नई दिल्ली : बसपा चार बार सत्ता में आई, परन्तु उसने कभी भी अपना दलित एजेंडा घोषित नहीं किया. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि तथा कथित दलित सरकार तो बनी परन्तु दलितों के सशक्तिकरण के लिए कोई भी योजना लागू नहीं की गई. इसके फलस्वरूप दलितों का भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ और उनमें कुछ हद तक स्वाभिमान भी जाग्रत हुआ, परन्तु उनकी भौतिक परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया.
सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में 56 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं जिनमें लगभग 73 प्रतिशत दलित तथा 79 प्रतिशत आदिवासी परिवार हैं. ग्रामीण दलित परिवारों में से 45 प्रतिशत तथा आदिवासियों में 30 प्रतिशत परिवार केवल मजदूरी करते हैं. इसी प्रकार ग्रामीण दलित परिवारों में से 18.35 प्रतिशत तथा आदिवासी परिवारों में 38 प्रतिशत खेतिहर हैं. इस जनगणना से एक यह बात भी उभरकर आई है कि हमारी जनसंख्या का केवल 40प्रतिशत हिस्सा ही नियमित रोज़गार में है और शेष 60 प्रतिशत हिस्सा अनियमित रोज़गार में है जिस कारण वे अधिक समय रोज़गार विहीन रहते हैं.
मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं, लेकिन उन्होंने 1995 के काल को छोड़कर दलितों को न तो भूमि आवंटन किया और न ही जमीनों पर कब्ज़े ही दिलवाए. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि ग्रामीण दलित आज भी भूमि मालिकों पर मजदूरी, दैनिक क्रिया कलाप तथा जानवरों के लिए घास-पत्ती के लिए आश्रित हैं. ऐसा लगता है कि शायद दलितों को कमज़ोर तथा आश्रित बनाकर रखना मायावती की राजनीति का हिस्सा रहा है.
दरअसल मायावती भी दलितों के साथ उसी प्रकार की राजनीति करती रही हैं, जैसी मुख्यधारा की पार्टियां करती आई हैं. मायावती ने भी दलितों को स्वावलंबी बनाने तथा उनका सशक्तिकरण करने के बजाय केवल प्रतीकों की राजनीति करके अपने वोटबैंक के तौर पर ही देखा है. मायावती के इस रवैये के कारण भी दलितों का उनसे मोहभंग हुआ है.
बसपा की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमज़ोर करने के बजाय उसे मज़बूत किया है, जिसका लाभ भाजपा ने उठाया है. इसी कारण वह दलितों की कई उपजातियों को हिंदुत्व में समाहित करने में सफल हुई है.
स्पष्ट है कि उत्तर भारत में बसपा की जाति की राजनीति अवसरवादिता, सिद्धान्तहीनता, दलित हितों की उपेक्षा और भ्रष्टाचार का शिकार होकर पूरी तरह विफल हो चुकी है. इस परिप्रेक्ष्य में दलितों के अब एक नए रैडिकल राजनीतिक विकल्प की आवश्यकता है.