उत्तर प्रदेश के चुनावी समर की आंच बिहार में भी शिद्दत से महसूस की जा रही है. प्रखर चेतना से संपन्न यह सूबा पड़ोस की राजनीतिक सरगर्मी से तपने लगा है. हालांकि चुनाव में अभी कई महीने हैं, पर सत्तारूढ़ महागठबंधन हो या विपक्षी एनडीए, दोनों के घटक दल अपने-अपने तरीके से वहां के चुनावी अखाड़े में दांव आजमाने को बेताब हैं. ये अपने-अपने राग पर अपनी-अपनी डफली बजाने की तैयारी करते दिख रहे हैं. महागठबंधन के तीनों दलों-जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल व कांग्रेस-की तीन दिशाएं तय मानी जा रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘संघ-मुक्त भारत’ के राजनीतिक नारे और ‘शराब-मुक्त भारत’ के सामाजिक अभियान के साथ उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में हैं. वे भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और समाजवादी पार्टी व इसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव पर एक साथ निशाना साध रहे हैं. उनके निशाने पर कांग्रेस नहीं है और यह स्वाभाविक है क्योंकि बिहार में वह उनका सहयोगी है, लेकिन यहां उसकी राह जुदा है. वह यूपी में सत्ता के दावेदार के तौर पर खुद को पेश कर सम्मानजनक ‘राजनीतिक जमीन’ की तलाश में है. महागठबंधन के तीसरे दल राजद ने अब तक अपना पत्ता नहीं खोला है. हालांकि मुलायम सिंह यादव और सपा के प्रति वह अपनी सहानुभूति जाहिर कर चुका है. इधर, एनडीए में भी हालात सामान्य तो नहीं ही रहने की उम्मीद है. भारतीय जनता पार्टी सत्ता की दावेदार है और उस हिसाब से वोट की जुगाड़ में भी लगी है.
बिहार एनडीए के गैर भाजपाई दल रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी
(रालोसपा) और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) को उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई हिस्सा मिलेगा या नहीं, यह तय नहीं है. ये तीनों दल चुनाव में उतरने की हरसूरत तैयारी में हैं.
जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘संघ-मुक्त भारत’ का राजनीतिक नारा और शराबबंदी के सामाजिक अभियान के साथ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अपनी भूमिका को बेहतर राजनीतिक आकार देने के ख्याल से कई महीने पहले ही मैदान में कूद पड़े. बिहार में नई सरकार के गठन के कुछ महीनों के भीतर उनके ‘मिशन 2019’ के बहाने मिशन उत्तर प्रदेश की शुरुआत हो गई. उन्होंने साल के आरंभिक महीनों में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक मित्रों की तलाश की, पीस पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल जैसों से सकारात्मक संकेत भी मिले, पर बात नहीं बनी और इनके रास्ते अलग-अलग ही रहे. अपना दल के कृष्णा पटेल एनडीए से नाखुश हैं और इस खेमा से चुनावी तालमेल की उम्मीद जद (यू) सुप्रीमो को है. दोनों दलों के नेताओं ने इस आशय के संकेत भी दिए हैं. इधर, बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की कार्य-शैली से नाराज होकर आरके चौधरी अलग हो गए हैं. आरके चौधरी ने नीतीश कुमार के साथ होने की इच्छा जताई है. ये जद (यू) के लिए नई उम्मीद हो सकते हैं. ऐसी राजनीतिक कवायद जारी रहेगी, पर अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए सक्रियता जरूरी है, इस रणनीति के तहत ही जद (यू) आगे बढ़ रहा है. नीतीश कुमार ने मई में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से रैलियों-आयोजनों का सिलसिला आरंभ किया और हाल में इलाहाबाद के फूलपुर में रैली की है. अगले दो हफ्ते में ऐसी ही रैलियां लखनऊ और कानपुर में होनी हैं. लखनऊ के लिए 26 जुलाई की तारीख तय है जबकि कानपुर में अगस्त के पहले हफ्ते में रैली होनी है. नीतीश कुमार का यह राजनीतिक अभियान पूर्वांचल से आगे बढ़ रहा है. चुनावी सरगर्मी के परवान चढ़ने से पहले वे प्रदेश के अधिकतर हिस्सों में अपनी बात पहुंचा देना चाहते हैं. इस अभियान के जरिए वे देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी पार्टी की संभावित राजनीतिक हैसियत और चुनावों के लिए उम्मीदवारों की खोज का काम तो कर ही रहे हैं, जद (यू) संगठन के विस्तार का उपाय भी ढूंढ रहे हैं.
जद (यू) की कार्य योजना है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव की सरगर्मी के परवान चढ़ने-अर्थात् चुनाव आयोग की किसी भी घोषणा के पहले-अधिकतर हिस्सों में अपने अभियान का एक या उससे भी अधिक चरण पूरा कर लिया जाए. इसमें उनका सारा जोर गैर यादव पिछड़े और महादलित समाजिक समूहों के प्रभाव के इलाकों में खुद को गंभीरता से पेश करने की है. जद (यू) नेतृत्व इस रणनीति को आकार देने की तैयारी में जुटी है, इस काम में बिहार के राजनीतिक सहयोगियों से उसे कोई मदद नहीं मिलनी है. कांग्रेस ताम-झाम के साथ खुद चुनाव में उतर रही है और वहां नया सामाजिक समीकरण तैयार कर भाजपा के साथ-साथ सपा के लिए भी परेशानी पैदा करने की रणनीति अपना रही है. महागठबंधन के दूसरे सहयोगी राजद और इसके सुप्रीमो लालू प्रसाद सपा और इसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ अपनी सहानुभूति जाहिर कर चुके हैं. लालू प्रसाद ने पिछले दिनों साफ शब्दों में कहा कि सांप्रदायिक शक्तियों (भाजपा) को पराजित करने के लिए मुलायम सिंह को साथ लिया जाना चाहिए और उत्तर प्रदेश में भी बिहार जैसा महागठबंधन बनाने की जरूरत है. इसके लिए वे प्रयास करेंगे. फिर उन्होंने अपनी मिशन की सफलता की उम्मीद जताते हुए कहा कि उनका काम आरंभ हो गया है. पर, जद (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार ने इसका कोई नोटिस ही नहीं लिया. वे अपने अभियान में लगे हैं और भाजपा और सपा के खिलाफ एक साथ कारवां तैयार कर अपनी राह चल रहे हैं. जद (यू) अध्यक्ष की इस ‘एकला चलो’ की रणनीति के कई आयाम हैं. बिहार से दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर ही है और उत्तर प्रदेश की उपलब्धि उनके मिशन 2019 को नई उड़ान देगी. उनकी राष्ट्रीय स्वीकृति बनेगी और संभावित तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर उनका छवि-प्रक्षेपण भी होगा. दल का औपचारिक सुप्रीमो बनने के बाद हिन्दी पट्टी के किसी राज्य में यह पहला चुनाव है और इसमें उनके राजनीतिक कौशल की परीक्षा होनी है. इन सब के साथ एक बात और है. बिहार विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की सपा और उनके परिवार की भूमिका को नीतीश कुमार कभी भूल नहीं सकते, वह इसे ‘वापस’ करना चाहते हैं और इसके लिए चुनाव से बेहतर स्थिति क्या हो सकती है! इसीलिए वे उत्तर प्रदेश में गैर यादव पिछड़े मतदाता समूहों को अपने साथ जोड़ने में लगे हैं. उनके इस राजनीतिक अभियान में उन क्षेत्रों को ही फोकस किया गया है, जहां गैर यादव पिछड़े सामाजिक समूहों का वर्चस्व है. उन राजनीतिक नेतृत्वों को वे तवज्जो दे रहे हैं जिनका असर इन सामाजिक समूहों पर है. इस काम में सांसद आरसीपी सिंह उनके मददगार हो रहे हैं. आरसीपी सिंह पूर्व आइएएस हैं और उत्तर प्रदेश कैडर के ही हैं. वहां गैर यादव राजनेताओं के साथ काम का उनका लंबा अनुभव है.
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद क्या करेंगे, यह उनके परिवार के बाहर के शायद ही किसी को मालूम हो. बिहार के सत्तारूढ़ महागठबंधन में एक मात्र लालू प्रसाद ही हैं जो उत्तर प्रदेश को लेकर साफ-साफ कुछ नहीं बोल रहे हैं. हालांकि वे अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल से-उन दिनों जनता दल ही था-उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन कैसी सफलता मिली है, यह भी बताने की जरूरत नहीं है. राजद सूत्रों पर भरोसा करें तो लालू प्रसाद अब सारा समय बिहार में देकर यहीं अपनी जमीन को अधिकाधिक पुख्ता बनाना चाहते हैं. फिर, मुलायम सिंह से अपने पारिवारिक संबंध को राजनीति के कारण प्रभावित नहीं होने देने की नीति पर चलने के पक्षधर दिख रहे हैं. अब उनके राजनीतिक फैसलों पर ‘परिवार’ का असर बढ़ता जा रहा है. उनकी सार्वजनिक गतिविधि भी इससे काफी प्रभावित हो रही है, यह सीमित होती जा रही है. पश्चिम बंगाल और असम के विधानसभा चुनावों से राजद के अलग रहने को उनके बदलते राजनीतिक आचरण के उदाहरण के तौर पर पेश किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. यह कहना कठिन है कि राजद सुप्रीमो किसके पास खड़ा दिखेंगे-मुलायम सिंह के आसपास या नीतीश कुमार के साथ. उनकी राजनीति के जानकारों को भरोसा है कि नीतीश-मुलायम को निकट करवाने की वे अंत तक कोशिश करेंगे. पर इसमें विफल होने की स्थिति में- परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर-वे मुलायम के साथ दिखना चाहेंगे. बिहार में उनके समर्थक सामाजिक आधार को भी यही रास आएगा. एनडीए में भी स्थिति कम रोचक नहीं है. भाजपा ने अपने बिहार के राजनीतिक साथियों को कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया है. लोजपा उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़े में उतरने की घोषणा कर चुकी है. पार्टी सुप्रीमो ने यह साफ नहीं किया है कि कैसे उतरेगी. पर, सूत्रों का कहना है कि वे एनडीए में ही हिस्सेदारी चाहते हैं. उन्हें उम्मीद है कि दलित होने के कारण उनकी पार्टी को तवज्जो मिल सकती है. पिछले चुनाव में भी रामविलास पासवान की पार्टी वहां मैदान में थी. हालांकि परिणाम के बारे में वे और उनके सहयोगी-जो परिवारजन ही हैं-कुछ कहने से कतराते हैं. हम के सुप्रीमो जीतनराम मांझी ने कहा है कि उनकी पार्टी वहां चुनाव में हिस्सा लेगी. वे एनडीए से संदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं. बिहार के राजनीतिक हलकों की चर्चाओं पर भरोसा करें, तो उत्तर प्रदेश के लिए मांझी हाथ-पांव मार रहे हैं, लेकिन कहीं से उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही है. एनडीए के गैर भाजपाई बिहारी घटकों में उपेंद्र कुशवाहा और उनकी रालोसपा भाग्यवान हो सकती थी, यदि भाजपा की पुरानी योजना को साकार किया जाता. बहुजन समाज पार्टी से अलग हुए स्वामी प्रसाद मौर्य को रालोसपा से जोड़ने की चर्चा चली थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मौर्य बहुजन लोकतांत्रिक मोर्चा नाम से संगठन बना रहे हैं. अब बदले हालात में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में रालोसपा को कुछ मिलेगा, इसका खुलासा होना बाकी है. लेकिन इतना तो तय है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम एनडीए की बिहार की आंतरिक बुनावट को प्रभावित करेगी.
मंडल राजनीति के बिहार संस्करण के दिग्गजों-लालू प्रसाद और नीतीश कुमार-का उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़ों में क्या हैसियत रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है. लालू प्रसाद 1990 में मुख्यमंत्री बने और उसके कुछ ही वर्ष बाद वहां चुनाव होने पर उन दिनों के जनता दल ने उसमें अपने उम्मीदवार उतारे थे. लालू तब से वहां जा रहे हैं. बाद के चुनावों में भी वे वहां उम्मीदवार देते रहे, जाते रहे. परिणाम कैसे रहे यह बताने की जरूरत नहीं है. नीतीश कुमार भी वहां के चुनावों में अपने उम्मीदवार देते रहे, प्रचार में जाते रहे. लेकिन कभी भी उत्साहजनक नतीजा नहीं मिला. हालांकि इस बार हालात बदले हुए हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विजय-रथ को बिहार में रोकने के तमगा के साथ नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में चुनाव को लेकर कोई साल भर पहले से अभियान चला रहे हैं. इसके अलावा बिहार में शराबबंदी लागू करने का यश भी उनके साथ है. लेकिन वहां वे अकेले हैं. लालू प्रसाद का उनके साथ होना मुश्किल दिखता है और कांग्रेस खुद बड़ी तैयारी के साथ मैदान में है. फिर भी, इस भाजपा विरोधी राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति से एक संपर्क सेतु-प्रशांत किशोर-उनके पास हैं. इसका वे उपयोग करेंगे और करेंगे तो किस हद तक, यह कहना कठिन है. पर इतना तय है कि जद (यू) सुप्रीमो के मिशन 2019 की अग्निपरीक्षा उत्तर प्रदेश में ही होनी है. इस अग्निपरीक्षा में वे कुछ भी अपेक्षित हासिल कर लेते हैं, तो वह गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी राजनीति के केंद्र में खुद को पेश कर सकते हैं. इस लिहाज से यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण है.
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