उत्तर प्रदेश के लोगों में फिर से एक भय गहराने लगा है कि मायावती अगर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आईं तो यूपी फिर विभाजित होगा. विशाल उत्तर प्रदेश की अधिकतम लोकसभा और अधिकतम विधानसभा सीटों से कई नेता घबराते हैं. इनमें मायावती भी एक हैं.
उत्तर प्रदेश को तोड़ कर उत्तराखंड बनाने से नए बने प्रदेश को क्या हासिल हुआ, इसे सब जानते हैं. केक की तरह राज्यों को बांट-बांट कर सत्ता सुख भोगने के अलावा बंटे हुए राज्यों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ. न उत्तराखंड को, न झारखंड को, न छत्तीसगढ़ को और न तेलंगाना को. नेताओं के अतिरिक्त किसी को कुछ नहीं मिला. अलग सरकारी तामझाम स्थापित करने का खर्च ऊपर से जनता के सिर थोप दिया गया. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने अपने पूर्ववर्ती शासनकाल में भी उत्तर प्रदेश को अवध प्रदेश, पश्चिम प्रदेश, पूर्वांचल और बुंदेलखंड राज्यों में विभाजित करने का प्रस्ताव लाया था.
यानि, उत्तर प्रदेश को तहस-नहस करने की योजना थी, लेकिन उस समय यह कार्यरूप नहीं ले सका. इस बार चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होने के पहले मायावती ने फिर से यूपी को विभाजित करने की अपनी पुरानी जिद पर जोर दिया. बात थोड़ी सी आई. मीडिया ने भी बहुत तवज्जो नहीं दिया. लेकिन भीतर-भीतर यह मामला गहरा रहा है. यूपी के और विभाजन की बात से प्रदेश के लोग आक्रांत हैं. कानून के जानकार इसे रोकने के लिए कानूनी युक्तियां तलाशने में लग गए हैं. लोग फिर से उन राजनीतिकों और राजनीतिक दलों को याद कर रहे हैं, जिनकी नीतियां प्रदेश को छोटा करने की राजनीति के खिलाफ रही हैं.
राजनीति की नब्ज पहचानने वाले कुछ समीक्षकों का आकलन था कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के बंटवारे का मसला उठेगा और इस चुनाव के जरिए विभाजन के सवाल पर जनमत-संग्रह जैसा भी हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह और खतरनाक स्थिति है. ऐसी स्थितियों में सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टी अपने मन-मुताबिक जनमत-संग्रह ‘मैनेज’ कराती है. आप याद करते चलें, उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले वर्ष 2011 में उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव विधानसभा में पास कराया था.
हालांकि समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने उस प्रस्ताव का विरोध किया था. मायावती का वह विभाजन-कार्ड तो 2012 के चुनाव में नहीं चला और उनकी सत्ता धराशाई हो गई, लेकिन बृहत्तर प्रदेश में राजनीति का बेहतर भविष्य नहीं देखने वाली मायावती और उनके जैसे तमाम सूक्ष्मदर्शी नेता उत्तर प्रदेश को चार और भाग में तोड़ने का मौका तलाश रहे हैं, इसमें उत्तर प्रदेश का अपना अस्तित्व भले ही धूल में मिल जाए. बसपा के अंदरूनी गलियारे में यह भी चर्चा थी कि उत्तर प्रदेश के विभाजन का मायावती का लक्ष्य बसपा के घोषणा पत्र में शामिल होगा.
लेकिन बसपा का कोई घोषणा पत्र ही नहीं आया. उत्तर प्रदेश के बंटवारे के पक्ष में मायावती यह तर्क देती रही हैं कि प्रदेश का विकास और कानून व्यवस्था उसके आकार में बड़े होने के कारण नहीं हो रहा है. वे अखिलेश यादव पर खराब कानून व्यवस्था के लिए लगातार प्रहार भी करती रही हैं और धीरे से यह भी कहती रही हैं कि बृहत्तर प्रदेश होने के कारण कानून व्यवस्था संभल नहीं पा रही है.
ऐसा कह कर मायावती अपनी मंशा जताती हैं. मायावती उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विभाजन को जरिया बनाने का कार्ड खेल रही हैं. अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने की व्यवस्था करने की नीयत का खुलासा करने के बजाय मायावती लोगों से यह कहती हैं कि उत्तर प्रदेश का बंटवारा करके राज्य के पिछड़े क्षेत्रों में विकास की नीतियों और कार्यक्रमों को पहुंचाया जा सकता है. लेकिन ऐसा कहते हुए मायावती तमाम सद्यःविभाजित राज्यों के मौजूदा हालात पर रौशनी नहीं डालतीं.
मायावती का लक्ष्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश है. उत्तर प्रदेश को बांट कर उसे वे हरित प्रदेश बनाना चाहती हैं और वहां की सत्ता पर आधिपत्य चाहती हैं. राज्य के बंटवारे में भाजपा भी उनका साथ दे सकती है. उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे तमाम राज्यों को अस्तित्व में लाने की प्रक्रिया कांग्रेस के कार्यकाल में पुख्ता हुई और भाजपा के शासनकाल में मंजूर हुई.
हरित प्रदेश की मांग का समर्थन राष्ट्रीय लोक दल भी करता है. अविभाजित उत्तर प्रदेश के मसले पर अब तक खड़ी समाजवादी पार्टी के साथ भविष्य में कांग्रेस भी खड़ी रहेगी, गठबंधन के बावजूद इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. उत्तर प्रदेश में अभी 75 जिले और 18 मंडल हैं. मायावती की इस हालिया सफाई के भी निहितार्थ समझने की जरूरत है, जब वे यह कहती हैं कि यूपी में मूर्तियां और संग्रहालय स्थापित करने का काम बहुत हो चुका, अब दूसरी प्राथमिकताओं पर काम किया जाएगा.
मायावती की दूसरी प्राथमिकता उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों में सत्ताई-महत्वाकांक्षा को गहरा कर राज्य को चार भाग में बांटने की है. मायावती ने साफ तौर पर उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में बांटने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की बात कही है. मायावती का कहना है कि उनकी पार्टी छोटे राज्यों और छोटी प्रशासनिक इकाइयों के गठन की प्रबल समर्थक है. छोटी प्रशासनिक इकाइयां होने से कानून और व्यवस्था तथा विकास कार्यों की स्थिति को बेहतर बनाने में सुविधा रहेगी. इसी सोच के आधार पर उन्होंने अपने शासनकाल में उत्तर प्रदेश में कई मंडलों और जिलों का गठन किया था.
अगर उत्तर प्रदेश का बंटवारा होता है तो पश्चिम प्रदेश में पश्चिमी यूपी के 26 जिले आएंगे जबकि अवध में 13 जिले रहेंगे. बुंदेलखंड में 7 और पूर्वांचल में सर्वाधिक 29 जिले आएंगे. पश्चिम प्रदेश में आगरा, मेरठ और नोएडा जैसे जिले चले जाएंगे. अवध के हिस्से में लखनऊ और कानपुर जैसे जिले आ पाएंगे. पूर्वांचल के पास गोरखपुर, वाराणसी और इलाहाबाद रहेंगे. बुंदेलखंड के हिस्से में झांसी, बांदा और चित्रकूट आएंगे. जनसंख्या के मुताबिक उत्तर प्रदेश का स्थान दुनिया में पांचवां है. यूपी को फिर से तोड़ने की मांग उत्तराखंड के विभाजन के बाद ही तेज हो गई. हालांकि यूपी को उत्तराखंड समेत कई टुकड़ों में तोड़ने की मांग अर्सा पहले से उठ रही थी.
उत्तराखंड बनने से चार लोकसभा क्षेत्र यूपी से अलग हो गए. अब चार अलग राज्य बनाने की मांग है, यानि यूपी छोटे से पांचवें (उत्तराखंड को शामिल करें तो छठे) राज्य के रूप में सिमट जाएगा. जब वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश को तोड़ कर तेलंगाना बना, तब भी भाजपा नेता उमा भारती ने राज्य पुनर्गठन आयोग को फिर से बनाने की मांग की थी और कहा था कि अलग राज्य बनाने के जो अन्य प्रस्ताव वंचित रह गए हैं, उन पर भी विचार किया जाए. उमा भारती ने मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्रों को मिलाकर पृथक राज्य बनाने और उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में बांटने के मायावती के प्रस्ताव पर भी विचार किए जाने की मांग की थी.
उत्तर प्रदेश के बंटवारे के पीछे विकास और कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने के तर्क बेमानी हैं, इसे आम नागरिक भी अच्छी तरह समझते हैं. यह सत्ता का उपभोग करने की एक निम्न स्तरीय राजनीतिक चाल है. बंटवारे के पीछे राजनीतिक दलों की मंशा एक के बजाय पांच राज्यों में अपना धंधा फैलाने की है. उत्तर प्रदेश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने की वकालत करने वाली बसपा नेता मायावती इसके लिए बाबा साहब अंबेडकर के विचारों का हवाला देकर उसे अपने तर्कों का आधार देती हैं. लेकिन असलियत यह है कि अंबेडकर देश और राज्य को टुकड़ों में बांटने के सख्त विरोधी थे.
बंटवारा भारत का चरित्र बन चुका है. पहले देश बांटा और उसके बाद लगातार राज्यों को बांटते चले जा रहे हैं. तथाकथित आजादी के बाद रजवाड़ों के भारतीय गणराज्य में विलय के साथ ही नए राज्यों के गठन की जमीन तैयार होने लगी थी. वर्ष 1953 में स्टेट ऑफ आंध्र पहला राज्य बना, जिसे भाषा के आधार पर मद्रास स्टेट से अलग किया गया था. इसके बाद दिसंबर 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने न्यायमूर्ति फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया.
एक नवम्बर 1956 में फजल अली आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य पुनर्गठन अधिनियम-1956 लागू हो गया और भाषा के आधार पर देश में 14 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए. मध्य प्रांत के शहर नागपुर और हैदराबाद के मराठवाड़ा को बॉम्बे स्टेट में इसलिए शामिल किया गया, क्योंकि वहां मराठी बोलने वाले अधिक थे. इसके बाद लगातार कई राज्यों का भूगोल बदलता रहा और नए तर्कों व मानकों के आधार पर नए-नए राज्य बनते गए.
त्रिपुरा को असम से भाषा के आधार पर अलग किया गया तो मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड का गठन नस्ल के आधार पर किया गया. सन 2000 में उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के बंटवारे के आधार भी विकास नहीं थे बल्कि असलियत में सत्ताई महत्वाकांक्षा, नस्ल और भाषा थी. धीरे-धीरे देश के कई भागों में इस मुद्दे ने जोर पकड़ा.
नतीजतन आज भारत में 29 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं. कई सामाजिक-राजनीतिक चिंतकों ने भी कहा कि विभाजित राज्य अधिकतर विफल ही रहे. छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड इसका सटीक उदाहरण है. झारखंड में तो राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है और लगातार पिछड़ता ही जा रहा है. ऐसे में अगर पश्चिम प्रदेश, पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड की सफलता के तर्क अनुभव की कसौटी पर रखे जाएं तो वे बेमानी और फर्जी ही साबित होते हैं.
राज्य को छोटा कर देने से सिर्फ प्रशासनिक ढांचा बदल सकता है. लेकिन बेरोजगारी और गरीबी से लड़ने की कोई स्पष्ट नीति ही नहीं होगी तो प्रदेश को कितना भी छोटा कर दिया जाए, उससे कोई फायदा नहीं होगा. सामाजिक चिंतक मानते हैं कि राज्य के बंटवारे की बात राजनीतिक पार्टियां इसलिए करती हैं क्योंकि वह लोगों का ध्यान असली मुद्दे से भटकाना चाहती हैं. राज्यों का बंटवारा समस्या का हल नहीं है, बल्कि समस्या को और न्यौता देना है.
बंटवारे पर क्या कहता है संविधान और क़ानून
संविधान के द्वारा राज्यों का श्रेणियों में विभाजन तात्कालिक उपयोगिता के आधार पर किया गया था. इस व्यवस्था से सभी संतुष्ट नहीं थे. जब केंद्र सरकार ने मद्रास राज्य की तेलुगू भाषी जनता की मांग पर 1952 में आंध्र को अलग राज्य बनाने का निर्णय किया तो स्थिति में अचानक ही बदलाव आ गया.
एक अक्टूबर, 1953 में आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना के बाद भाषा के आधार पर नए राज्यों के पुनर्गठन की मांग भड़क उठी. विवाद गहराता देख वर्ष 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति की गई. इस आयोग में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश फजल अली इस आयोग के अध्यक्ष और पंडित एचएन कुंजरू और सरदार केएम पणिक्कर इसके सदस्य थे.
हालांकि संविधान निर्माण के बाद ही 27 नवम्बर 1947 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एसके धर की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन किया और उसे इस बात की जांच-पड़ताल करने के लिए कहा था कि भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन उचित है अथवा नहीं.
इस आयोग ने दिसम्बर 1948 में अपनी रिपोर्ट पेश की. रिपोर्ट में आयोग ने प्रशासनिक आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का समर्थन किया. 22 दिसम्बर 1953 को फजल अली की अध्यक्षता वाले आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट दी और राज्यों के पुनर्गठन के बारे में अपने सुझाव रखे. फजल अली आयोग ने कहा कि राज्यों का पुनर्गठन भाषा और संस्कृति के आधार पर अनुचित है.
आयोग का कहना था कि राज्यों का पुनर्गठन राष्ट्रीय सुरक्षा, वित्तीय एवं प्रशासनिक आवश्यकता और पंचवर्षीय योजनाओं की सफलता को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए. ए-बी-सी-डी वर्गों में विभाजित राज्यों को समाप्त कर दिया जाना चाहिए और इनकी जगह पर सोलह राज्यों व तीन केंद्र शासित प्रदेशों का निर्माण किया जाना चाहिए. संसद ने इस आयोग की सिफारिशों को कुछ बदलाव के साथ स्वीकार कर लिया और 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया.
इस अधिनियम के तहत भारत में 14 राज्य और पांच केंद्र शासित प्रदेश थे. इसमें जिन 14 राज्यों का उल्लेख था, उनमें आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, बंबई, जम्मू-कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, मद्रास, मैसूर, उड़ीसा (वर्तमान में ओड़ीशा), पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल थे. जो पांच केंद्र शासित प्रदेश शामिल किए गए थे, उनमें दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह थे.
किस राज्य में जाएंगे कौन से ज़िले
उत्तर प्रदेश का विभाजन चार विभिन्न राज्यों में हुआ तो कौन से जिले किस राज्य में जाएंगे इसे जान लेना भी जरूरी है. पूर्वांचल बना तो बिहार की सीमा से सटे 24 जिले इस राज्य में चले जाएंगे. इनमें वाराणसी, गोरखपुर, बलिया, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती जैसे जिले उल्लेखनीय हैं. इसी तरह बुंदेलखंड राज्य बना तो तीन मंडल और 11 जिले चले जाएंगे. इनमें झांसी, महोबा, बांदा, हमीरपुर, ललितपुर, जालौन जैसे जिले शामिल रहेंगे. पश्चिम प्रदेश बनने पर आगरा, अलीगढ़, मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली जैसे जिले उसकी शोभा बनेंगे. अवध प्रदेश बना तो बाकी बचा हुआ लखनऊ, देवीपाटन, फैजाबाद, इलाहाबाद, कानपुर इसके हिस्से आएगा.
क्या कहते रहे हैं नेता
समाजवादी पार्टी के निवर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव कहते रहे हैं कि प्रदेश के बंटवारे की बात करने वाले लोग एकता के दुश्मन हैं. मुलायम ने उत्तराखंड के गठन का भी विरोध किया था. मुलायम हरित प्रदेश बनाने की मांग का भी कट्टर विरोध करते रहे हैं. तब मुलायम ने कहा था कि समाजवादी पार्टी की नीति राज्यों के विभाजन के खिलाफ है. मुलायम ने कहा था कि प्रदेश का और बंटवारा सपा के कार्यकर्ता किसी भी कीमत पर नहीं होने देंगे. प्रदेश की जनता बंटवारा चाहने वाले दलों को सबक सिखा देगी, क्योंकि यह फैसला क्षुद्र मानसिकता का प्रतीक, जन-विरोधी और विकास विरोधी है. मुलायम के निवर्तमान होने के बाद अखिलेशकाल में भी सपा ने अपनी नीतियां वही रखी हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी स्पष्ट कहा है कि वे उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं होने देंगे. अखिलेश का कहना है कि देश की एकता के लिए बड़ा प्रदेश जरूरी है.
उत्तर प्रदेश के और बंटवारे पर भारतीय जनता पार्टी का स्टैंड ढुलमुल है. कभी उमा भारती कहती हैं कि नया राज्य गठन आयोग बना कर नए राज्यों के प्रस्ताव और उत्तर प्रदेश में चार और नए राज्य बनाने की मांग पर विचार हो. जबकि भाजपा के प्रदेश स्तरीय नेता अव्वल तो मायावती के बयान को चुनावी स्टंट बताते हैं और कहते हैं कि यूपी को चार राज्यों में बांटने की कोई जरूरत ही नहीं है. भाजपा के नेता अलग किस्म के तर्क का जाल रचते हैं और कहते हैं कि राज्य पुनर्गठन आयोग गठित कर उससे भागौलिक, सामाजिक और आर्थिक असंतुलन को दूर करने के लिए नए राज्यों के बारे में संस्तुति मंगाई जाए. कांग्रेस ने छोटे राज्य बनाने का प्रस्ताव विधानसभा में रखा था तब बसपा ने इसका विरोध किया था. कांग्रेस छोटे राज्यों का समर्थन करती रही है. कांग्रेस भी राज्यों के बंटवारे के लिए द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग गठित किए जाने की मांग कर रही है. राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष गोपाल राय कहते हैं कि उत्तर प्रदेश को पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश और बुंदेलखंड में विभाजित करना अनिवार्यता है और समय की मांग है. इस मांग पर राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और पश्चिम प्रदेश निर्माण मोर्चा की ओर से लखनऊ और दिल्ली में कई धरना-प्रदर्शन भी आयोजित किए जाते रहे हैं.
राज्य बांटने की ज़िद जारी
केवल उत्तर प्रदेश को ही चार और टुकड़ों में बांटने की तैयारी नहीं है, देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग राज्य बनाने की मांग भी लगातार जारी है और कई जगह हिंसक शक्ल भी अख्तियार कर चुकी है. पूर्वोत्तर में बोडोलैंड बनाने की मांग अर्से से उठ रही है. असम से काट कर अलग राज्य बनाने की मांग भीषण हिंसक शक्ल भी अख्तियार कर चुकी है. बोडो जनजाति ब्रह्मपुत्र घाटी के सबसे बड़े जनजातीय समूहों में से एक है. इसी तरह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ जिलों को मिलाकर बुंदेलखंड बनाने की मांग भी अर्से से हो रही है. बुंदेलखंड लगातार पिछड़ता जा रहा है. इसलिए इसे अलग राज्य बनाने की मांग जोर पकड़ती जा रही है. दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक के एक छोटे भाग से ‘कुर्ग’ के गठन की भी मांग हो रही है. यह मांग अब तक जोर नहीं पकड़ पाई है, लेकिन अंदर-अंदर सुगबुगा रही है. पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से से अलग कर गोरखालैंड के गठन की मांग भी पुरानी है. इसके गठन को लेकर तीव्र आंदोलन भी चलाए जाते रहे हैं. गोरखालैंड की मांग को वहां के नागरिकों का भी भरपूर समर्थन हासिल है.
जन-दबाव के कारण ही पश्चिम बंगाल सरकार को दार्जीलिंग स्वायत्त परिषद की स्थापना कर अधिक अधिकार देने पड़े. इस आंदोलन ने कई बार हिंसक शक्ल भी अख्तियार किया. सुभाष घीसिंग गोरखालैंड आंदोलन के जुझारू नेता थे. उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर क्षेत्र को ‘हरित प्रदेश’ बनाने की मांग भी अर्से से हो रही है. इसी तरह पूर्वांचल की मांग भी बड़े राजनीतिक आंदोलन का शक्ल लेने की तैयारी में है. गुजरात के एक बड़े तटीय भाग से ‘सौराष्ट्र’ को अलग करने की मांग भी अर्से से उठती रही है. इस क्षेत्र में कई उद्योग धंधे फैले हुए हैं. समुद्री परिवहन का भी यह एक बड़ा केंद्र है. महाराष्ट्र के पूर्वी हिस्से से विदर्भ को अलग कर विदर्भ राज्य बनाने की मांग लगातार उठ रही है.
कृषि की दृष्टि से विदर्भ, देश के पिछड़े इलाकों में गिना जा रहा है. अनाज की कमी, फसल चौपट होने और बढ़ते कर्ज के बोझ के कारण इस इलाके में किसानों की हर साल हो रही आत्महत्याएं अलग राज्य की मांग में आग में घी का काम कर रही हैं. आंध्र प्रदेश को काट कर जैसे ही पृथक तेलंगाना राज्य बना था, वैसे ही देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के निर्माण के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में जैसे नई जान आ गई. गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड जैसे कई राज्यों की मांग सियासत का जरूरी हिस्सा बन गया.
ऐसे में अब यह जरूरी हो गया है कि केंद्र द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त करे और उसके जरिए नए राज्यों के पुनर्गठन के राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और प्रशासनिक पहलुओं का गहराई से अध्ययन कराए, ताकि भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित, सुस्पष्ट और सुदृढ़ नीति बने और उस पर अमल हो. उसके पहले नए राज्यों के विभाजन की मांग पर कोई सुनवाई न हो.
क्या कहते हैं आम लोग
उत्तर प्रदेश के और विभाजन पर आम नागरिकों के विचार भी खासे महत्वपूर्ण हैं, जिन पर राजनीतिक दल के नेताओं को विचार करना चाहिए. किसी फैसले पर पहुंचने के पहले आम लोगों की राय जान लेना और उस अनुरूप निर्णय लेना समझदारी भी है और लोकतांत्रिक भी. उत्तर प्रदेश को और बांटे जाने के मसले पर पूर्वांचल निर्यातक संघ के उपाध्यक्ष मुकुंद अग्रवाल कहते हैं कि नए राज्य का गठन तो ठीक है पर प्रदेश को चिंदी-चिंदी करना तो कतई ठीक नहीं है.
जिस तरह राज्य बांटे जा रहे हैं, ऐसे बंटवारे का तरीका उचित नहीं है. यदि अलग राज्य बनता है तो विकास होना चाहिए. संसाधनों की लूट और बदहाली न हो. बंटवारा राजनीतिक इरादे से नहीं बल्कि सामाजिक नजरिए से हो. आइटी बीएचयू के प्रोफेसर केके श्रीवास्तव कहते हैं कि विकास का तर्क देकर प्रांत का विभाजन करना तर्कसंगत नहीं है.
विकास के लिए पंचायतों को मजबूत करना होगा, स्वायत्तता देनी होगी. विभाजन की घोषणा तो कर दी जाती है लेकिन इसके विकास का खाका प्रस्तुत किया जाता. विकास का आधार सिर्फ संसाधनों की उपलब्धता ही नहीं बल्कि आपसी सहमति और सामंजस्य भी होना चाहिए. बीएचयू के ही विधि संकाय के प्रोफेसर डॉ. एके पांडेय कहते हैं कि अभी वह वक्त नहीं है कि प्रांत के विभाजन की बात हो. पूर्वांचल में न तो संसाधन है और न ही उद्योग धंधे. पहले वहां तमाम सुविधाएं बहाल की जानी चाहिए.
गोरखपुर के व्यवसाई मनोज अग्रवाल कहते हैं कि छोटा राज्य होगा तो तरक्की होगी. पूर्वांचल जो टैक्स देता है वह यूपी में केंद्रित हो जाता है और उससे अन्य क्षेत्रों का विकास किया जाता है, पूर्वांचल उपेक्षित रह जाता है. लेकिन सरकार बंटवारे का जो तरीका अपनाती है, वह गलत है.
इस पर बहस होनी चाहिए. व्यापक जनमत संग्रह किया जाना चाहिए. साहित्यकार आचार्य रामदेव शुक्ल कहते हैं कि सैद्धांतिक तौर पर तो प्रशासनिक इकाइयां जितनी छोटी होती हैं, शासन उतना अच्छा होता है, लेकिन जिस तरह राज्य बांटे जाते हैं, वह सैद्धांतिक नहीं, राजनीतिक होते हैं. देश में अनेक जगहों पर विभाजन की मांग की जा रही है. ऐसे में उचित होगा कि राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर इसका अध्ययन कराया जाए कि किस प्रकार व किन आधार पर विभाजन किए जाएं.
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवक्ता डॉ. अनुराग कहते हैं कि वह छोटे राज्यों के पक्षधर हैं लेकिन इसमें दो बातों पर विशेष ध्यान देना होगा. प्रशासनिक पहुंच आमजन तक हो और कल्याणकारी योजनाओं का पूरा लाभ आम जन को मिले. प्रमुख समाजसेवी लखनऊ निवासी अशोक गोयल कहते हैं कि राज्यों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने के पीछे राजनीतिक दलों का उद्देश्य महज सत्ता का उपभोग करना ही है.
देश का विकास और खुशहाली अगर राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता होती तो क्या आजादी का 70 साल बीत जाता? राजनीतिक दलों ने देश का मजाक बना डाला है. इतने राज्यों का बंटवारा किया, क्या मिल गया उन राज्यों के लोगों को? केवल और केवल नेताओं, नौकरशाहों, पूंजीपतियों और दलालों को इसका लाभ मिला.
आम आदमी तो तब भी मरता था और अब भी मर रहा है. छोटे राज्य ही विकास का आधार होते तो संयुक्त राज्य अमेरिका के 50 राज्य अब तक हजार राज्यों में विभाजित हो चुके होतेे. 50 राज्यों वाले अमेरिका जैसे विशाल देश ने विकास की चरम स्थिति कैसे पा ली? चीन जैसे विशाल देश में विकास ने इतनी ऊंचाइयां कैसे पाईं? तो ये छोटे राज्यों से विकास की बातें, सब नेताओं की जालसाजियां हैं, आम लोग सब समझते हैं, लेकिन उनके पास इसका कोई हल नजर नहीं आ रहा.