राजनीतिक नेतृत्व एक कठिन चुनौती है. आपको विशाल मतदाताओं के समूह के लिए मुख्य कार्यकारी अधिकारी के साथ-साथ मुख्य जन संपर्क अधिकारी और मानव संसाधन अधिकारी की भूमिका भी अदा करनी होती है. इसके साथ ही आपको पता नहीं होता कि कब आपकी नौकरी चली जाएगी, जैसा कि पिछले हफ्ते डेविड कैमरन के साथ हुआ. अब ब्रिटेन में जल्द से जल्द उनकी जगह लेने की होड़ मची हुई है क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश में शीर्ष पद को खाली छोड़ना हानिकारक हो सकता है. लेबर पार्टी भी इन दिनों नेतृत्व में विश्वास के संकट से गुजर रही है और उम्मीद है कि जल्द ही वहां भी एक चुनाव आयोजित किया जाएगा.
भारतीय राजनीति में नेता का चुनाव अपारदर्शी तरीके से होता है. अपनी सबसे बड़ी हार के दो साल बाद भी कांग्रेस में नेतृत्व का कोई परिवर्तन नहीं हुआ (यहां तक कि परिवार के भीतर से भी नहीं). खुद आश्वस्त रहना कांग्रेस की फितरत है. हालांकि भाजपा एक वंशवादी पार्टी नहीं है, लेकिन वहां भी नेता के चयन की प्रक्रिया का थाह लगाना मुश्किल है. यह तो निश्चित है कि वहां भी पार्टी सदस्यों के मतदान द्वारा नेता का चुनाव नहीं होता है. इसका परिणाम यह होता है कि नेता के अधिकार अनिश्चित हो जाते हैं. जब नरेंद्र मोदी को भाजपा के संसदीय अभियान का नेता चुना गया था, तब वहां कोई औपचारिक चुनाव नहीं हुआ था. लेकिन जब वे भारी बहुमत से चुनाव जीत गए तो उनकी शक्ति असीमित हो गई. यह शक्ति उन्होंने अपने प्रदर्शन से हासिल की. उन्होंने खुद ही कहा है कि वे दिल्ली के लिए एक बाहरी व्यक्ति हैं और दिल्ली की सत्ता के अभिजात वर्ग से अपरिचित हैं. यह बयान मोदी को न सिर्फ भाजपा के नेताओं से अलग करता है, बल्कि दूसरे तमाम नेताओं से भी अलग करता है. ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे पिछले दरवाजे से शीर्ष पर पहुंचे हैं और उन्हें दिल्ली के अभिजात वर्ग से निपटने के लिए अरुण जेटली को तैनात करना पड़ा है.
नरेन्द्र मोदी को शक्ति उनके चुनाव जीतने की क्षमता से मिली है. उन्होंने भाजपा को सदन में बहुमत दिला दिया. जब तक वे चुनाव जीतते रहेंगे, तब तक पार्टी में उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा. यही कारण है कि लोकसभा के बाद दिल्ली और बिहार का चुनाव उनके लिए एक सदमे की तरह था. अब असम की जीत ने उन्हें फिर जीत की राह पर खड़ा कर दिया है. उनकी अगली परीक्षा उत्तर प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों में होनी है.
हाउस ऑफ कॉमन्स में अक्सर यह कहा जाता है कि आपके विरोधी आपके सामने होते हैं और आपके दुश्मन आपके पीछे. 2014 में जीत के बाद भाजपा ने मोदी को बिना हस्तक्षेप अपना शासन चलाने के लिए वरिष्ठ सदस्यों को किनारे कर दिया. दरअसल एक बात जो किसी की समझ में नहीं आई वह यह कि भाजपा कांग्रेस की तरह एक पिरामिड नहीं थी, बल्कि हिमालय की तरह एक पर्वत श्रृंखला थी.
इस परिप्रेक्ष्य में हमें डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी के हस्तक्षेप को समझने की जरूरत है. वे भाजपा के सबसे वरिष्ठ सक्रिय नेताओं में से एक हैं. आडवाणी की तरह उन्होंने चुप्पी नहीं साध ली है. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उनके पास दृढ़ संकल्प है. आपातकाल (जब मौजूदा प्रधानमंत्री एक प्रचारक थे) के दौरान वे इंदिरा गांधी के लिए परेशानी का सबब बने हुए थे. उन्होंने जयललिता और सोनिया गांधी को अदालतों में चुनौती दी. उन्होंने अपनी ताक़त सोशल मीडिया के बेहतर इस्तेमाल और असीम ऊर्जा से हासिल की है.
डॉ. स्वामी और प्रधानमंत्री में कई स्पष्ट समानताएं होने के साथ कई फर्क भी हैं. एक बात जो मोदी को स्वामी से अलग करती है, वह है मोदी में चुनाव जीतने की क्षमता. उन्होंने राज्य और केंद्रीय स्तर पर सरकारें चलाई हैं. मोदी ने अब स्वामी की चुनौती को पहचान लिया है और उन्हें रोकने की शुरुआत भी कर दी है. दरअसल यह इस कहानी का अंत नहीं, बल्कि यह एक शुरुआत का अंत है.