1954 में मैंने रायपुर के माधवराव सप्रे स्कूल से माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की।उसके बाद दो काम किये: एक,छत्तीसगढ़ कॉलेज में दाखिला लेना और दूसरे सती बाज़ार में स्थित जयहिंद टाइपिंग इन्स्टीट्यूट से टाइपिंग सीखना ।उस इंस्टीट्यूट के मलिक श्री आर के अग्रवाल बहुत ही नेकदिल इंसान थे।उन्होंने एक पुरानी मशीन से पहले दिन का पाठ कई बार करने के लिए कहा। यह अभ्यास एक घंटे तक चला ।इस प्रकार धीरे यह कोर्स चलता रहा और मैं तीन माह में पारंगत हो गया और मेरी स्पीड थी एक मिनट में 60 शब्द ।उन दिनों टाइपिंग की परीक्षा होती थी ।उसमें स्पीड के साथ उसमें होने वाली गलतियों को भी जांचा जाता था।टाइपराइटर के रखरखाव की जानकारी भी ली जाती थी ।उत्तीर्ण होने पर प्रमाणपत्र दिया जाता था। परीक्षा नागपुर का एक संस्थान लेता था।उन दिनों मध्य भारत की राजधानी नागपुर थी,मध्यप्रदेश अस्तित्व में नहीं आया था।आपकी स्पीड चाहे जितनी भी होती हो,प्रमाणपत्र एक मिनट में 30 शब्दों का ही मिलता था ।

टाइपिंग सीख ही रहा था कि मेरे एक मित्र ए के झा ने कहा कि वनसंरक्षक विभाग में टाइपिस्ट की दो माह की एक vacancy है वह ज्यान कर लो 79.50 रुपए मिलेंगे।तुम्हारे घर का खर्च भी चल जायेगा और साथ ही हिन्दी की टाइपिंग भी सीख लेना ।पिता जी का स्वर्गवास हो चुका था,मैं और मेरी माँ ही परिवार में थे। झा का यह सुझाव पसंद आया।मैंने नौकरी कर ली और कॉलेज की पढ़ाई को भूल गया।अब मैं नौकरी करते करते हिंदी की टाइपिंग भी सीख गया।उसकी परीक्षा देकर उत्तीर्ण हो गया।बाद में वहीं मुझे नियमित नौकरी मिल गयी ।मैंने शार्टहैंड भी सीखनी शुरू की लेकिन वह बीच में ही छूट गयी क्योंकि लोकसभा सचिवालय, दिल्ली में मेरी हिंदी टाइपिस्ट यानी एलडीसी की नौकरी लग गयी थी और वेतन था 120 रूपये ।बात 1956 की है ।पहली लोकसभा के सत्र का अंतिम वर्ष था,दूसरी लोकसभा का चुनाव 1957 में होना था।जिस ब्रांच में मेरी नियुक्ति हई थी उसका नाम था गैर-सरकारी विधेयको और संकल्पों की शाखा और उसके सेक्शन ऑफिसर थे मनमोहन नाथ घासी और सहयोगियों में एन एन मेहरा,सी के जैन, ओ पी खोसला आदि ।लोकसभा सचिवालय के सचिव थे महेश्वरनाथ कौल, संयुक्त सचिव श्यामलाल शकधर
तथा उपसचिव एन सी नंदी। संसद भवन की उस बिल्डिंग में तब लोकसभा और राज्यसभा सचिवालयों के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय तथा संसदीय कार्य मंत्रालय भी था।

दिलचस्प बात यह कि नियुक्ति तो मेरी हिंदी टाइपिस्ट की हुई थी लेकिन वहां हिंदी का टाइपराइटर तक नहीं था।जितने दिन भी मैंने वहां काम किया (करीब दस बरस) हिंदी का टाइपराइटर नहीं आया। एलडीसी से यूडीसी बन गया, अनुवादकों की पैनल में आ गया लेकिन हिंदी टाइपराइटर नहीं आया।हार कर मैंने खुद का टाइपराइटर खरीदा एक सेठी साहब से जिनकी उस वक़्त भगत सिंह मार्केट में दुकान थी।इसकी ज़रूरत इस लिए पड़ी क्योंकि मुझे अब लिखने की आदत पड़ गयी थी और हाथ से थोक में लिखा नहीं जा सकता था।दूसरा यह डर भी था कि प्रैक्टिस न होने पर कहीं हिंदी टाइपिंग ही न भूल जाऊं। मेरे साथ ऐसा हादसा हो चुका था।जब मैं विभाजन के बाद रावलपिंडी से यहां आया था तो प्रैक्टिस के अभाव में उर्दू लिखना-पढ़ना भूल सा गया था।अब भी बमुश्किल ही पढ़ पाता हूं । 1990-91 में पाकिस्तान जाने पर कुछ अभ्यास अलबत्ता किया था । बहरहाल मैंने सेठी साहब से रेमिंगटन का टाइपराइटर बनवाया।एक दिन अभ्यास किया और उंगलियाँ रवां हो गयीं।उन दिनों ऑलिवेटी भी एक टाइपराइटर था जिसका कीबोर्ड रेमिंगटन से अलग था।उस पर मैं टच सिस्टम से टाइप नहीं कर सकता था। लोकसभा सचिवालय की नौकरी के बाद जो भी समय मिलता मैं अपने उसी टाइपराइटर पर बैठकर या तो डायरेक्ट लिखता और अनुवाद कार्य भी उसी पर बैठ कर करता था। इसका नुकसान यह हुआ कि हाथ से लिखने की प्रैक्टिस जाती रही।

‘दिनमान’ में शुरू में मैं अपने संवाद हाथ से लिखा करता था।बाद में मैंने डिक्टेशन देनी शुरू की। पहले तो मैं हाथ से लिखकर स्टेनो को लिखा देता, थोड़ी मेहनत करने के बाद अब धड़ल्ले से डिक्टेशन देने लगा ।’दिनमान’ में कई स्टेनो थे।काम बढ़ने से उनकी संख्या भी बढ़ रही थी।प्रारंभ में मैंने विश्वंभर श्रीवास्तव और प्रेमनाथ ‘प्रेम’ को डिक्टेशन दी।उनके अन्यत्र व्यस्त होने पर प्रेम कुमार खन्ना या दोनों लडकियों रमेश और सुरिन्दर को डिक्टेशन दिया करता था।इन सभी के पास रेमिंगटन टाइपराइटर ही था। कभी कभार मदनगोपाल चडढा की सेवाएं भी प्राप्त हो जातीं जो मुख्यतया संपादक सच्चिदानंद वात्स्यायन के निजी सचिव थे।

एक समय ऐसा आया कि ‘दिनमान’ के लिए अतिरिक्त फर्नीचर आया। एक बड़े से टेबल पर मैंने कब्जा कर लिया और उस पर एक हिंदी टाइपराइटर मंगवाकर रख लिया।कुछ स्टेनो के अन्यत्र चले जाने से खाली रखे एक टाइपराइटर को मैंने कब्जिया लिया।योगराज थानी के पास अलग से टाइपराइटर था।वह तो अपने संवाद खुद ही टाइप किया करते थे।बावजूद टाइपराइटर के मेरी डिक्टेशन की आदत बरकरार रही।जब कभी वात्स्यायन जी द्वारा सुझाये गये किसी विषय पर कोई संवाद तैयार करना होता तभी मैं स्वयं टाइप किया करता था।

लेकिन ‘दिनमान’ के 10, दरियागंज शिफ्ट हो जाने के बाद मैंने अपना टेबल बमय टाइपराइटर के भी शिफ्ट करा लिया। वहां भी टाइम्स हाउस की तरह काफी बड़ा हाल था जहां ‘दिनमान’ के अलावा ‘पराग’ के लोग बैठते थे।संपादक,सहायक संपादक और विशेष संवाददाता के अलग केबिन थे ।हाल के बीचो-बीच मेरा विशाल टेबल और उस पर रखा टाइपराइटर मेरा ‘प्रतीक चिन्ह’ था। स्टेनो भी बदल गये थे रमेश और सुरिन्दर तो कायम थीं उनके साथी के तौर पर सुरेश सिंह और इन्दु आ गयी थीं ।संपादक रघुवीरसहाय के निजी सचिव थे आनन्द सिंह नेगी ।मैंने डिक्टेशन देनी कमोबेश कम कर दी थी लेकिन स्टेनो बच्चों से अनुराग की भावना बरकरार रही।एक दिन रमेश ने खास तौर पर मेरा परिचय एक महिला से कराते हुए कहा कि यह मेरी ननद हैं मिसेज़ मदान।लंदन में रहती हैं ।आज विशेष तौर पर मुझे ऑफ़िस में मिलने के लिए आयी हैं ।मेरे बारे में रमेश ने बताया कि हमारे दीप जी हैं जो अक्सर घूमते रहते हैं, देश और विदेश में एक जैसे।तब मैं जर्मनी सरकार के निमंत्रण पर वहां जा चुका था तथा साथ ही लंदन और पेरिस भी गया था।मिसेज़ मदान ने छूटते ही कहा कि जब अगली बार लंदन आयें तो हमारे यहां ठहरें ।मैंने दोनों हाथ जोड़ कर उनका धन्यवाद किया ।फिर उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह मात्र औपचारिकता नहीं है हमारा विधिवत निमंत्रण है,फ़ोन नंबर रमेश आपको दे देगी।अभी उनसे मिले छह माह भी नहीं बीते थे कि मैने उनके पति दर्शनलाल मादान को फ़ोन कर अपने लंदन पहुंचने की खबर कर दी। यह बात 1979 की है ।मुझे करीब दो हफ्ते लंदन रहकर ब्रितानी हाउस ऑफ़ कॉमन्स का चुनाव कवर करना था,उसके बाद अमेरिका जाना था।दर्शनलाल मदान सपत्नीक हीथ्रो एयरपोर्ट पर लेने के लिए आ गये ।मैं एक हफ्ते तक उनके यहां ठहरा और कुछ दिन अपने दिल्ली के मित्र वेद मित्र मोहला के यहां गिल्फर्ड में ।दर्शनलाल मदान मुझ से ऐसे हिलमिल गये मानो हम दसियों से एक दूसरे को जानते हों। एक दिन मैंने टाइपराइटर खरीदने की उनसे चर्चा की।उनका सुझाव था कि सोमवार तक प्रतीक्षा कीजिए ।जब मैंने इसका रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि गोरा शुक्रवार शाम को घर से निकल जाता है ।शनिवार और रविवार को खूब मस्ती करता है ।अब जब को घर के खर्च के लिए उसे दिक्कत पेश आती है तो उसकी प्रतिपूर्ति के लिए वह घर का कुछ सामान बेचता है जिसमें अक्सर ‘ब्रदर’ टाइपराइटर भी होता है ।’ब्रदर’ अच्छा टाइपराइटर है। आम तौर पर ये नये ही होते हैं जो औने पौने दामों पर मिल जाते हैं ।मुझे एक टाइपराइटर पसंद भी आ गया।लेकिन मेरी दिक्कत यह थी कि मुझे अभी एक महीने के लिए अमेरिका में भी रहना था उसे मैं कहां लादे लादे फिरता,सो यह प्रोग्राम कैंसिल कर दिया।

अमेरिकी सरकार के निमंत्रण पर मैं एक माह तक उनका मेहमान था ।मुझे एक सहायक बनाम गाइड दिया गया,नाम था आर्थर डेविस। बहुत खुशमिजाज इंसान था।वाशिंगटन से जब न्यूयॉर्क गये तो एक शाम मैंने उनसे टाइपराइटर लेने की इच्छा जताई और उसे लंदन वाला किस्सा भी सुनाया।किस्सा सुनकर वह बहुत हंसा और बोला कि गोरों की मानसिकता हर कहीं एक जैसी ही होती है ।कोई नहीं मैं देखता हूं ।आर्थर डेविस मुझे इतना अच्छा लगा कि मैंने उसे एक कुर्ता पाजामा उसे भेंट किया। वह न्यूयॉर्क का रहने वाला था।दिन को मिलने मिलाने का काम खत्म कर हम लोग आमतौर पर शाम को बैठा करते थे।एक शाम वह कुर्ता पाजामा पहनकर हाथ में कुछ लिए हुए आया और दूर से ही बोला,’हेलो त्रिलोक,यह आपके लिए है ‘। मैंने देखा कि वह एक पोर्टेबल टाइपराइटर है ‘रॉयल’।बहुत खूबसूरत था।पता नहीं वह कहां से लाया,खरीदा या मारा यह वही जाने।मैंने भी उसे compliments देते हुए कहा कि आप कुर्ते पाजामे में खूब जंच रहे हो।उसने दो गिलासो में ड्रिंक बनाकर कहा ‘चीयर्स’।आर्थर डेविस का वह टाइपराइटर अभी भी मेरे पास है ।इस बात को करीब 45 बरस हो चुके हैं जबकि हिंदी वाला रेमिंगटन 65 साल पुराना है । दोनों ठीक-ठाक काम करते हैं, चालू हालत में हैं, क्योंकि ज़रूरत पड़ने पर मैं आज भी उनका इस्तेमाल करता रहता हूं ।

मनचाहा टाइपराइटर तो मिल गया,अब उसे ढोना कोई आसान काम नहीं था।मैंने आर्थर डेविस से कहा कि हमें न्यूयॉर्क से ऑरलैंडो, मियामी,शिकगो, स्प्रिंगफ़ील्ड,सैन फ्रांसिस्को,होनोलूलू से होते हुए तोक्यो, हांगकांग जाना है और वहां रुकने के बाद दिल्ली। आर्थर हंस दिया और बोला कि सैन फ्रांसिस्को तक तो मैं आपके साथ हूं इसलिए फ़िकर नॉट ।होनोलूलू में भी हमारा एक साथी आपकी सेवा में रहेगा,घबराने का नहीं, बाकी जगह आपके दोस्त मिल जायेंगे,आप बेमतलब के परेशान हो रहे हो।उसकी दलील अपनी जगह सही थी लेकिन एयरलाइंस वालों को कौन समझाए ।हांगकांग में मैं एक डिप्लोमैटिक दोस्त के घर ठहरा।अगले दिन वह अपनी पत्नी को यह हिदायत देते हुए ऑफ़िस चला गया कि दीप को अच्छी तरह से हांगकांग दिखा देना और शॉपिंग भी करा देना ।हमारे मित्र की पत्नी सारा दिन मेरी सेवा में रहीं। छोटा सा देश था,देख लिया और कुछ शॉपिंग भी कर ली।उसके अगले दिन जब मेरा वह मित्र मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ने के लिए गया तो इमिग्रेशन काऊंटर पर बैठी मैडम इस बात पर अड़ गयी कि आप एक हैंडबैग ही अपने साथ ले जा सकते हैं इससे ज़्यादा नहीं ।मैंने और मेरे मित्र ने उन मैडम जी को यह समझाने की भरपूर कोशिश की कि दूसरा बैग तो टाइपराइटर है जिसकी विमान में ज़रूरत पड़ सकती लेकिन वह महिला टस से मस नहीं हुई।हार कर मेरे मित्र ने यह कहकर टाइपराइटर अपने पास रख लिया कि जब वह दिल्ली आयेंगे तो अपने साथ लेते आयेंगे। इस प्रकार न्यूयॉर्क से चला मेरा रॉयल टाइपराइटर तीन माह हांगकांग में रहने के बाद दिल्ली पहुंचा।

बेशक मैं हिंदी टाइपराइटर का ही ज़्यादा इस्तेमाल करता था लेकिन कभी अंग्रज़ी टाइपराइटर की भी ज़रूरत पड़ जाती।एक बार अज्ञेय जी से किसी ने पंजाब में आंचलिक पत्रकारिता पर एक बुकलेट लिखने के लिए कहा।अज्ञेय ने मेरा नाम यह कहकर सुझा दिया कि आप यह सोचकर यह काम दीप जी से करा लें जैसे कि उसे मैंने ही किया है ।संबंधित दफ्तर से फोन और कागज़ भी आ गये जिससे पता चला कि अज्ञेय जी के सुझाव पर मुझे यह काम सौंपा गया है । बाद में अज्ञेय जी से मिला और कहा कि यह बुकलेट तो अंग्रज़ी में लिखनी है।अपनी आदत के अनुसार वह मुस्कुराते हुए बोले,इसमें क्या मुश्किल है ।एक बार शुरू करेंगे तो झिझक समाप्त हो जायेगी।उन्होंने मुझे पंजाब में अमृतसर,जालंधर और चंडीगढ़ में कुछ लोगों से मिलने के लिए कहा।इस काम को अंजाम देने के लिए यह रॉयल टाइपराइटर बहुत काम आया।अज्ञेय की एक खासियत थी।वह बिना दूसरे को इल्म हुए बहुत लोगों के काम करते रहते थे या दिलाते रहते थे।कोई उनसे इस बारे में चर्चा भी करता तो उनका यही उत्तर होता,इसमें मेरी क्या भूमिका है,एक को काम कराना था और दूसरे ने कर दिया।उसने आपकी योग्यता को पहचाना और आपसे काम कराया।ऐसे थे अज्ञेय कभी किसी पर अहसान नहीं जताते थे और न ही किसी को ‘छोटा’महसूस होने देते थे। न जाने कितने हज़ार लोगों का उन्होंने चुपचाप भला किया और अपने मुंह से एक शब्द तक नहीं उचारा ।

खैर मेरे दोनों भाषाओं के ये टाइपराइटर मेरी संजीवनी थे विशेष तौर पर हिंदी टाइपराइटर ।उस टाइपराइटर पर बैठकर ही मैंने खूब लिखा वैसे ही जैसे आजकल लोग कंप्यूटर और लैपटॉप पर बैठ कर लिखते हैं ।उसी दौर में मैंने कहानियां लिखीं जो ‘कहानी’ पत्रिका में छ्पा करती थीं ।पहले राम नारायण शुक्ल के संपादकत्वकाल में और उनके असामयिक निधन के बाद श्रीपत राय जी (उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बड़े बेटे) के समय। इसी टाइपराइटर पर मैंने अपना उपन्यास लिखा और कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के तीन उपन्यासों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया।न जाने इस टाइपराइटर पर कितने आलेख लिखे, कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्तंभ भी ।लाखों पृष्ठ टाइप कर लिए होंगे,आखिर 65 साल का वक़्त कुछ कम तो नहीं होता।

दोनों टाइपराइटर हैं तो चालू अवस्था में मगर उसपर टाइप करके भेजे के संवादों को लेने में अखबारों के संपादक हिचकिचाते हैं और प्रकाशक न नुकर करते हैं मेरी इस बेहाली और बेबसी की तोड़ मेरी मित्र सुनीता सभ्भरवाल ने निकाली ।उसने मेरे फोन पर ऐसा ऐप्प फिट कर दिया जिसके द्वारा मैं अंग्रज़ी में टाइप करता हूं और उसकी कॉपी हिंदी में आ जाती है ।अब उसी विधि से मैं फ़ेसबुक पर पोस्ट लिखता हूं, पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लिखता हूं और किताबें लिखने का भी प्रयास करता हूं ।कीबोर्ड की जानकारी होने से मुझे अपने विचारों का प्रस्तुतिकरण करने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती।मेरे पास न कंप्यूटर है और न ही लैपटॉप, मेरा स्मार्टफ़ोन ही आज मेरे लेखन रूपी मर्ज़ की दवा है ।

बावजूद इस फोनी सुविधा के मैं अपने टाइपराइटरो की न अनदेखी करता हूं और न उनकी अवहेलना और उपेक्षा।वे मेरे बचपन के साथी जो ठहरे।क्योंकि मैं दोनों टाइप टच सिस्टम से करता हूं इसलिए समय समय पर यह भी जांचता रहता हूं कि कहीं मैं टाइपिंग भूल तो नहीं गया।उम्र बढ़ने के साथ मैंने पिछ्ले दिनों अपनी निजी लाइब्रेरी का एक भाग भारतीय जन संचार संस्थान को डोनेट कर दिया था।टाइपराइटरो के डोनेशन पर जब चर्चा हुई तो संस्थान के तत्कालीन महानिदेशक प्रो संजय द्विवेदी ने सलाह दी थी कि वह बहुत जल्दी संस्थान में एक म्यूजियम बना रहे हैं ,वहां पर ये दोनों मैन्युअल टाइपराइटर भी रखे जायेंगे ताकि छात्र और शोधकर्ता ये देखें कि संचार के क्षेत्र में हम कहां से कहां पहुंचे हैं ।पहले के पत्रकार किन हालात में काम किया करते थे और आजके पत्रकार किस तरह की सुख सुविधा वाली स्थिति में करते हैं ।लेकिन द्विवेदी जी का स्थानांतरण हो जाने से देखते हैं भारतीय जन संचार संस्थान उनकी म्यूजियम की योजना के काम को आगे बढ़ा पाता है कि नहीं।

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