सस्ती दवाएं बनने के बाद भारत को गरीब देशों की दवा की दुकान कहा जाने लगा, क्योंकि यहां से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिकी देशों में सस्ती दवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश का 60 फीसदी तबका दवाओं से वंचित है. बदले हालातों में भारतीय कम्पनियां दवाओं के निर्माण की बजाय सिर्फ व्यापार में लिप्त हैं, जिससे चीन का दवा बाजार पर कब्जा बढ़ा है. हाल में आई एनएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक गांवों की 86 फीसदी तथा 82 फीसदी शहरी आबादी के पास इलाज का कोई इन्तज़ाम नहीं होता है. इनके लिए न तो सरकारी योजना है और न ही कोई निजी स्वास्थ्य बीमा. पूरा जीवन भगवान भरोसे गुजरता है. लोग दवा पर 80 फीसदी खर्च अपनी कीमत पर करते हैं. कह सकते हैं कि आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा रही है स्वास्थ्य सेवा. असमानता की खाई का आलम यह है कि जहां गरीबों तथा आम लोगों को इलाज के लिए अपना पैसा खर्च करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर लोग सरकारी धन पर विदेश जाकर इलाज कराते हैं. बात यहीं खत्म नहीं होती है दवाओं के व्यापार और इसमें तरह-तरह के गठजोड़ ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को कम्पनियों के हवाले कर दिया है.
भारत में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी लचर हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में शामिल कुल 188 देशों में भारत 143वें स्थान पर खड़ा है. हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए, लेकिन भारत में पिछले कई दशक से यह लगातार 1 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है. आजादी के बाद के हमारे देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत से बढ़कर 93 प्रतिशत हो गयी है. आज देश में स्वास्थ्य सेवाओं के कुल निवेश में निजी क्षेत्र का निवेश 75 प्रतिशत तक पहुंच गया है. निजी क्षेत्र का प्रमुख लक्ष्य मुनाफा बटोरना है जिसमें दवा कम्पनियां भी शामिल हैं, जिनके लालच और दबाव में डॉक्टरों द्वारा महंगी और गैरजरूरी दवाइयां और जांच लिखना आम हो गया है. भारत सरकार की पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव की मानें तो भारत में स्वास्थ्य जैसा महत्वपूर्ण विषय बिना किसी विजन और स्पष्ट नीति के चल रही है.
रिसर्च एजेंसी अर्न्स्ट एंड यंग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं. इस वजह से हर साल चार फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती है.
ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की क्या हालत है, इसका खुलासा सीएजी की रिपोर्ट में हुआ है. सीएजी ने 2011 से 2016 तक राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का हिसाब किताब किया है. गांवों कस्बों में स्वास्थ्य की हालत के लिए यह योजना बहुत महत्वपूर्ण है. सीएजी ने कहा है कि 27 राज्यों ने इस योजना के मद में दिए गए पैसे खर्च ही नहीं किए. 2011-12 में यह रकम 7,375 करोड़ थी. 2015-16 में 9509 करोड़ थी. ये वो राशि है जो ख़र्च नहीं हो सकी.
सीएजी की रिपोर्ट के मुताविक 27 राज्यों के लगभग हर स्वास्थ्य केंद्र में 77 से 87 फीसदी डॉक्टर नहीं हैं. 13 राज्यों में 67 स्वास्थ्य केंद्र ऐसे मिले, जहां कोई डॉक्टर ही नहीं था. 17 राज्यों में 30 करोड़ की अल्ट्रासाउंड, एक्स रे मशीन, ईसीजी मशीन पड़ी हुई है, मगर मेडिकल स्टाफ नहीं होने के कारण ये मशीन चालू हालत में नहीं है. इन मशीनों को रखने के लिए जगह भी अस्पताल में उपलब्ध नहीं है.
ये अस्तपाल और योजना नवजात बच्चों और प्रसव के दौरान मरने वाली माताओं को बचाने के लिए बेहद अहम है. यहां तक कि माताओं और बच्चों में आयरन की कमी के कारण एनीमिया हो जाता है. प्रसव के दौरान पचास फीसदी माएं एनीमिया से मर जाती हैं. इसके बाद भी सीएजी ने पाया कि सभी राज्यों के प्राथमिक केंद्रों में आयरन टैबलेट दी ही नहीं जा रही थी. एनएचआरएम सेंटर में गर्भवती महिलाओं को सौ फॉलिक एसिड टेबलेट देनी होती है. ऑडिट में पाया गया कि सभी 28 राज्यों में 3 से 75 फीसदी की कमी मिली यानी दिए ही नहीं गए. अरुणाचल, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय में 50 फीसदी गर्भवती महिलाओं को टेटनस का टीका भी नहीं लग सका.
सीएजी ने गुजरात में 3 जनरल अस्पतालों की जांच की. नडियाड जनरल अस्पताल में ऑपरेशन थियेटर तो है लेकिन ऑपरेशन के पहले और बाद में मरीज़ को रखने के लिए कमरे नहीं हैं. अगर आप सीधे मरीज़ को ऑपरेशन थियेटर में ले जाएं, वहां से सीधे वार्ड में तो उसे इंफेक्शन होने का खतरा बढ़ जाता है. इसी अस्पताल में जगह की कमी के कारण लैब का काम भी मरीज़ों के वेटिंग एरिया में ही चल रहा था. गोधरा के जनरल अस्पताल में 440 बिस्तर की ज़रूरत है लेकिन 210 बिस्तर होने के कारण मरीज़ ज़मीन पर मिले. झारखंड में 17 प्राइमरी हेल्थ सेंटर की इमारत ही नहीं है. 5 ज़िला अस्पतालों में 32 स्पेशल ट्रीटमेंट सुविधाओं में से 6 से 14 सुविधाएं ही उपलब्ध थीं, यानि जितनी बीमारी का इलाज होना चाहिए, नहीं हो रहा है. केरल की 1100 से अधिक सीएसची और पीएचसी में सिर्फ 23 में डिलीवरी की सुविधा है. बिहार में जननी सुरक्षा योजना के तहत 40 फीसदी योग्य महिलाओं को यह सुविधा नहीं उपलब्ध कराई गई.
संसाधनहीन लोगों और गरीबों के प्रति जैसी उदासीनता सरकारी और प्राइवेट चिकित्सा संस्थान बरत रहे हैं, इस हालात में देश की पूरी चिकित्सा व्यवस्था गिरोहबाजों के चंगुल में फंस गई है.