जनता बहुत जल्दी मांग करने वाली है कि खाने-पीने के सामान और दवाई में मिलावट करने वालों के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए. गुजरात विधानसभा को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उसने नक़ली या मिलावटी शराब बनाने वालों के लिए मौत की सज़ा का प्रस्ताव पारित किया है.
देश की महंगाई का बढ़ता असर और बीमारियों का कहर अब केवल ग़रीबों की परेशानी नहीं रहा. अब यह अमीरों के दरवाज़े खटखटा रहा है. विदेश जाने की ताक़त रखने वाले लोगों में जब कुछ लौटे तो वे अपने साथ स्वाइन फ़्लू ले आए, जिससे अब मौत का ख़तरा बढ़ता दिखाई दे रहा है. पहला ख़तरा तो मरीज़, उसके रिश्तेदारों और दोस्तों को है जो ज़ाहिर है पैसे वाले होंगे. इसीलिए देश में वे स्कूल दस दिनों के लिए बंद किए जा रहे हैं, जहां पैसे वालों के बच्चे पढ़ते हैं या जहां पढ़ाने के लिए पैसों का होना ज़रूरी है. सरकार भी उन्हीं के लिए चिंतित है. दिल्ली में और देश में ऐसे स्कूल, जहां आम आदमी के बच्चे पढ़ते हैं वहां इस ख़तरे को महसूस नहीं किया जा रहा है, क्योंकि वे कारपोरेशन के या म्युनिसिपैलिटी के स्कूल हैं, इसीलिए जब वहां न बैठने के लिए फर्नीचर है, न इमारत है और न पढ़ाने के लिए शिक्षक, तो मान लिया गया है कि वहां बीमारी जाएगी ही क्यों. यह अलग बात है कि वे स्वाइन फ़्लू से नहीं बल्कि गंदा पानी पीने से, मलेरिया से, पीलिया से या मालन्यूट्रीशन से भले मर जाएं.
मुस्लिम समाज के मदरसे तो और भी उपेक्षित हैं. बहुत जगहों पर उनकी हालत कारपोरेशन स्कूल से भी ख़राब है. बच्चों को बुख़ार आता है, घर वाले उन्हें सस्ती दवाई देते हैं, पर उन्हें कैसा बुख़ार है पता ही नहीं चलता. सरकार को चाहिए कि कारपोरेशन-म्युनिसिपैलिटी के स्कूलों और मदरसों में यह प्रचार कराए कि दो दिनों से ज़्यादा जिन बच्चों को बुख़ार आता है और सांस लेने में हल्की सी भी तक़ली़फ होती है, उन्हें तुरंत स्वाइन फ़्लू की जांच करानी चाहिए. बल्कि ज़िले के डॉक्टरों को निर्देश देना चाहिए कि ज़िले के हर स्कूल के बच्चों पर निगरानी रखें और उनका इलाज प्राथमिकता से करें.
इसी तरह एड्स के नाम पर हज़ारों करोड़ आते हैं, ख़र्च हो जाते हैं, लेकिन साल में मौतें होती हैं 700 या 800. इसे भी अमीरों की बीमारी में बदल दिया गया है, जब कि एड्स से सबसे ज़्यादा मौत उनकी होती है, जो महिलाएं हैं, और सेक्स व्यापार में हैं. न उनकी जांच होती है, न इलाज और न उनकी मौत का हिसाब रखा जाता है. बचने का एक तरीक़ा समलैंगिक संबंधों को जायज़ बनाने वाले क़ानून का समर्थन है, दूसरे शब्दों में तीन सौ सतहत्तर के हटाए जाने की ख़ुशी है. मलेरिया से साल भर में हज़ारों लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं जिसका कोई नोटिस अब सरकार नहीं लेती. कालाज़ार की वजह से भी हर साल हज़ारों लोग मरते हैं, लेकिन वे भी हमारी चिंता का विषय नहीं है. छत्तीसगढ़, झारखंड, जम्मू कश्मीर और उत्तर पूर्व में मच्छरों की वजह से कितनी मौतें होती हैं, इन पर भी हमारा ध्यान नहीं जाता. ग़रीब मुसलमानों की मौत, दलित और वंचित वर्ग के लोगों की लाखों में मौत हमारी चिंता का कारण नहीं बनता, क्योंकि समाज और सरकार संवेदनहीन हो गई है. अ़फसोस की बात है कि दलितों, कमज़ोर वर्गों और अल्पसंख्यकों, विशेष कर मुसलमानों के बीच काम करने वाले या इन वर्गों के नेता भी इन मौतों को मुद्दा नहीं बनाते.
मुस्लिम समाज के मदरसे तो और भी उपेक्षित हैं. बहुत जगहों पर उनकी हालत कारपोरेशन स्कूल से भी ख़राब है. बच्चों को बुख़ार आता है, घर वाले उन्हें सस्ती दवाई देते हैं, पर उन्हें कैसा बुख़ार है पता ही नहीं चलता. सरकार को चाहिए कि कारपोरेशन-म्युनिसिपैलिटी के स्कूलों और मदरसों में यह प्रचार कराए कि दो दिनों से ज़्यादा जिन बच्चों को बुख़ार आता है और सांस लेने में हल्की सी भी तक़ली़फ होती है, उन्हें तुरंत स्वाइन फ़्लू की जांच करानी चाहिए.
हमें यह इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि अगर ये वर्ग चेत गए कि उनकी मौत से ज़्यादा पैसे वालों की मौत की अहमियत है, तो आने वाले वर्षों में यह देश अराजकता की ओर एक क़दम और उठाएगा. मौत और बीमारी में फर्क़ नहीं करना चाहिए, बल्कि ज़्यादा ध्यान ग़रीब वर्गों के ऊपर देना चाहिए. इसी तरह महंगाई का मामला है. ग़रीब के घर की थाली में अब खाने की चीज़ें बची ही नहीं हैं. मध्यम वर्ग की थाली से भी खाने का सामान कम होता जा रहा है. बच्चों की पौष्टिकता अब कहने भर के लिए है. किसान के पास से फसल, चाहे वह गेहूं हो, धान हो, दाल हो, मसाले हों या सब्ज़ी, सस्ते भाव ख़रीदी जाती है और बिचौलिए उसे इतना महंगा कर देते हैं कि अब ये चीज़ें स़िर्फ अधिक पैसे वालों की क़िस्मत में ही रह गई लगती हैं. इसमें भी मिलावट, रंग, ज़हर मौत को और नज़दीक बुलाता है.
जनता बहुत जल्दी मांग करने वाली है कि खाने-पीने के सामान और दवाई में मिलावट करने वालों के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए. गुजरात विधानसभा को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उसने नक़ली या मिलावटी शराब बनाने वालों के लिए मौत की सज़ा का प्रस्ताव पारित किया है. उसे चाहिए कि वह हर तरह की मिलावट, विशेष तौर पर खाद्य सामग्री और दवाओं में मिलावट करने वालों को मौत की सज़ा का प्रस्ताव करे. हम संसद से देश भर में मिलावट करने वालों के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान करने और ऐसा क़ानून बनाने का अनुरोध करते हैं. बहुत से लोग ऐसा कहेंगे कि मौत की सज़ा अमानवीय है, पर जो जानबूझ कर देश के आम आदमी को कैंसर के मुंह में ढकेल रहे हैं, वे मिलावट करने वाले अपराधी दवा कंपनियों के लिए बीमार जुटाने का अपराध करते हैं और दूसरी ओर मिलावटी दवा बनाकर मौत को ही परोस देते हैं, ऐसे लोगों के लिए मौत की सज़ा मांगना ही देश प्रेम है, जो इसका विरोध करते हैं, वे देशद्रोही हैं.
कब चेतेगी सरकार और कब अपने को आम आदमी के पक्ष में खड़ा दिखाएगी, इसका इंतज़ार है. आम आदमी के पक्ष का एक राष्ट्रीय एजेंडा बने और सारे राजनीतिक दल उसका समर्थन करें. यह अति आवश्यक है. अगर ऐसा होता है तो उसका स्वागत होगा और अगर यह नहीं होता है तो आप उसे भी अराजक बनने का आमंत्रण देते हैं, जो आज लोकतंत्र में भरोसा करता है.