santosh-bhartiyaतीस वर्षों के भीतर भारत की राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है. पहले नेता विचारों के आधार पर बनते थे. विचार थे, जो तय करते थे कि कैसा समाज बनाना है और परिभाषाएं भी कुछ सा़फ थीं. पूंजीपति, समाजवादी, साम्यवादी या फिर सर्वोदय. सब अपनी-अपनी बात लोगों के सामने रखते थे, लोगों को समझाने की कोशिश करते थे. इस सारी प्रक्रिया में वे लोग पैदा होते थे, जो वैचारिक रूप से सशक्त होते थे और समाज का नेतृत्व करना चाहते थे, जिनमें से कुछ को जनता स्वीकार करती थी, कुछ को अस्वीकार कर देती थी.

पर जो भी राजनीति में आगे बढ़ता था, उसके साथ किसी एक विचारधारा का आधार होता था. अब ऐसा नहीं है. अब विचार नेता पैदा नहीं करते, बल्कि समस्याएं नेता पैदा करती हैं. जब समस्याएं नेता पैदा करती हैं, तो उस नेता का विचारधारा से कोई मतलब नहीं होता और उसका पूरे समाज से कोई मतलब नहीं होता.

हमारे समाज में बहुत सारे लोग पैसे वाले हैं, जिनकी संख्या नगण्य है, लेकिन बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके पास कुछ नहीं है, जिनके पास आवाज़ उठाने की भी ताकत नहीं है. ऐसे लोग, जिनके पास कुछ भी नहीं है, संसाधन बहुत कम हैं, बहुत थोड़े हैं, वे दरअसल 50 प्रतिशत से ज़्यादा हैं. और, 50 प्रतिशत में वे लोग हैं, जिनके पास बहुत कुछ है. फिर उससे कम है, फिर उससे कम है, फिर उससे कम है.

गुजरात में जो हो रहा है, वह समस्या के कारण हो रहा है. समस्या है अवसरों के समाप्त होने की, समस्या है जिन्हें अवसर मिल चुके हैं, वे और अवसर चाहते हैं. हार्दिक पटेल इसी समस्या और सोच की पैदाइश हैं. आम तौैर पर गुजरात में पटेल समाज एक संपन्न समाज माना जाता है. आर्थिक रूप से वहां भी विपन्न हैं, जैसे बाकी समाजों में हैं, लेकिन वे सामाजिक रूप से विपन्न नहीं हैं. उनके पास कुछ न हो, लेकिन समाज में उनकी इज्जत, उनकी पूछ बहुत सारे दलितों एवं पिछड़ों से ज़्यादा है.

गुजरात में इसे हम अध्ययन के तौर पर देख सकते हैं. पटेल समुदाय अपना हिस्सा बढ़ाना चाहता है और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के ज़रिये आगे बढ़ना चाहता है.

इस सबके बीच विकास का संतुलित ढांचा आ जाता है. संतुलित विकास हुआ होता, तब ये समस्याएं नहीं पैदा होतीं. लेकिन, असंतुलित विकास और असीमित अवसरों के शोषण ने देश में किसी भी एक वर्ग को खुश नहीं रखा है. जिनके पास है, वे अपने साथ के दूसरे लोगों को जगह नहीं देना चाहते. वे न केवल वहां जमे रहना चाहते हैं, बल्कि अपने से ग़रीब या आर्थिक रूप से कमज़ोर अपने ही समाज के लोगों को आगे आने से रोकना चाहते हैं.

इसके पीछे पिछले 60-65 वर्षों का अन्यायपूर्ण ढांचा है, जिसने देश में हर तबके को निराश किया है. खुश स़िर्फ वे हैं, जो भ्रष्ट हैं, बाहुबली हैं और लूट के नए-नए तरीके तलाशने में माहिर हैं.

इसलिए आज जब समाज में कोई अपराधी या बाहुबली चुनाव जीतता है, तो उसके पीछे यही मनोविज्ञान है कि उस जाति के लोग उसे अपना आदर्श मानकर राजनीति में आगे बढ़ाना चाहते हैं. उन्हें यह लगता है कि वैचारिक रूप से राजनीति करने वाले असफल हो चुके हैं. उनसे कोई लाभ नहीं मिला, इसलिए उनको समर्थन देने का कोई मतलब नहीं है. और, हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में हम देखते हैं कि इस प्रकार के लोगों की संख्या बढ़ती चली जा रही है.

गुजरात में 22 वर्ष का युवक पटेलों का नया मुखर प्रवक्ता बन चुका है. जब समाज में विचार समाप्त होता है और न्यायपूर्ण अवसरों की संभावना समाप्त हो जाती है, तब स्वत: समाज के भीतर से कोई व्यक्ति नेता बन जाता है. ऐसे उदाहरण हमारे देश में कई हैं और उनमें नया नाम हार्दिक पटेल का है. हार्दिक पटेल संपन्न पटेल समुदाय के लिए नौकरियों में आरक्षण चाहते हैं. दूसरे शब्दों में, वे व्यवस्था के अंदर अपना दखल चाहते हैं.

अर्थव्यवस्था का बड़ा नियंत्रण उनके हाथ में है, पर वे कार्यपालिका में भी अपनी जगह चाहते हैं. यह सवाल खड़ा होने के पीछे स़िर्फ एक कारण है कि लोग निराश हो चुके हैं. लोगों को लगता है कि वे शांतिपूर्ण ढंग से कुछ पा नहीं सकते.

हमारे इस अविवेकी समाज से पैदा हुई सरकारें अब शांतिपूर्ण ढंग से समस्याओं को सुनती नहीं हैं. जब तक हिंसा न हो, उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती. उन्हें यह पता नहीं रहता कि उनकी योजनाओं या उनके वादों या उनके क्रियाकलापों की वजह से किस वर्ग में असंतोष पैदा हो रहा है. अच्छी सरकार वह होती है, जो असंतोष पैदा होने से पहले या असंतोष पैदा होने के समय उसके निराकरण का उपाय सोचे. लेकिन, हमारे देश की सरकारें असंतोष को तब तक बढ़ने देती हैं, जब तक वह क़ानून व्यवस्था की समस्या न बन जाए और मुख्य समस्या उसके भीतर विलुप्त न हो जाए.

इसलिए जब नक्सलवादी किसी प्रदेश में ज़िलाधिकारी को अगवा कर लेेते हैं, तो सरकारें उनकी बातें सुनती हैं. जब कहीं कोई समुदाय रेल आवागमन अवरुद्ध कर देता है, तब उसकी बातें सुनती हैं. लेकिन, विडंबना यह है कि उस समय जो वादे करती हैं, उन्हें भी पूरा नहीं करतीं. सरकारों का एक उद्देश्य रह गया है कि अभी आने वाली समस्या को टालो, जब दोबारा खड़ी होगी, तब देखा जाएगा.

हार्दिक पटेल ने होशियारी के साथ अपने लिए  राजनीतिक ज़मीन भी तलाशी है. उन्होंने नीतीश कुमार को अपना साथी बताया है, चंद्रबाबू नायडू को भी अपना साथी बताया है. समस्याओं के हल के रूप में आरक्षण मांगने वाले लोगों का कोई दोष नहीं है, क्योंकि हमारे नेताओं ने भी समस्याओं का हल आरक्षण ही बताया है, कोई दूसरा उपाय किसी ने बताया ही नहीं. पिछले वर्षों में समाज के भीतर असहिष्णुता आक्रामकता, अपराध बढ़े हैं. इनके पीछे उन संगठनों का भी हाथ है, जिनके ऊपर समाज में अच्छे विचार फैलाने की ज़िम्मेदारी है, चाहे वे धार्मिक संगठन हों या स्वयंसेवी संगठन.

वे लोगों के बीच परिवर्तन की दशा और दिशा, परिवर्तन का चरित्र बताते ही नहीं हैं. दरअसल, वे अपने चरित्र को परिवर्तन का चरित्र मानते हुए लोगों के बीच काम करते हैं, जिससे पूरा देश अराजकता के मुहाने पर खड़ा हो गया है.

सवाल न भाजपा का है, न कांग्रेस का, बल्कि सवाल देश का है. इसलिए देश की बुुनियादी समस्याओं को लेकर एक बार फिर राजनीतिक तौर पर बहस होनी चाहिए. इसकी ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर है. लेकिन, अगर यह अफवाह फैले कि नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह या फिर बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, ऐसे आंदोलनों के गर्भ से  संपूर्ण आरक्षण व्यवस्था के ऊपर बहस कराना चाहते हैं और आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं और उस समय भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौन रहें, तो बहुत सारे लोग हैं, जो इस बात को सत्य मान लेंगे.

देश समस्याओं की वजह से अराजकता के मुहाने पर खड़ा है. ज्वालामुखी के फटने का इंतजार नहीं करना चाहिए. देश की बुनियादी समस्याओं पर राजनीतिक सहमति बनानी चाहिए और उन्हें हल करने के तरीकों के बारे में बहस करनी चाहिए, ताकि लोगों को लगे कि राजनेता हमारी समस्या समझते हैं, हमारी समस्या से चिंतित हैं और उसका हल तलाशने की कोशिश कर रहे हैं.

यही लोकतंत्र है. यहां पर हम अपनी समस्याओं के हल के लिए अपने प्रतिनिधि चुनते हैं. यदि वे प्रतिनिधि उन समस्याओं को स्वीकार करने से इंकार कर दें, तो परेशानी पैदा होती है. मुझे लगता है कि देश में एक सार्थक राजनीतिक संवाद की ज़रूरत है. वरना सारे देश में गुजरात जैसे आंदोलन फूटेंगे, जो विचार आधारित नहीं होंगे, बल्कि समस्या आधारित होंगे और जिनका रिश्ता समाज के परिवर्तन से नहीं होगा, लेकिन जिनका रिश्ता उस समाज के वर्चस्व की लड़ाई में बदल जाएगा.

समस्या विकराल है, समस्या का हल भी विकराल होना चाहिए और जिसकी शुरुआत स़िर्फ और स़िर्फ राष्ट्रीय बहस से हो सकती है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here