कर्ज में डूबे मध्य प्रदेश का जनसम्पर्क विभाग विज्ञापन बांटने में अग्रणी है. विज्ञापन पर राज्य सरकार द्वारा किए गए खर्च आंख खोल देने वाले हैं. इस साल मार्च महीने में कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी द्वारा इस सम्बन्ध में पूछे गए सवाल पर जनसम्पर्क विभाग के मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बताया था कि मध्य प्रदेश सरकार पिछले पांच साल में केवल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही करीब तीन अरब रुपए से अधिक के विज्ञापन दे चुकी है. बाद में इसपर जीतू पटवारी ने आरोप लगाया कि सरकार द्वारा अधूरी जानकारी दी गई है.

Madhya Pradeshभारत में मीडिया की विश्वसनीयता लगातार गिरी है, 2018 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में 2 अंक नीचे खिसककर 138वें पायदान पर आ गया है. कुछ महीने पहले ही कोबरा पोस्ट द्वारा ऑपरेशन-136 नाम से किए गए स्टिंग ऑपरेशन ने बहुत साफ़ तौर पर दिखा दिया कि मीडिया एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ दबाव में है, बल्कि इसने अपने फर्ज का भी सौदा कर लिया है. आज मीडिया के सामने दोहरा संकट खड़ा है, जिसमें ‘ऊपरी दबाव’ और ‘पेशे से गद्दारी’ दोनों शामिल हैं.

दरअसल यह गुरिल्ला इमरजेंसी का दौर है, जहां बिना घोषणा किए ही इमरजेंसी वाले काम किए जा रहे हैं. इस दौर में मीडिया ने अपने लिए एक नया नाम अर्जित किया है- ‘गोदी मीडिया.’ मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाने और उसके पक्ष में माहौल तैयार करने में खुद को समर्पित कर चुका है. अब वो सरकार से खुद सवाल पूछने के बजाए सवाल पूछने वाले विपक्ष और लोगों को ही कटघरे में खड़ा करने लगा है. विज्ञापन और ऊपरी दबाव के कॉकटेल ने खुद मीडिया को ही एक विज्ञापन बना दिया है.

पिछले दिनों केंद्र सरकार के ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन विभाग ने एक आरटीआई के जवाब में बताया है कि मोदी सरकार द्वारा 1 जून 2014 से 31 जनवरी 2018 के बीच 4343.26 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च किए जा चुके हैं. सूबा मध्य प्रदेश भी इन सबसे अछूता नहीं है. मीडिया मैनेज करने का सरकारी खेल यहां भी चल रहा है. मध्य प्रदेश में सत्ता और पत्रकारिता का अनैतिक गठजोड़ बहुत पुराना है, जिसके लिए सत्ता में बैठे लोग मीडिया संस्थानों और कर्मियों को खुश करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

इसकी शुरुआत अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में ही हो गई थी, जब उन्होंने मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को जमीन व बंगले बांटने की शुरुआत की थी. अपने दौर में उन्होंने मीडिया घरानों को भोपाल की प्राईम लोकेशन में जमीनें आवंटित की और पत्रिकाओं को मकान, प्लॉट और अन्य सरकारी सुविधाओं से खूब नवाजा गया. प्रदेश में पत्रकारिता का मूल चरित्र तो संकट में है ही, पत्रकार भी सुरक्षित नहीं हैं. पत्रकारों पर हमलों के मामले में भी मध्य प्रदेश पहले स्थान पर है. केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक, दूसरे राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश में पिछले 2 सालों में पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं.

सत्ता-मीडिया गठजोड़

मौजूदा दौर में मध्य प्रदेश में सत्ता और मीडिया के गठजोड़ को दो घटनाओं से समझा जा सकता है. पहली घटना इसी अगस्त महीने के पहले सप्ताह की है. मध्य प्रदेश के एक प्रमुख अखबार द्वारा एक चुनावी सर्वे प्रकाशित किया गया, जिसके अनुसार, मध्य प्रदेश में एक बार फिर भाजपा की सरकार को बनती हुई दिख रही है. इस सर्वे के दौरान ही नगरीय निकाय उपचुनाव के नतीजे आए, जिसमें कांग्रेस पार्टी 13 में से 9 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि भाजपा के खाते में 4 सीटें ही आईं. विरोधाभास भरे इस इत्तेफाक पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की दिलचस्प टिप्पणी सामने आई और उन्होंने कहा कि सर्वे नहीं, ये चुनाव नतीजे जनता का फैसला है.

दूसरी घटना पेड न्यूज के एक बहुचर्चित मामले से जुड़ी है, जिसमें 2008 चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के प्रमुख नेता और मंत्री नरोत्तम मिश्रा पर पेड न्यूज के आरोप लगे थे. इस मामले की तहकीकात के लिए गठित जांच कमेटी ने अपनी जांच में पाया था कि उस दौरान नरोत्तम मिश्रा के समर्थन में प्रकाशित 48 लेखों में से 42 पेड न्यूज के दायरे में आते हैं. हालांकि बाद में सम्बन्धित अखबारों के यह कहने के बाद कि उन्होंने अपनी मर्जी से ये खबरें प्रकाशित की थीं, उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट से राहत मिल चुकी है.

मध्य प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष पद संभालने के बाद राकेश सिंह द्वारा मीडिया को लेकर की गई एक विवादित टिप्पणी वायरल हुई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि कवरेज तो हमें तब मिलेगा जब मीडिया को कुछ (पैसे का इशारा करते हुए) मिलेगा. दरअसल, राकेश सिंह ने मध्य प्रदेश के उस काम का एक अनकहा सच बोला था, जो राज्य में उनकी पार्टी की सरकार मीडिया को लेकर करती आई है. पिछले 15 सालों में मीडिया को नियंत्रित करने और उसे मोहमाया में फंसाने का इस सरकार ने हर संभव प्रयास किया है. शिवराज सिंह चौहान अपने लम्बे शासनकाल के दौरान अपनी घोषणाओं और विज्ञापनबाजी के लिए खासे चर्चित रहे हैं. उन्होंने खुद और अपनी सरकार की इमेज बिल्डिंग के लिए पानी की तरह पैसा बहाया है.

इसे लेकर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का आरोप है कि शिवराज सिंह चौहान 30 में से 25 दिन मध्य प्रदेश के अखबारों में अपनी फोटो छपवाते हैं और इसके लिए हर महीने 300 करोड़ रुपए खर्च करते हैं. माना जाता है कि विज्ञापनों के दम पर ही शिवराज सरकार व्यापम और उस जैसे कई अन्य मामलों की लीपापोती में कामयाब रही है. इधर चुनाव नजदीक होने की वजह से इन दिनों विज्ञापनबाजी का यह सिलसिला और बढ़ गया है. इसका हालिया उदाहरण इस साल 26 अप्रैल को देखने मिला, जब प्रदेश के एक प्रमुख अखबार नई दुनिया ने अपने 24 पृष्ठ में 23 पृष्ठों पर मध्य प्रदेश के विज्ञापन प्रकाशित किए थे. इन विज्ञापनों में शिवराज सरकार की उपलब्धियों के दावे और योजनाओं का प्रचार था. हद तो यह है कि उस दिन अखबार का संपादकीय पेज भी विज्ञापननुमा था, जिस पर स्थानीय सम्पादक द्वारा ‘देश को गति देती मध्य प्रदेश की योजनाएं’ नाम से लिखा गया लेख छपा था.

पूरा ज़ोर इमेज बिल्डिंग पर

कर्ज में डूबे मध्य प्रदेश का जनसम्पर्क विभाग विज्ञापन बांटने में अग्रणी है. विज्ञापन पर राज्य सरकार द्वारा किए गए खर्च आंख खोल देने वाले हैं. इस साल मार्च महीने में कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी द्वारा इस सम्बन्ध में पूछे गए सवाल पर जनसम्पर्क विभाग के मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बताया था कि मध्य प्रदेश सरकार पिछले पांच साल में केवल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही करीब तीन अरब रुपए से अधिक के विज्ञापन दे चुकी है. बाद में इसपर जीतू पटवारी ने आरोप लगाया कि सरकार द्वारा अधूरी जानकारी दी गई है. उन्होंने उन संस्थानों की सूची भी मांगी थी, जिन्हें विज्ञापन जारी किए गए हैं, मगर वह सूची उपलब्ध नहीं कराई गई.

इसके बाद जीतू पटवारी ने शिवराज सरकार पर अयोग्य मीडिया संस्थानों को बेहिसाब विज्ञापन देने का आरोप लगाते हुए कहा था कि सरकार ने केवल उन्हीं मीडिया संस्थानों को विज्ञापन दिए जो या तो भाजपाइयों द्वारा संचालित हैं या फिर शिवराज सिंह सरकार की चाटुकारिता करते हैं. मध्य प्रदेश सरकार द्वारा विज्ञापन पर हुए खर्च को छुपाने के और भी मामले हैं, जिसमें एक 2016 में सिंहस्थ का मामला है. मुख्यमंत्री की फोटो के साथ सिंहस्थ के विज्ञापन पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए थे. ये विज्ञापन न सिर्फ राज्य या न सिर्फ देशभर लगाए गए थे, बल्कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा अमेरिका में इसके प्रचार-प्रसार पर भी करीब 180 करोड़ खर्च किए गए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून द्वारा और विधानसभा में इस बारे में बार-बार पूछे जाने पर भी शिवराज सरकार द्वारा अभी तक इसका जवाब नहीं दिया गया है कि उसने सिंहस्थ के बहाने अपनी ब्रांडिंग पर कितनी राशि खर्च की.

सिंहस्थ के दौरान बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले भी देखने को मिले थे, जिसमें स्वास्थ्य सुविधाओं के काम आने वाले सामानों को कई गुना महंगे दामों पर खरीदे जाने की बात सामने आई थी. बताया जाता है कि उस दौरान करीब पांच करोड़ की स्वास्थ्य सामग्री के लिए 60 करोड़ रुपए चुकाए गए थे. 11 दिसम्बर 2016 से 15 मई 2017 के बीच करीब पांच महीने चलने वाली मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नमामि देवि नर्मदे सेवा यात्रा पर भी बेतहाशा खर्च हुआ. सरकार द्वारा विधानसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, इस यात्रा के दौरान विज्ञापन करीब 33 करोड़ रुपए खर्च किए गए. हालांकि इससे नर्मदा को क्या फायदा हुआ है, यह शोध का विषय हो सकता है.

मध्य प्रदेश में विज्ञापन घोटाला भी हो चुका है, जिसे व्यापम से भी जोड़कर देखा गया. 2016 में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक रिपोर्ट में इसका खुलासा किया था, जिसमें बताया गया था कि कैसे मध्य प्रदेश में 4 साल के दौरान करीब 234 फर्जी वेबसाइटों को 14 करोड़ रुपए के सरकारी विज्ञापन दे दिए गए. इनमें से ज्यादातर वेबसाइट पत्रकारों और उनके रिश्तेदारों द्वारा संचालित किए जा रहे थे. कई वेबसाइट ऐसे भी थे, जो रजिस्टर तो अलग-अलग नाम से थे, लेकिन उन सबमें सामग्री एक ही तरह की थी. विज्ञापन के साथ दबाव भी आता है. अगर अखबार या पोर्टल मध्य प्रदेश सरकार विशेषकर मुख्यमंत्री को कटघरे में खड़ा करते हैं, तो इसका असर उन्हें मिलने वाले विज्ञापनों और अन्य सुविधाओं पर पड़ता है. अब तो मध्य प्रदेश चुनाव के रडार पर आ चुका है. जाहिर है, इस दौरान मीडिया को काबू में करने की कोशिशें दोतरफा होने वाली हैं. एक तरफ तो मध्य प्रदेश का विज्ञापन लुटाओ मॉडल है, तो वहीं दूसरी तरफ मीडिया मैनेजमेंट के काम को अंजाम देने वाले  दिग्गज खिलाड़ी.

विज्ञापन ने धो दिए व्यापमं के दाग़!

व्यापमं घोटाला शिवराज सरकार पर सबसे बड़ा दाग है. अंग्रेजी पत्रिका द कारवां के जून 2016 के अंक में एक स्टोरी प्रकाशित हुई थी, जिसमें विस्तार से बताया गया था कि किस तरह से मध्य प्रदेश सरकार द्वारा व्यापम पर पर्दा डालने के लिए अधिकारियों और पत्रकारों को फायदा पहुंचाया गया था. इसी संदर्भ में पिछले दिनों मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा था कि भाजपा ने मीडिया को साध रखा है. व्यापम घोटाला कलंकित करने वाली घटना है और इसमें बड़े-बड़े लोग शामिल हैं, लेकिन मीडिया इस सम्बन्ध में पांच लाइन भी नहीं छापता है. बावरिया की इस बात पर वहां मौजूद पत्रकार बुरा मान गए, लेकिन इस आरोप को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है. व्यापम घोटाले की कवरेज के दौरान आजतक जैसे न्यूज चैनल से जुड़े पत्रकार अक्षय सिंह की संदिग्ध मौत का मामला भी नहीं सुलझा है और उनकी मौत के कारणों का अभी तक पता भी नहीं चल पाया है.

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