आगामी आम चुनाव वर्ष 2014 की सबसे महत्वपूर्ण घटना है. आर्थिक परिदृश्य के संदर्भ में बात करें, तो लोग इस बात का भी इंतज़ार कर रहे हैं कि चुनाव हों और नए प्रयास एवं नई नीतियां सामने आएं. हालांकि, इस पक्ष को लेकर बड़ी संभावनाएं नहीं जताई जा सकतीं, क्योंकि जो भी सरकार सत्ता में आती है, वह ऐसी ही नीतियों के साथ आगे बढ़ती है. फिर भी अर्थव्यवस्था की बात छोड़ दें, तो चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जो भी नई सरकार आएगी, राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर नई नीतियां लेकर आएगी. इन नई राजनीतिक एवं सामाजिक नीतियों को लेकर बहुत सारे आकलन हैं और बहुत सारे ख़तरे भी. जो कारोबारी तबका है, वह इस बात को लेकर उत्साहित है कि भाजपा सत्ता में आएगी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे. व्यापारी वैसे भी सामान्य तौर अपने हितों के बाहर जाकर नहीं सोचते. उन्हें लग रहा है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, तो व्यापारिक हितों से जुड़े ़फैसले लिए जाएंगे और जिसके चलते समूचे देश में गुजरात मॉडल दोहराया जा सकता है. वास्तव में वे दूरदर्शी नहीं हैं.
गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहां नव-उद्यमिता पहले से मौजूद थी. गुजरात कभी भी पिछड़ा राज्य नहीं था. गुजरात पहले से प्रगति कर रहा था, इसलिए अब वहां उसकी बेहतरी के लिए किसी ने कितनी कम या ज़्यादा कोशिश की है, इसका परीक्षण करना, इस पर चर्चा करना ज़रूरी नहीं है. जो बड़ा ख़तरा है, वह है सांप्रदायिकता. अगर समूचा देश हिंदू-मुस्लिम दंगों की गिरफ्त में आ जाता है, तो देश का अस्तित्व ही नहीं बचेगा, व्यापार और अर्थव्यवस्था की तो बात ही छोड़िए. हमें इस स्थिति से बचने का सुरक्षा कवच तैयार करना होगा. सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ आकर इस ख़तरे को दूर करना चाहिए. ग़ैर-कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में सबके अपने-अपने अहम हैं. हर नेता को लगता है कि वही सही है, वह अपने राज्य में, अपने क्षेत्र में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है, लेकिन जब तक उक्त पार्टियां वोटों का बिखराव नहीं रोक पाएंगी, ऐसी ताक़तों को रोक पाने में अक्षम ही रहेंगी. उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे बिना कांग्रेस को साथ लिए भाजपा से मुक़ाबला कर पाएंगी. अगर कांग्रेस और ग़ैर-भाजपा पार्टियां क्रमबद्ध तरी़के से काम करें, तो वे सांप्रदायिक ताक़तों पर नियंत्रण पा सकती हैं या हिंदू संप्रदायवादियों को देश का शासन चलाने से रोक सकती हैं.
बावजूद इसके, अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तब भी मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा. ऐसी स्थिति में उसे एक बड़े गठबंधन के बारे में सोचना पड़ेगा. वास्तव में ऐसी स्थिति देश के लिए बेहतर ही होगी. अगर एक बड़ा गठबंधन होता है, जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय में था, तो उस भाजपा नीत एनडीए सरकार और कांग्रेस सरकार में कोई बड़ा अंतर नहीं होगा. 2002 के गुजरात दंगे के अलावा उस सरकार में कोई बड़े सांप्रदायिक टकराव नहीं हुए थे और गुजरात दंगा भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी, दोनों की छवि पर एक धब्बे की तरह है. सबसे ज़रूरी बात यह है कि देश की जनता बुद्धिमत्तापूर्वक वोट दे, जिसके परिणाम से ही बेहतर सरकार अस्तित्व में आएगी. आख़िरकार देश दूसरे किसी भी मसले से ऊपर है. पिछले 60 वर्षों से अधिक समय से हम चुनावी प्रक्रिया देख रहे हैं. इस प्रक्रिया को सही ढंग से बनाए रखना होगा. मतदाता बड़ी संख्या में अपने इस अधिकार का प्रयोग कर रहे हैं, यह एक शुभ संकेत है. इस दिशा में चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अधिक से अधिक मतदाता मतदान करें, यह देश के भविष्य के लिए बेहतर है.
मैं निश्‍चित तौर पर कह सकता हूं कि ज़्यादा संख्या में मतदाता स्वतंत्र रूप से मतदान करें, तो देश का भविष्य सुरक्षित है, क्योंकि देश की जनता के मन में सांप्रदायिकता जैसी कोई धारणा नहीं है. किसी भी धर्म का व्यक्ति हो, चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम हो, ईसाई हो या फिर किसी अन्य धर्म का, सामान्यत: लोग अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष होते हैं. ऐसा नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता केवल भारतीय संविधान में ही उल्लिखित है, बल्कि यह देश में हज़ारों सदियों से व्याप्त है. हर धर्म-जाति के लोग इस देश में वर्षों से शांति और सद्भाव के साथ रह रहे हैं. सेक्युलरिज्म कांग्रेस पार्टी द्वारा लाया गया विचार नहीं है. यह विचार हमें हमारे धर्मग्रंथों से मिला है. वेद-उपनिषद-गीता, सभी हमें धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हैं. यह हो सकता है कि ये ग्रंथ अपने धर्म की भाषा में संदेश देते हों, लेकिन अर्थ सबका एक ही है समानता, मानवता और ग़रीबों की सेवा. सब कुछ हमें यहीं से मिल जाएगा, कुछ नया खोजने की ज़रूरत नहीं है. हम अपने अतीत को याद रखें और उसी के अनुसार काम करें. यही हमारी सबसे बड़ी सुरक्षा है.

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