अक्टूबर 2017 को उन्होंने कहा था कि निर्मल गंगा के लिए 97 परियोजनाओं पर अगले साल मार्च से काम शुरू कर दिया जाएगा.
लेकिन विडंबना देखिए कि 10 मई को जब वे मीडिया से मुखातिब हुए, तो भी मार्च का ही डेडलाइन दिया, लेकिन मार्च 2018 का नहीं, मार्च 2019 का. उन्होंने कहा कि मार्च 2019 तक गंगा 70-80 फीसदी तक स्वच्छ हो जाएगी. 4 साल में किए गए कार्यों का ब्योरा देते हुए उन्होंने बताया कि गंगा को प्रदूषित कर रहे 251 उद्योगों को बंद किया जा चुका है और 938 उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण की रीयल टाइम मॉनिटरिंग की जा रही है. साथ ही गंगा के पूरे मार्ग में ऐसे 211 बड़े नालों की पहचान की गई है, जो इस नदी को प्रदूषित कर रहे हैं.
गडकरी के इन दावों से इतर हकीकत यह है कि घाटों की सफाई और रिवर फ्रंट विकास के नाम पर चल रहे 65 प्रोजेक्ट में से मात्र 24 ही बीते तीन साल में पूरे हो सके हैं. गंगा किनारे बसे शहरों से हर दिन निकलने वाले 2,953 मिलियन टन कचरा में से 1,369 मिलियन टन कचरा आज भी सीधे तौर पर गंगा में गिर रहा है. वहीं, जमीन की कमी और ठेकेदारों द्वारा काम करने की धीमी गति को कारण बताकर 2,710 करोड़ रुपए की लागत वाली 26 परियोजनाओं में देरी की गई है. हाल यह है कि 2014 से 2017 के बीच 154 विस्तृत परियोजनाओं में से सिर्फ 71 को मंजूरी मिली, वहीं 46 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में से 26 का काम देरी से चल रहा है.
गंगा सफाई को लेकर सरकार की निष्क्रियता का पता इससे भी चलता है कि एक तरफ नितिन गडकरी ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसदों-विधायकों व अन्य लोगों से आग्रह किया कि वे अपना एक महीने का वेतन स्वच्छ गंगा कोष में दान दें, लेकिन दूसरी तरफ इस कोष में पहले से पड़ी हुई राशि सरकार अब तक खर्च नहीं कर सकी है. पिछले साल आई कैग की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ था कि 2017 में स्वच्छ गंगा कोष में आए 198 करोड़ 14 लाख रुपए में से अब तक एक भी पैसे खर्च नहीं हो सके हैं. संसद में पेश की गई कैग की यह रिपोर्ट बताती है कि गंगा सफाई की दिशा में राष्ट्रीय मिशन के लिए जारी 2133.76 करोड़, 422.13 करोड़ और 59.28 करोड़ रुपए सरकार खर्च ही नहीं कर पाई है. गंगा की सफाई के लिए आवंटित ये पूरी रकम 31 मार्च 2017 तक खर्च की जानी थी, लेकिन पूरा 2017 गुजर जाने के बाद भी इन पैसों का उपयोग नहीं हो सका. वहीं, गंगा की साफ-सफाई के लिए गंगा किनारे बसे गांवों को आवंटित किए गए 951 करोड़ में से भी मात्र 490 करोड़ का इस्तेमाल हो सका है.
मेक इन इंडिया का शेर सुस्त
हालांकि मेक इन इंडिया अभियान की औपचारिक शुरुआत सितंबर 2014 में हुई थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लालकिले से अपने पहले संबोधन में ही इस अभियान की रूपरेखा पेश कर दी थी. उन्होंने दुनिया के उद्यमियों का आह्वान करते हुए कहा था कि ‘आप भारत में आइए, यहां निर्माण कीजिए और उसे दुनिया के किसी भी देश में ले जाकर बेचिए. हमारे पास कौशल है, प्रतिभा है, अनुशासन है और कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति है.’ दरअसल, इस महत्वाकांक्षी अभियान का मुख्य उद्देश्य था, भारत को एक ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब में बदलने के साथ-साथ युवाओं को रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराना. भारत में रोज़गार हमेशा से एक बड़ी समस्या रहा है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, यहां हर साल एक करोड़ से ज्यादा नए लोग देश के कार्यबल (वर्क फोर्स) से जुड़ते हैं. प्रधानमंत्री ने 2014 के अपने चुनावी भाषणों में लोगों को, खास तौर पर युवाओं को, यह यकीन दिलाया था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए, तो उनके लिए रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे और हर व्यक्ति को उसके अपने ही क्षेत्र में रोज़गार मिल जाएगा. बहरहाल, मेक इन इंडिया अभियान को शरू हुए तक़रीबन चार वर्ष बीत गए हैं. इन चार वर्षों में यह अभियान अपने उद्देश्यों को पूरा करने में कितना कामयाब हुआ है? इस दौरान विदेशी निवेश की क्या स्थिति रही? क्या इस दौरान भारत एक मैन्युफैक्चरिंग हब में परिवर्तित हुआ या इस दिशा में आगे बढ़ा? क्या भारत के निर्यात में वृद्धि हुई? और सबसे बड़ी बात कि क्या युवाओं को रोज़गार मिला?
वर्ष 2014 में शुरुआती उदासीनता के बाद इस अभियान में कुछ तेज़ी आई. कई विदेशी कंपनियों ने भारत में पूंजी निवेश के प्रस्ताव रखे और कुछ ने उत्पादन करना भी शुरू किया. भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार, अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के दौरान, पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में विदेशी निवेश में 48 प्रतिशत का इजा़फा हुआ. इस अवधि में विदेशी संस्थागत निवेशकों या वित्तीय बाज़ारों के माध्यम से आने वाली कुल धनराशि 40.92 अरब डॉलर थी. इस दौरान ज़्यादातर निवेशकों ने टेलीकम्युनिकेशन, कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर, सर्विस सेक्टर, ऑटोमोबाइल, ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल्स में अधिक रुचि लिया. गौरतलब है कि ये सेक्टर परंपरागत रूप से विदेशी निवेश आकर्षित करते रहे हैं.
वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, मेक इन इंडिया की शुरुआत से लेकर अब तक यानि वर्ष 2014-15 से लेकर वर्ष 2017-18 तक देश में कुल 160.79 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया है. इन आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015-16 में 50 अरब डॉलर और वर्ष 2016-17 में 60 अरब डॉलर का एफडीआई आया. वाणिज्य मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में यह दावा किया गया है कि वर्ष 2000 से अब तक के एफडीआई इनफ्लो में मेक इन इंडिया के बाद आए एफडीआई की हिस्सेदारी 33 फीसदी है.
अब सवाल यह उठता है कि एफडीआई में 33 फीसदी इजाफे के बाद क्या रोज़गार के अवसरों में भी 33 फीसदी या उसके आस पास की वृद्धि दर्ज की गई है? भारत सरकार के लेबर ब्यूरो द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक, पिछली तिमाही में देश में रोज़गार के क्षेत्र में महज़ 1.8 फीसदी बढ़ोतरी हुई है, जो हर लिहाज़ से निराशाजनक है और सरकार के एफडीआई के आंकड़ों से मेल नहीं खाती. तो क्या यह केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी है?
व्यापार क्षेत्र की सूचना देने वाली एक निजी कंपनी सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी) के अध्ययन के मुताबिक, जुलाई और अप्रैल 2018 के बीच भारत में बेरोज़गारी दर दोगुनी हो गई है. इसके अनुसार, देश में बेरोज़गारी दर जुलाई 2017 में 3.39 फीसदी से बढ़कर मार्च 2018 में 6.23 फीसदी हो गई. यही नहीं सीएमआईई के अध्ययन में यह आशंका जताई गई है कि इस आंकड़े में वृद्धि दर्ज की जा सकती है. सीएमआईई के अध्ययन से यह साबित होता है कि नोटबंदी के बाद से देश में बेरोज़गारी दर में वृद्धि का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो अभी तक जारी है. यानि विदेशी निवेश में इजाफा रोज़गार सृजन में सहायक नहीं साबित हो रहा है. दूसरे शब्दों में कहें, तो यह जॉब-लेस विकास है.
एफडीआई के आंकड़ों में कई दिलचस्प और रोचक तथ्य मौजूद हैं. दिलचस्प तथ्य यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना कार्यभार संभालते ही एक के बाद एक जिन देशों का दौरा किया था, उनमें जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और फ्रांस को काफी महत्व दिया गया था. इन दौरों को भारतीय मीडिया ने गेम चेंजर के रूप में पेश किया था. लेकिन यदि देश के लिहाज़ से देखा जाए, तो सबसे अधिक एफडीआई मॉरिशस और सिंगापुर जैसे देशों से आया. इन दोनों देशों के मुकाबले में जापान, अमेरिका, ब्रिटेन और चीन आदि की हिस्सेदारी काफी कम रही. यह रुझान 2000 से लगातार जारी है. गौरतलब है कि मॉरिशस और सिंगापुर टैक्स हैवन के तौर पर पहले से ही बदनाम हैं. लिहाज़ा, इन देशों से सबसे अधिक निवेश आना आश्चर्यजनक नहीं है.
हालांकि 2016 में भारत ने मॉरिशस के साथ 1983 के डबल टैक्सेशन अवॉइडेशन कन्वेंशन (डीटीएसी) में बदलाव के समझौते पर हस्ताक्षर किया, जो अप्रैल 2017 से लागू है. सिंगापुर से भी भारत इसी तरह के समझौते की कोशिश कर रहा है. लेकिन इसके बावजूद, अभी विदेशी निवेश के मामले में ये दुनिया के दूसरे देशों से बहुत आगे हैं. इससे इस सवाल को भी बल मिलता है कि मॉरिशस और सिंगापुर के रास्ते आया हुआ निवेश भारत का ही काला धन तो नहीं है? निवेश के इन आंकड़ों से एक और सवाल खड़ा होता है कि जब तक अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे तकनीकी रूप से उन्नत देश भारत में निवेश करने के लिए आगे नहीं आएंगे, तब तक प्रधानमंत्री का मेक इन इंडिया कैसे सफल होगा?
मेक इन इंडिया की शुरुआत ऐसे समय में हुई थी, जब चीन में आर्थिक संकट गहरा रहा था और वह अपनी मुद्रा युआन का अवमूल्यन कर रहा था. चीनी शेयर बाज़ार में निवेशकों की रुचि कम हो रही थी. ऐसी स्थिति को बाज़ार विशेषज्ञ भारत के मेक इन इंडिया अभियान के लिए एक अवसर मान रहे थे. लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी विकासशील देश को अपनी आधुनिक तकनीक हस्तांतरित नहीं करतीं. तकनीक हस्तांतरण के लिए उन पर दबाव बनाना पड़ता है. ज़ाहिर है, अगर तकनीकों का हस्तांतरण नहीं होगा, तो इसका मतलब यह है कि मेक इन इंडिया का अभियान कुछ विदेशी कंपनियों तक सिमट कर रह जाएगा.
चीन की विकास दर में आ रही गिरावट के पीछे का बड़ा कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर उसकी निर्भरता ही है. ऐसे में, भारत को तकनीक के विकास के लिए रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर अधिक ज़ोर देना चाहिए और कोई फैसला जल्दबाजी में नहीं करना चाहिए. बहरहाल, मेक इन इंडिया अभियान में अब तक सेक्टर के हिसाब से प्रगति को देखते हुए कहा जा सकता है कि विदेशी निवेश में जो रुझान 2000 में था, उस रुझान में कोई खास तब्दीली नहीं आई है. अभी भी सर्विस सेक्टर सबसे अधिक विदेशी निवेश आकर्षित कर रहा है, जो पहले से ही मज़बूत स्थिति में है. भारत में मेक इन इंडिया का शेर उस समाय दहाड़ेगा जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सबसे अधिक एफडीआई आएगी.
मनरेगा : बढ़ता बजट, घटता रोज़गार
मनरेगा बजट 2017-18 की स्थिति
2014-15: 32,139 करोड़ कुल मनरेगा मजदूर- 25,17,00,000
2015-16: 39,974 करोड़ जॉब कार्ड धारक- 12,65,00,000
2016-17: 47,411 करोड़ काम मिला- 4,86,41,132
2017-18: 53,152 करोड़ सौ दिन का काम- 27,38,364
ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस : रैंकिंग में सुधार किसके लिए
मेक इन इंडिया का एक प्रमुख पहलू ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस भी है. ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (ईओडीबी) इंडेक्स वर्ल्ड बैंक ग्रुप द्वारा स्थापित रैंकिंग प्रणाली है. इसमें उच्च रैंकिंग का मतलब होता है, आसान एवं बेहतर विनियमन और संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा का मज़बूत आधार. इसके इंडेक्स के लिए 189 देशों से आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं, जो व्यापार विनियम के 10 क्षेत्रों से लिए गए होते हैं. ये क्षेत्र हैं- व्यापार की शुरुआत, निर्माण परमिट, ऊर्जा की सहूलियत, प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री, कर्ज की सहूलियत, छोटे निवेशकों की रक्षा आदि. वर्ष 2016-17 में इन मानकों के आधार पर भारत दुनिया के 189 देशों में 130वें स्थान पर था, जो अब 30 पायदान निचे खिसककर 100वें स्थान पर आ गया है. ज़ाहिर है, सरकार इसको अपनी उपलब्धि बता रही है कि उसके द्वारा उठाए गए क़दमों के कारण भारत की रैंकिंग में इतनी बड़ी सुधार हुई है. लेकिन यहां भी लाभ तब दिखेगा, जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के निवेश में कोई बड़ा उछाल आएगा. स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया में कैसे आंकड़ों का खेल चल रहा है, इस पर चौथी दुनिया पहले भी कई रिपोर्टें प्रकाशित कर चुका है.
फसल बीमा : किसान त्रस्त बीमा कंपनी मस्त
मौसम की मार के कारण फसल की बर्बादी और उसके नतीजे में बढ़ता क़र्ज़ का बोझ किसानों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है. क़र्ज़ के बोझ के चलते किसानों की आत्महत्या का सिलसिला पिछले कई दशकों से लगातार जारी है. मौजूदा प्रधानमंत्री ने 2014 के अपने चुनावी भाषणों में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था. उन्होंने कहा था कि किसानों को उनकी फ़सल की लागत का कम से कम दोगुना लाभ दिया जाएगा. लेकिन अभी तक यह वादा, वादा ही बना हुआ है.
इस बीच किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है. किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण क़र्ज़ का बोझ है, जो फसल की बर्बादी की वजह से बढ़ता जाता है. फसल की बर्बादी की वजह से किसानों पर पड़ने वाले क़र्ज़ के बोझ को हल्का करने के लिए मौजूदा सरकार ने 13 जनवरी 2016 को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के नाम से एक नई योजना की शुरुआत की. इस योजना का मकसद किसानों पर प्रीमियम का बोझ कम करना था.
सरकार की तरफ से यह भी दावा किया गया कि इस योजना के तहत बीमा दावे के निपटान की प्रक्रिया को तेज और सरल किया जाएगा और इस योजना को केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर लागू करेंगी. एक उदहारण से यह समझने की कोशिश करते हैं कि फसल बीमा का लाभ किसानों को मिल रहा है या नहीं? वर्ष 2016 में उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में खरीफ सीजन में 53,816 किसानों ने 43,403 हेक्टेयर फसल का बीमा कराया. प्रीमियम की शक्ल में बीमा कंपनियों को पांच करोड़ से ज्यादा रुपए अदा किए गए, जबकि फसल बीमा का लाभ मात्र 1208 किसानों को मिला.
इसके बावजूद सरकार यह दावा करती रही कि फसल बीमा की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया है और अब किसान को न तो बीमा कराने में परेशानी हो रही है और न ही मुआवजा हासिल करने में. कुछ ऐसा ही हाल देश के अन्य राज्यों का भी है. दरअसल, इस बीमा योजना का मकसद प्राकृतिक कारणों से फसल की बर्बादी के बाद पैदा होने वाले तनाव से किसानों को निजात दिलाना है. लेकिन अभी तक की रिपोर्टों के मुताबिक, यह योजना किसानों का तनाव कम करने के बजाय इजाफा ही कर रही है.
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, पैनल में शामिल 11 बीमा कंपनियों ने पीएमएफवीवाई के तहत वर्ष 2016-17 में खरीफ और रबी फसलों के लिए लगभग 15891 करोड़ रुपए के प्रीमियम की पॉलिसी बेची. इस प्रीमियम की राशि में किसानों की भागीदारी 2685 करोड़ रुपए थी, जबकि बाक़ी की राशि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वहन की गई थी. मंत्रालय द्वारा यह भी दावा किया गया है कि वर्ष 2016-17 में बीमा क्लेम की राशि 13 हजार करोड़ रुपए हो सकती है, जो किसानों से इकट्ठा की गई प्रीमियम से 80 प्रतिशत अधिक थी. इस बीच विपक्ष का आरोप था कि सरकार ने प्रधानमंत्री बीमा योजना के सहारे प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाया.
कांग्रेस ने दावा किया था कि वर्ष 2016 में खरीफ फसल के लिए बीमा कंपनियों को 17,185 करोड़ रुपए अदा किए गए और बदले में कुल 3.9 करोड़ किसानों को केवल 6,808 करोड़ रुपए की राहत मिली, यानि बीमा कंपनियों को कुल 10 हजार करोड़ रुपए का लाभ हुआ. भले ही विपक्ष का जो भी आरोप हो, इस दौरान बीमा कंपनियों ने स्वीकार किया कि कृषि बीमा की वजह से उनके प्रीमियम कलेक्शन में वृद्धि हुई. यह भी सच है कि किसानों के जिस तरह के लाभ की बात सरकार कर रही थी, वैसा लाभ किसानों को नहीं मिला. नतीजतन इस पॉलिसी के प्रति किसानों की उदासीनता अब ज़ाहिर होने लगी है.
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से छपी ख़बरों के मुताबिक, इस वर्ष खरीफ और रबी दोनों फसलों का बीमा कराने वाले किसानों की संख्या में 14 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है, जबकि कुल फसल क्षेत्र में 24 फीसदी की गिरावट देखी गई. गौर करने वाली बात यह भी है कि इस योजना के अंतर्गत महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों का प्रदर्शन सबसे ख़राब रहा है. इन आंकड़ों से ज़ाहिर होता है कि तमाम सरकारी दावों के बावजूद, कृषि बीमा किसानों के लिए फायदे का सौदा नहीं है. वे इस पॉलिसी का लाभ लेने के लिए 1.5 से 5 फीसदी का प्रीमियम देने के लिए भी तैयार नहीं हैं.