मथुरा में सरकारी उद्यान पर दो साल से कब्जा जमाए सत्ता-संरक्षित असामाजिक तत्वों के हाथों दो पुलिस अधिकारियों का मारा जाना उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक-चरित्र का आपराधिक-प्रतिफल है. दो साल से जबरन चुप बैठा कर रखी गई पुलिस की अचानक हुई निर्णायक कार्रवाई सत्ताधारी दल के गंदे राजनीतिक चरित्र के खिलाफ खुला विद्रोह है. मथुरा कांड का लब्बोलुबाब यही है. अपने दो अधिकारियों को बेतरह मरता देख कर युवा पुलिसकर्मियों का खून खौल उठा, फिर वे किसी के नियंत्रण में नहीं थे. नौजवान सिपाहियों ने नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और सीधा हमला बोल दिया. नौजवान सिपाहियों का गुस्सा अफसरों और उन पुलिसकर्मियों पर भी था जो दो अधिकारियों को मौके पर छोड़ कर भाग आए थे. जब कार्रवाई पूरी हो गई, तब आला पुलिस अधिकारियों को मौके पर पहुंचने का मौका मिला. पुलिस की इस कार्रवाई से पूरी सरकार और समाजवादी पार्टी के नेता हतप्रभ हैं. यही वजह है कि सत्ता प्रमुख से लेकर दूसरे नेता तक घटना के लिए पुलिस को ही दोषी ठहरा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश सरकार आधिकारिक तौर पर यह तथ्य सार्वजनिक क्यों नहीं कर रही कि मथुरा के जवाहरबाग पर दो साल से कब्जा जमाए रामवृक्ष यादव को सरकारी बाग लीज़ पर देने के अलावा उसे क्या-क्या राजनीतिक आश्वासन दिए गए थे? किस राजनीतिक आश्वासन के पूरा नहीं होने पर रामवृक्ष को गुस्सा आ गया? गुस्साए रामवृक्ष के किन समर्थकों ने दारोगा और एसपी पर गोली चला दी और पुलिस को भड़का दिया? जिन लोगों ने पुलिस के सामने ही एसपी और दारोगा पर प्वाइंट-ब्लैंक गोली चलाई, उन हमलावरों की पहचान क्यों नहीं हुई? अगर उनकी पहचान हुई तो वह सार्वजनिक क्यों नहीं की गई? हमलावर मारे गए या फरार हो गए? वर्ष 2014 से लेकर 2016 तक यूपी सरकार क्यों चुप्पी साधे रही और सैकड़ों एकड़ के सरकारी बाग को अवैध कब्जे से मुक्त क्यों नहीं कराया? रामवृक्ष यादव के स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह संगठन की गैरकानूनी गतिविधियों को सरकार क्यों तरजीह देती रही? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मथुरा कांड की न्यायिक जांच की घोषणा तो कर दी है और सीबीआई जांच से बचने के लिए यह एक बेहतर चाल भी है, लेकिन इससे यूपी सरकार जनता के सामने बुरी तरह एक्सपोज़ हो गई है. तमाम सियासी साजिशों में उलझे हुए इस मामले की जांच जहां सीबीआई की विशेषज्ञ टीमें करतीं, अब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के रिटायर्ड जज इम्तियाज मुर्तजा अकेले उसकी गुत्थियां सुलझाएंगे. मतलब, जांच का हश्र क्या होगा, इसके बारे में अनुमान अभी से लगाया जा सकता है. मथुरा कांड प्रकरण के नख से शिख तक समाजवादी पार्टी के अलमबरदारों की भूमिका स्पष्ट है, लिहाजा सरकारी सहयोग के बगैर न्यायिक जांच एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएगी. सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार मथुरा कांड की न्यायिक जांच में एक सदस्यीय जांच आयोग के साथ ईमानदारी से सहयोग करेगी? इस सवाल को उसी अनुत्तरित दशा में छोड़ कर हम जल्दी से हालिया घटनाक्रम का जायजा लेते चलें. मथुरा के सरकारी उद्यान जवाहरबाग पर दो साल से कब्जा जमाए रामवृक्ष यादव और उसके समर्थकों को हटाने के लिए दो जून को अचानक पुलिस पहुंच जाती है. बिना किसी तैयारी के जवाहरबाग पहुंचे सिटी एसपी मुकुल द्विवेदी और फराह थाने के प्रभारी संतोष कुमार यादव को पुलिस बल के सामने ही सीधे गोली मारी जाती है. पुलिस को मौके से भाग जाना पड़ता है. लहूलुहान पुलिस अधिकारियों को किसी तरह घसीट कर बाहर निकाला जाता है. उसके बाद पुलिस के नौजवान सिपाही भड़क उठते हैं. वे अब पूरी तैयारी से जवाहरबाग परिसर में दाखिल होते हैं और हिंसक भीड़ को काबू में करने के लिए सीधी कार्रवाई करते हैं. पुलिस की सीधी कार्रवाई और फायरिंग में तकरीबन 30 लोग मारे जाते हैं. शुरुआत में मैदान छोड़ कर भागने पर विवश हुई पुलिस और जवाहरबाग परिसर में मची भारी भगदड़ में असली हमलावर भाग नहीं गए, इसकी क्या गारंटी है? और जब पुलिस तैयारी के साथ जवाहरबाग पहुंची तब असली हमलावर ही मारे गए इसकी क्या गारंटी है? यानी, पूरा मसला जबरदस्त फंसावट में है. देश का यह पहला ऐसा कांड है, जिसमें पुलिस की गोली से या हिंसा में मारे गए लोगों की शिनाख्त सार्वजनिक नहीं की गई. यहां तक कि सरगना रामवृक्ष के बारे में भी फौरी तौर पर बता दिया गया कि वह मारा गया, लेकिन उसकी लाश सार्वजनिक करने में सरकार को शर्म आती रही. लोगों को पेंच तब समझ में आया जब रामवृक्ष के परिवार वालों ने लाश पहचानने और लाश ले जाने से इन्कार कर दिया और उसके वकील समेत कुछ अन्य लोगों ने यह दावा किया कि रामवृक्ष मरा ही नहीं है. इसके बावजूद सरकार ने रामवृक्ष की मौत की आधिकारिक पुष्टि नहीं की. विडंबना यह है कि जिस रामवृक्ष को प्रदेश की पूरी सत्ता जानती थी, जो सपाई गलियारे का जाना-पहचाना चेहरा था, जिसे सपा के वरिष्ठ नेता का सीधा संरक्षण मिला हुआ था, उसकी पहचान के लिए हरिनाथ सिंह नाम के एक व्यक्ति को जेल से निकाल कर लाया गया और उससे पहचान की औपचारिकता पूरी कराई गई. हरिनाथ सिंह नक्सली है और यह प्रहसन मात्र इसलिए खेला गया ताकि मथुरा कांड का पूरा ठीकरा अनाम नक्सली संगठनों के मत्थे फोड़ा जा सके और अपनी खाल बचाई जा सके. लेकिन सरकार की यह मंशा पूरी नहीं हो सकी.
मथुरा कांड के जो भी सियासी सूत्रधार हैं, उनके खिलाफ दो पुलिस अधिकारियों और तकरीबन ढाई दर्जन लोगों की हत्या का मुकदमा चलना चाहिए. मथुरा कांड सत्ता के दो केंद्रों को नंगा करने वाला प्रकरण साबित हुआ है. इसमें तीसरा कोण भाजपा का भी है, जिसने घालमेल करने और लोगों में भ्रम पैदा करने की पूरी कोशिश की, जो कम खतरनाक नहीं है. रामवृक्ष यादव को समानान्तर सरकार बनाने की ताकत बनने का मौका देने वाले समाजवादी पार्टी के नेता प्रो. रामगोपाल यादव के ऊपर विशाल छत्र डालते हुए भाजपा ने दिल्ली समेत तमाम जगहों पर आनन-फानन प्रेस कॉन्फ्रेंस कर डाली और रामवृक्ष को संरक्षण देने के सारे आरोप सपाई सत्ता के दूसरे धुर शिवपाल यादव पर थोप दिए. भाजपा की इस हरकत ने जानने वालों को एक बार फिर से जनवाया कि समाजवादी पार्टी के अंदर के भाजपाई-सहानुभूतिकर्ता रामगोपाल यादव ही हैं, जिन्होंने सपा को महागठबंधन से अलग कराया और देशभर में सपा की फजीहत कराई. महागठबंधन से अलग होने के फैसले का शिवपाल यादव ने कड़ाई से विरोध किया था और अब भी पुराने समाजवादियों की वृहत्तर एकता के लिए वे सक्रिय हैं. यह बात भाजपा को अंदर से चुभती रही है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव जब सामने है, ऐसे में सत्ता के दो केंद्रों की भिड़ंत से प्रदेश में अराजकता का फैलाव कहीं न कहीं भाजपा को सियासी नफा के बतौर दिखता है. जयगुरुदेव की अथाह संपत्ति के दो दावेदारों पंकज यादव और रामवृक्ष यादव के बीच उमाकांत तिवारी की भूमिका ठीक वैसी ही रही है, जैसे शिवपाल और रामगोपाल के बीच भाजपा ने निभाई. संघ और भाजपा से जुड़े उमाकांत तिवारी का अब कोई नाम भी नहीं ले रहा.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवपाल को रामवृक्ष यादव का सरपरस्त बताने की भाजपा ने तथ्यात्मक गलती की है. जयगुरुदेव आश्रम के मौजूदा प्रमुख पंकज यादव के सिर पर शिवपाल का हाथ रहा है. पंकज यादव और रामवृक्ष यादव में जानी दुश्मनी है, क्योंकि पंकज यादव ने ही रामवृक्ष और उमाकांत को आश्रम से बेदखल किया था. जयगुरुदेव आश्रम से बेदखल किए गए रामवृक्ष यादव पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने हाथ रखा. केंद्र सरकार को भेजी रिपोर्ट में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मथुरा प्रकरण में राजनीतिक सरपरस्ती और साजिश से इन्कार किया और सारी नाकामी पुलिस पर डाल दी. रामवृक्ष और उसके गिरोह द्वारा जवाहरबाग परिसर में जमा किए गए हथियारों के तथ्य से अखिलेश इन्कार तो नहीं कर सकते थे, लेकिन इसमें पेंच डालते हुए उन्होंने इसका नक्सल-लिंक निकालने की नाकाम कोशिश की.
रामवृक्ष यादव को क्या राजनीतिक आश्वासन दिए गए थे, उसके अमल में नहीं आने की क्या वजहें रहीं, इसे जानने के क्रम में हम उन पहलुओं को जानते चलें जिनकी तरफ अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिलाया. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के परिवार के दो सदस्यों रामगोपाल और शिवपाल के बीच उत्तर प्रदेश के पश्चिमी-दक्षिणी हिस्से के अलीगढ़, आगरा, मेरठ और कानपुर मंडल में सियासी वर्चस्व (पर्सनालिटी-कल्ट) स्थापित करने की होड़ अर्से से रही है. मथुरा-दिल्ली रोड पर सैकड़ों एकड़ जमीन पर कब्जा जमा कर आश्रम बनाने वाले इटावा निवासी तुलसी यादव उर्फ जयगुरुदेव बाबा और उनके अनुयाइयों की भारी जमात का समर्थन शिवपाल को मिलता रहा है और यह बात रामगोपाल को हमेशा खलती रही है. जयगुरुदेव की मृत्यु के बाद रामगोपाल ने उनके एक शिष्य रामवृक्ष यादव को अपने संरक्षण में लिया लेकिन जयगुरुदेव के एक अन्य ताकतवर शिष्य व बाबा के वाहन चालक पंकज यादव को शिवपाल यादव पहले से ही अपने आभामंडल में ले चुके थे. दिल्ली-मथुरा रोड आश्रम और उसकी अकूत सम्पत्ति पर कब्जा जमाने में भी शिवपाल बाजी मार ले गए और अपने शिष्य पंकज यादव को आश्रम का प्रमुख और जयगुरुदेव का उत्तराधिकारी बनवाने में कामयाब हो गए. पंकज यादव का लखनऊ आना और शिवपाल का मथुरा जाना या विभिन्न कार्यक्रमों में दोनों का मिलना-जुलना भी रामगोपाल को खटकता रहा. रामगोपाल ने रामवृक्ष की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जगाईं और मथुरा के ही ढाई सौ एकड़ के जवाहरबाग उद्यान में आश्रम बनवाने का आश्वासन देकर उसका भरपूर इस्तेमाल किया. सपा के सूत्र यह भी बताते हैं कि जवाहरबाग में आश्रम स्थापित करने के अलावा रामवृक्ष को किसी राजनीतिक पद पर आसीन कराने का भी गुपचुप राजनीतिक स्वप्न दिखाया गया था. रामवृक्ष की राजनीतिक महत्वाकांक्षा काफी पहले से हिलकोरें ले रही थी. उसने गाजीपुर लोकसभा और जहूराबाद विधानसभा सीट से चुनाव भी लड़ा था. रामवृक्ष की महत्वाकांक्षाएं कुरेदकर उसे व उसके जुझारू समर्थकों की पूरी फौज फिरोजाबाद लोकसभा चुनाव में झोंक दी गई थी. रामवृक्ष यादव ने भी रामगोपाल यादव के प्रत्याशी बेटे अक्षय यादव के पक्ष में पूरी ताकत लगा दी. फिरोजाबाद लोकसभा सीट से अक्षय यादव के चुनाव जीतने के बाद रामवृक्ष यादव ने दोनों आश्वासनों को अमल में लाने का दबाव बनाना शुरू किया. जवाहरबाग को आश्रम के लिए 99 साल के लीज़ पर देने का मसला करीब-करीब तय हो गया था. शासनतंत्र को इस बारे में बता भी दिया गया था, लेकिन औपचारिक आदेश जारी करने की सरकारी प्रक्रिया ढीली कर दी गई और इसमें देर होती रही. स्थानीय प्रशासन दो धुरों के द्वंद्व में फंसा रहा. सत्ता के दूसरे धुर की तरफ से सीधा हस्तक्षेप हो उसके पहले ही मामला अदालत में पहुंचवा दिया गया और सरकार को अपने कदम रोकने पड़े. सियासत की बिसात पर भी शिवपाल के आगे रामगोपाल की गोट धड़ाधड़ धराशाई होती रही. उनकी मर्जी के बगैर कई लोग राज्यसभा और विधान परिषद पहुंच गए, यहां तक कि मुलायम के निजी सेवक रहे जगजीवन तक को विधान परिषद की सीट मिल गई, लेकिन रामवृक्ष यादव को कुछ नहीं मिल पाया. इस वादा-खिलाफी ने रामवृक्ष को काफी उग्र कर दिया. इसका नतीजा सामने है. आने वाले विधानसभा चुनाव में रामवृक्ष यादव और उसके मजबूत कैडर के इस्तेमाल की रामगोपाल की रणनीति भी इसके साथ ही ध्वस्त हो गई.
जवाहरबाग पर रामवृक्ष और उसके स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह संगठन के कब्जे के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले वकील विजयपाल तोमर कहते हैं कि जवाहरबाग को 99 साल के पट्टेे पर देने की प्रदेश सरकार ने पूरी तैयारी कर ली थी. यदि वे समय रहते हाईकोर्ट नहीं जाते तो प्रदेश सरकार इस बेशकीमती सरकारी जमीन का पट्टा मात्र 1 रुपया सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से संगठन के नाम कर चुकी होती. तोमर की याचिका पर हाईकोर्ट ने 20 मई 2015 को ही जवाहरबाग खाली कराने का आदेश दिया था, लेकिन शासन के सीधे दबाव में प्रशासन कुछ नहीं कर पाया. 22 जनवरी 2016 को अदालत की अवमानना का मामला शुरू हुआ, फिर भी प्रशासन चार महीने तक पर्याप्त फोर्स की कमी का बहाना बना कर मामले को टालता रहा. गृह विभाग के ही एक आला अधिकारी ने कहा कि अदालत के समक्ष पर्याप्त फोर्स की कमी का जिक्र करना ही यह इंगित करता है कि प्रशासन को जवाहरबाग में जमा हो रहे असलहों और हिंसक तैयारियों की पूरी रिपोर्ट थी, इसके बावजूद पुलिस सत्ता सियासतदानों के कारण नपुंसक बनी रही और अपने दो काबिल अफसर गंवा दिए.
जवाहरबाग पर काबिज रामवृक्ष और उसके समर्थकों के लिए राशन-पानी और प्रशासनिक तीमारदारी की पूरी व्यवस्था कैसे और किसके इशारे पर हो रही थी? इस सवाल का आधिकारिक जवाब कुछ भी नहीं है और अनधिकृत जवाब सर्वज्ञात है. रामवृक्ष भी जवाहरबाग की 280 एकड़ जमीन पर कब्जा कर उसी तरह का आश्रम बनवाना चाहता था जैसा उसके गुरु जयगुरुदेव ने मथुरा के इंडस्ट्रियल एरिया और नेशनल हाईवे नंबर-2 के इर्द-गिर्द की सैकड़ों एकड़ जमीन पर कब्जा जमा कर बनवाई थी. जयगुरुदेव की पृष्ठभूमि भी कोई संतोचित नहीं रही है. इसका असर शिष्यों पर भी था. इटावा जिले में बकेवर थाने के खितौरा गांव निवासी तुलसी यादव उर्फ जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था. जयगुरुदेव पर इटावा समेत लखनऊ में भी कई आपराधिक मुकदमे दर्ज रहे हैं और उनमें सजा भी हुई है. इटावा कोतवाली में दर्ज एक मुकदमे अपराध
संख्या-(226) में जयगुरुदेव को छह महीने की जेल भी हो चुकी थी. लखनऊ में भी वजीरगंज थाने में दर्ज मुकदमे (अपराध संख्या-318) में उन्हें डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा हुई थी.
मनोवैज्ञानिक हताशा में चली गई है यूपी पुलिस मथुरा कांड ने केवल मथुरा ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश की पुलिस पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर डाला है. सियासत के कारण होने वाली दुर्गति और विद्रोह जैसी स्थिति का पैदा होना चिंताजनक है. मथुरा कांड में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और सब इंसपेक्टर संतोष यादव के मारे जाने से पुलिस अधिकारी और कर्मचारी इतने दुखी हैं कि वे देश में ही दोबारा नहीं पैदा होने की प्रार्थनाएं कर रहे हैं. सत्ता सियासतदानों को इससे कोई मतलब नहीं. हम उन अधिकारियों का नाम नहीं छाप रहे, जिनलोगों ने एसपी मुकुल द्विवेदी की हत्या पर पत्र लिखे या सार्वजनिक तौर पर ऐसी निकृष्ट सियासत को धिक्कारा. उन अधिकारियों का नाम छप जाए तो सरकार उनपर कार्रवाई कर देगी. क्योंकि सरकार इतना ही कर सकती है. नेता खुद को सुधार नहीं सकते.
आहत पुलिस अधिकारियों ने जो लिखा है उसे पढ़ कर ही पुलिस संगठन के आक्रोश का अंदाजा लगाया जा सकता है. वे लिखते हैं, पुलिस की मौत पर जश्न मनाने वालों खुश रहो. मुकुल आज हमारे बीच नहीं हैं. पुलिस की नियति ही है अपने ही लोगों द्वारा मारा जाना. पुलिस की मौत पर जश्न मनाने वालों खुश रहो. हम यूं ही मुकुल बन कर मरते रहेंगे. मुकुल किसी आतंकवादी या डकैतों से लड़ता हुआ मारा जाता तो हमें गर्व और दुःख होता लेकिन आज शर्म और जांच और मुआवज़े पर बदलता रहा मुख्यमंत्री का निर्णय मथुरा कांड के बाद शहीदों के आश्रितों को मुआवजा देने और मामले की जांच कराने के प्रसंग में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जल्दी-जल्दी बदलने वाला निर्णय भी चर्चा में रहा. पहले उन्होंने मथुरा कांड की डीजीपी से जांच कराने की बात कही, लेकिन फिर निर्णय बदला और जांच की जिम्मेदारी आगरा मंडल के कमिश्नर को दे दी. मामले की सीबीआई जांच कराने का दबाव बढ़ने पर फौरन न्यायिक जांच की घोषणा कर दी गई. ऐसा ही शहीदों के आश्रितों को मुआवजा देने में भी हुआ. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शहीद एसपी मुकुल द्विवेदी और सब इंसपेक्टर संतोष यादव के आश्रितों को 20-20 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की. जब कुंडा के सीओ हत्याकांड में 50 लाख का मुआवजा और परिजनों को सरकारी नौकरी दिए जाने की याद दिलाई गई तो मुख्यमंत्री ने फिर अपना निर्णय बदला. अब उन्होंने शहीद पुलिस अधीक्षक और शहीद थानाध्यक्ष के आश्रितों की सहायता राशि 20 लाख से बढ़ाकर 50 लाख रुपये करने की घोषणा की. इसके बाद अखिलेश ने दोनों शहीद अधिकारियों के परिवार को असाधारण पेंशन प्रदान करने और शहीद अधिकारियों के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दिए जाने की भी घोषणा की. दुःख है. विदा मुकुल, अब कभी मत मिलना. और आखिरी बात इस देश में फिर कभी पैदा मत होना…
जयगुरुदेव की सम्पत्ति भी तो लुभाती है
जयगुरुदेव भी कानून को अपने जेब में ही रखते थे और सियासतदानों को अपनी मुट्ठी में. बाबा जयगुरुदेव और उनकी धर्मप्रचारक संस्था से समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव का नाम खास तौर पर जुड़ा रहा है. शिवपाल यादव समय-समय पर बाबा के पास आते भी रहते थे. बाबा के उत्तराधिकारी के तौर पर उनके ड्राइवर पंकज यादव को काबिज कराने में भी शिवपाल यादव की अहम भूमिका रही है. मथुरा कांड के पीछे सियासी प्रलोभन के साथ-साथ आर्थिक लोभ भी कम नहीं था. जयगुरुदेव की सम्पत्ति तकरीबन 20,000 करोड़ रुपये की बताई जा रही है. जयगुरुदेव के कई भव्य आश्रम मथुरा-दिल्ली हाईवे और इटावा में हैं. जयगुरुदेव के आर्थिक साम्राज्य में हजारों करोड़ रुपये की ज़मीन, सैकड़ों करोड़ की आलीशान गाड़ियां, मसलन मर्सिडीज़, रोल्स रॉयस, ऑडी और प्लाइमाउथ जैसी भव्य कारों का बेड़ा और सैकड़ों करोड़ के बैंक खाते हैं. जय गुरुदेव के आश्रमों में हर दिन करीब लाखों रुपये का चढ़ावा भी चढ़ता है. स्वाभाविक है, नेता इस प्रलोभन से वंचित कैसेे रहे.
रामवृक्ष की समानान्तर सरकार
जवाहरबाग में रामवृक्ष यादव की समानान्तर सरकार चल रही थी. परिसर में घुसने की किसी को हिम्मत नहीं थी. दो साल तक कब्जे के दौरान परिसर में पक्के निर्माण तक कर लिए गए थे और जवाहरबाग को सुरक्षा दुर्ग बना लिया गया था. परिसर में अस्पताल था. बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल बना लिया गया था. परिसर की रखवाली के लिए बाकायदा निजी सेना नियुक्त थी. अपने समर्थकों को रामवृक्ष समझाता था कि शारीरिक आजादी तो मिल गई मगर आर्थिक आजादी मिलनी बाकी है. 14 मार्च 2014 से ही जवाहरबाग रामवृक्ष के कब्जे में था. परिसर में तीन हजार से अधिक लोग रहते थे. अस्पताल, स्कूल, बिजली बैक-अप और स्ट्रीट लाइटें सब लगी थीं. बाहर से ट्रकों पर अनाज और अन्य, सामग्रियों के आने का सिलसिला चलता रहता. जवाहरबाग परिसर के पास लग्जरी गाड़ियां खड़ी रहतीं. रामवृक्ष स्थानीय लोगों को भी लुभाने के हथकंडेे अपना रहा था. सस्ती कीमत पर चीनी, सब्जियां और फल बेचे जा रहे थे. सब्जी और फल उद्यान में उपजाए हुए थे. जवाहरबाग पर कब्जा जमाए बैठे लोगों के सरगना रामवृक्ष यादव ने जिला उद्यान अधिकारी को खदेड़ कर उनके आवास पर कब्जा जमा लिया था और अपना बेडरूम आलीशान बनवा रखा था. इस आवास में रामवृक्ष के लिए स्विमिंग पूल का भी इंतजाम था. बेडरूम में एसी लगा था, डबल बेड पलंग पर महंगे गद्दे लगे थे. ड्रेसिंग टेबल पर ब्रांडेड तेल, महंगे डियोडरेंट और परफ्यूम रखे हुए थे. बेडरूम में कई तरह के आचार के डिब्बे भी पाए गए. रामवृक्ष यादव को धन कहां से मिल रहा था, यह रहस्य बना हुआ है. शासन इसे नक्सली संगठनों पर डाल कर नेताओं को बचाने की कोशिश में है. कहा जा रहा है कि ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के नक्सली संगठनों से उसे पैसा मिल रहा था. शासन जवाहरबाग के अंदर भंडार घर में भीगे मिले एक रजिस्टर का हवाला देता है, जिसमें आर्थिक मदद और खर्च का विवरण दर्ज है. बताया गया कि उसमें ओडिशा के रंगलाल राठौर नामक व्यक्ति से हर माह 22 लाख रुपये, बनारस के नारायण सिंह से 10 लाख रुपये, कन्नौज के मान सिंह से सात लाख रुपये और उन्नाव के एक व्यक्ति से आठ लाख रुपए से अधिक की राशि मिलने का विवरण दर्ज है. ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के उन इलाकों के दर्जनों लोगों के नाम और भंडारे के लिए उनसे मिली लाखों की राशि का ब्यौरा भी दर्ज है. रामवृक्ष यादव के पास महंगी पजेरो गाड़ी थी, इसके अलावा उसके आगे-पीछे पांच से सात गाड़ियों का काफिला चलता था, जिसमें हथियारबंद दस्ता सवार रहता था.
जारी है पुलिस पर हमलों और शहादतों का सिलसिला
मथुरा कांड में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और सब इंसपेक्टर संतोष यादव की निर्मम हत्या उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों की लगातार हो रही शहादतों का सिलसिला है, जो थमने का नाम नहीं ले रहा. सरकार पर सियासत इतनी हावी है कि वह पुलिसकर्मियों की बेतहाशा कुर्बानियां ले रही है.
शहादतों का आंकड़ा इतना भयावह है कि किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाएं. इतने पुलिसकर्मी आतंकवाद प्रभावित राज्यों में भी नहीं मरते जितने यूपी में मर रहे हैं. प्रदेश में हर साल सौ से डेढ़ सौ पुलिसकर्मी ड्यूटी के दौरान जान गंवा रहे हैं. इनमें अधिकारी से लेकर सिपाही तक शामिल हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार एक सितम्बर 2012 से 31 अगस्त 2013 के दौरान कुल 117 पुलिसकर्मियों ने शहादतें दीं. 2013-2014 में 126 और 2014-2015 में 108 पुलिसकर्मियों की शहादत हुई. एक सितम्बर 2015 से अब तक सौ से अधिक पुलिसकर्मियों की जान जा चुकी है.
एक सितम्बर 2012 से 31 अगस्त 2013 के दौरान जो 117 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे, उनमें एक अपर पुलिस अधीक्षक, दो डीएसपी, 11 सब इंस्पेक्टर, चार एएसआई, एक एसआईएम, तीन एएसआई एम, 13 हेड कांस्टेबल, 79 सिपाही, एक लीडिंग फायरमैन, एक महिला कांस्टेबल और एक हेड ऑपरेटर शामिल थे. एक सितम्बर 2013 से 31 अगस्त 2014 के दौरान हुई 126 शहादतों में तीन इंस्पेक्टर, एक कंपनी कमांडर, दो एसआई (एम लिपिक), एक एसआईएम, सात सब इंस्पेक्टर, एक एसआई रेडियो, तीन एएसआईएम, चार एएसआई, 13 हेड कांस्टेबल, 85 सिपाही, चार सिपाही चालक, एक फायरमैन और एक महिला सिपाही की मौत शामिल है. एक सितम्बर 2014 से 31 अगस्त 2015 तक हुई 108 शहादतों में एक डीएसपी, एक इंस्पेक्टर, चार एसआई, चार एसआईएम, एक एसआईएम (लिपिक), 26 हेड कांस्टेबल, 67 सिपाही, एक लीडिंग फायरमैन और एक फायरमैन की मौत शामिल है.
पुलिस पर हमलों का आंकड़ा भी उतना ही भयावह है. विधानसभा में सरकार द्वारा रखे गए आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2010-2011 के दौरान पुलिस पर हमलों की कुल 124 घटनाएं दर्ज हुईं. 2011-2012 के दौरान पुलिस पर हमलों की 144 घटनाएं हुईं. 2012-2013 के दौरान पुलिस पर हमलों की कुल 202 घटनाएं दर्ज हुईं. 2013-2014 के दौरान पुलिस पर हमले की कुल 265 घटनाएं घटीं. 2014-2015 के दौरान पुलिस पर हमले की कुल 300 घटनाएं घटीं और वर्ष 2015 से अब तक पुलिस पर हमले की कुल 278 घटनाएं घट चुकी हैं.
मुक़दमों की लंबी फेहरिस्त तो क्यों नहीं की कार्रवाई?
मथुरा के सरकारी उद्यान जवाहरबाग पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उसके गुर्गों पर जून 2014 से ही आपराधिक मुकदमे दर्ज होने शुरू हो गए थे. मुकदमों की फेहरिस्त देखेंगे तो आप आश्चर्य करेंगे कि इतने मुकदमों के बावजूद सरकार ने कार्रवाई क्यों नहीं की. तब आप यह भी महसूस करेंगे कि स्थानीय प्रशासन और स्थानीय पुलिस को किस कदर पिछले दो साल से पंगु बना कर रखा गया था. मुकदमों का जायजा आप भी लें…
- 17 जून 2011 को जयगुरुदेव आश्रम निवासी रवि और सुरेशचंद्र पर हमला. हमलावरों के अगुआ रामवृक्ष यादव समेत 15 लोगों पर जानलेवा हमला, बलवा, मारपीट और धमकी दिए जाने का मुकदमा दर्ज.
- 7 जून 2014 को मथुरा जिला उद्यान अधिकारी मुकेश कुमार ने रामवृक्ष और उसके 250 गुर्गों पर सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाने, क्षति पहुंचाने और विरोध करने पर गाली-गलौज कर धमकी देने की रिपोर्ट थाना सदर बाजार में दर्ज कराई थी.
- 15 जून 2014 को जवाहरबाग के सरकारी ठेकेदार जयप्रकाश ने बाग के फल तोड़ने, पेड़ काटने और मना करने पर जान से मारने की धमकी दिए जाने की रिपोर्ट थाना सदर बाजार में कराई थी.
- 24 सितम्बर 2014 को जिला उद्यान अधिकारी मुकेश कुमार ने सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा करने, क्षति पहुंचाने और विरोध करने पर गाली-गलौज कर धमकी देने की रिपोर्ट थाना सदर बाजार में दोबारा दर्ज कराई थी.
- 2 अक्टूबर 2014 को जवाहरबाग के संरक्षण अधिकारी किशन सिंह ने गाली-गलौज करके सरकारी कार्य में बाधा डालना और सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा करने का मुकदमा रामवृक्ष व उसके समर्थकों के खिलाफ थाना सदर बाजार में दर्ज कराया था.
- 29 नवंबर 14 को जिला उद्यान अधिकारी मुकेश कुमार ने फिर से सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा करने, क्षति पहुंचाने और विरोध करने पर गाली-गलौज कर धमकी देने की रिपोर्ट थाना सदर बाजार में दर्ज कराई.
- 22 जनवरी 15 को सदर थाने के प्रभारी प्रदीप कुमार पांडेय ने सरकारी कार्य में बाधा डालने, सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा करने, क्षति पहुंचाने और विरोध करने पर गाली-गलौज कर धमकी देने की रिपोर्ट दर्ज कराई थी.
- 15 जून 2015 को जवाहरबाग के सहायक उद्यान निरीक्षक रामस्वरूप शर्मा ने रामवृक्ष यादव समेत 150 लोगों पर बलवा करने, गाली-गलौज करने, सरकारी सम्पत्ति कब्जा करने और धमकी देने की रिपोर्ट दर्ज कराई थी.
- 15 जून 2015 को जवाहरबाग के सहायक उद्यान निरीक्षक रामस्वरूप शर्मा ने रामवृक्ष यादव और स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रही के 150 सदस्यों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था.
- 27 मई 15 को जवाहरबाग में तैनात कर्मचारी जगदीश प्रसाद ने रामवृक्ष यादव, चंदनबोस समेत 20 लोगों को नामजद करते हुए 100-150 लोगों के खिलाफ मारपीट कर जवाहरबाग की सम्पत्ति पर कब्जा करने की रिपोर्ट थाना सदर में दर्ज कराई थी.
- 16 मार्च 2016 को कलेक्ट्रेट के कर्मचारी देवी सिंह ने रामवृक्ष यादव समेत अन्य लोगों के खिलाफ मारपीट करने और धमकी देने की रिपोर्ट दर्ज कराई थी.
- 4 अप्रैल 2016 को तहसील सदर के अमीन चंद्रमोहन मीना और मोतीकुंज निवासी अजय प्रताप मीणा ने रामवृक्ष यादव, चंदन बोस समेत 250 लोगों के खिलाफ बलवा करने, अपहरण करने, मारपीट करने, सरकारी कार्य में बाधा डालने और जानलेवा हमला करने की रिपोर्ट थाना सदर बाजार में दर्ज कराई थी.
- 4 अप्रैल 2016 को अधिवक्ता राकेश कुमार ने रामवृक्ष यादव, चंदनबोस समेत 250 लोगों के खिलाफ बलवा करके तहसील परिसर में लूटपाट करने का मामला थाना सदर में दर्ज कराया था.
- 4 अप्रैल 2016 को ही तहसील सदर में तैनात लेखपाल नितिन चतुर्वेदी ने तहसील परिसर में घुसकर बलवा करने, लूटपाट और धमकी देने के साथ-साथ सरकारी कार्य में बाधा डालने का मुकदमा रामवृक्ष यादव, चंदनबोस समेत 200-250 लोगों के खिलाफ थाना सदर में दर्ज कराया था.
एक रुपये में 40 लीटर पेट्रोल और 60 लीटर डीजल की अहमक़ी मांग
आजाद भारत विधिक विचारक क्रांति सत्याग्रही एक रुपये में 40 लीटर पेट्रोल और 60 लीटर डीजल देने की मांग कर रहे थे. जवाहरबाग की सैकड़ों एकड़ भूमि पर कब्जा जमाए रामवृक्ष यादव और उसके गुर्गे खुद को नेताजी सुभाषचंद्र बोस का अनुयायी बता कर अहमक मांगें कर रहे थे. उनकी मांगों में भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव रद्द करना भी शामिल था. उनकी मांग थी कि देश में चल रही मौजूदा मुद्रा की जगह आजाद हिंद फौज करेन्सी चले.
विवशता स्वीकार करती डीजीपी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक जावीद अहमद ने सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी वह भी गौर करने लायक है. पुलिस प्रमुख की आधिकारिक रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि रामवृक्ष और उसके गुर्गे 2014 से ही जवाहरबाग पर कब्जा जमाए बैठे थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2015 में ही जवाहरबाग परिसर खाली कराने का आदेश दे रखा था. डीजीपी ने घटना में 22 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की, लेकिन लिखा कि एक भी आदमी पुलिस की गोली से नहीं मरा. जबकि उधर से हमलावरों की गोली से सिटी एसपी और थाना प्रभारी मारे गए. आप भी रिपोर्ट देखें…
- वर्ष 2014 से रामवृक्ष यादव के नेतृत्व में करीब ढाई-तीन हजार पुरुष महिलाएं एवं बच्चे स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह के बैनर तले जवाहरबाग में काबिज थे.
- अनधिकृत कब्जा करने वालों ने उद्यान विभाग के कार्यालयों तथा आवासीय भवनों में कब्जा कर एवं झोपड़ी और टेंट लगाकर अपने आवास बना लिए थे तथा जवाहरबाग की सम्पत्ति को काफी नुकसान पहुंचा रहे थे.
- वकील विजयपाल सिंह तोमर द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय जनहित याचिका (28807/2015) दाखिल की गई थी, जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 20-05-2015 को इन अवैध कब्जाधारियों से जवाहरबाग को खाली कराने हेतु आदेश जारी किया गया था.
- दिनांक 02-06-2016 को करीब पांच बजे शाम न्यायालय के आदेश के अनुपालन में कई थानों की पुलिस पीएसी आदि के साथ कार्रवाई के लिए जवाहरबाग के पास एकत्रित हुई थी.
- उपद्रवियों ने सैकड़ों महिलाओं को लाठी-डंडे के साथ आगे कर दिया तथा पुरुष उपद्रवी नाजायज असलहों के साथ पीछे मोर्चा संभाले रहे.
- रामवृक्ष यादव व चन्दन बोस, रिंकू, अमित, रामपाल, धीरज सिंह, वीरेश यादव, राकेश गुप्ता, लक्ष्मन पासी, सुन्दरलाल, मुन्नी लाल आदि ढाई-तीन हजार पुरुष एवं महिलाओं ने उत्तेजित होकर पुलिस बल पर जान से मारने की नीयत से ईंट-पत्थर व हथगोले फेंकनेे शुरू कर दिये व नाजायज असलहों से फायरिंग कर दी.
- फराह थाने के अध्यक्ष संतोष कुमार यादव गोली लगने से गम्भीर रूप से घायल हो गए तथा पुलिस अधीक्षक नगर मुकुल द्विवेदी, नगर मजिस्ट्रेट राम अरज यादव व कांस्टेबल भूपेन्द्र, कांस्टेबल पवन कुमार, कांस्टेबल राधाशंकर, कांस्टेबल वीरविक्रम, कांस्टेबल श्रीनिवास, कांस्टेबल बृजेश, कांस्टेबल राजकुमार यादव, कांस्टेबल असेन्द्र कुमार, कांस्टेबल हरीश कुमार पांडेय, कांस्टेबल संजीव कुमार, कांस्टेबल तेजेन्द्र कुमार सिंह, कांस्टेबल विद्याकांत, मुख्य आरक्षी श्रीनिवास, उप निरीक्षक प्रबल प्रताप, उप निरीक्षक विपिन कुमार व अन्य पुलिस कर्मी गम्भीर रूप से घायल हो गए.
- नगर मजिस्ट्रेट रामअरज यादव एवं पुलिस अधीक्षक ग्रामीण द्वारा चेतावनी दी गई लेकिन उनके द्वारा चेतावनी का कोई असर न होने पर फायर ब्रिगेड द्वारा मौसम के अनुकूल पानी की बौछार कराई गई. लेकिन उनके द्वारा लगातार पथराव व फायरिंग करने पर नगर मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार न्यूनतम बल प्रयोग करते हुए आत्मरक्षार्थ, अश्रुगैस, रबर बुलेट, एन्टी राइट गन का प्रयोग करते हुए इन लोगों को शांत कराने का प्रयास किया गया लेकिन ये लोग और अधिक उत्तेजित होकर ताबड़तोड़ फायरिंग करने लगे. पुलिस बल द्वारा पम्प ऐक्शन गन एवं सरकारी असलहों से हवाई फायरिंग कर उपद्रवियों को तितर-बितर करने का प्रयास किया गया.
- सूचना पर जिलाधिकारी, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मौके पर अतिरिक्त पुलिस के साथ पहुंचे और उपद्रवियों को दोबारा चेतावनी दी गई. उपद्रवियों के नेताओं ने अपने लोगों को ललकार कर कहा कि झोपड़ियों में आग लगाकर पीछे मोर्चा ले लो. झोपड़ियों में आग लगाते ही विस्फोट होने लगे जिसमें उनके कुछ व्यक्ति झुलस गए.
- इस घटना के संबंध में थाना सदर बाजार पर मुकदमा अपराध संख्या- 242/16 धारा 147, 148, 149, 307, 302, 332, 333, 353, 186, 188 भादवि और 7 सीएलए एक्ट का अभियोग पंजीकृत किया गया.
- घटना में 22 उपद्रवियों की मृत्यु हुई जिसमें 11 लोग आग में झुलसने एवं 11 लोगों की लाठी डंडों की चोटों से मृत्यु हुई है. मृतकों में एक महिला है.
- मुकुल द्विवेदी अपर पुलिस अधीक्षक नगर एवं संतोष कुमार यादव थानाध्यक्ष फराह शहीद हुए.
- 23 पुलिस कर्मियों को फायर आर्म्स एवं लाठी डंडों की चोटें आई हैं. 56 उपद्रवी घायल हुए हैं.
14. अब तक कुल 368 अभियुक्त गिरफ्तार किए गए हैं जिसमें 58 अभियुक्त अभियोग से सम्बन्धित हैं तथा 310 व्यक्ति शांति भंग के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं. ऑपरेशन के दौरान 45 तमंचे 315 बोर, 02 तमंचे 12 बोर, 01 रायफल 315 बोर, 01 रायफल 12 बोर, 04 रायफल 315 बोर, 80 जीवित एवं खोखा कारतूस 12 बोर, 99 जीवित एवं खोखा कारतूस 315 बोर एवं 05 खोखा कारतूस 32 बोर बरामद हुए हैं.