अजीब रूह की शादी है एक रूह के साथ, किसी भी जिस्म को बारात में नहीं आना।‘
न जाने शायर फरहत एहसास ने किन हालातमें ये शेर लिखा था, लेकिन आज कोविड के जमाने में यह हकीकत बन गया है। शादियां हो तो रही हैं, लेकिन मुंह चुराने के भाव से। मेहमान हैं भी तो उंगली पर गिनने लायक। जिस्मों की गहमागहमी तो मानो सिरे से गायब है। कुछ लोग ऐसी स्थिति को ‘आदर्श’ मान सकते हैं, लेकिन हकीकत में अमूमन हर भारतीय परिवार में सबसे बड़ा सामाजिक धार्मिक अनुष्ठान समझी जाने वाली शादी सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना की दहशत के चलते महज एक रस्म अदायगी में तब्दील हो गई है। इस देश में हर साल लगभग 1 करोड़ जोड़े विवाह के पवित्र बंधन में बंधते हैं । लेकिन कोरोना के चलते सालाना करीब 40 हजार करोड़ रू. का यह विशाल विवाह उद्योग लगभग बैठ गया है।
लाॅक डाउन के चलते हजारो जोड़े विवाह बंधन में बंधने से या तो रह गए या फिर बहुतों ने शादी की तारीखें इस उम्मीद में आगे बढ़ा दी की शायद सर्दियों में हालात सुधर जाएं। जो मजबूर थे, उन्होंने वर वधु को सात फेरे पड़वा कर ही संस्कार पूरा किया तो जो जून-जुलाई के मुहूर्त के भरोसे थे, वो इस उलझन में हैं कि शादी में दोनो पक्षों के अधिकतम 50 लोगों की सरकारी बंदिश पर अमल कैसे करें। किसे बुलाएं किसे न बुलाएं? बरसों पुराने रिश्तों को कैसे बचाएं? समस्या उन लोगों की भी है, जिन्होंने कोविड की पहली लहर उतरने के बाद बेटे-बेटियों की शादियां गर्मियों में तय कर दी थीं। मैरेज गार्डन वालों को बयाना भी दे दिया था। बैंड-बाजे, पंडित और केटरर की बुकिंग भी कर ली थी। लेकिन अब शादी को सीमित दायरे में निपटाने के सरकारी फरमान के बाद वो नई मुश्किल में फंस गए हैं।
ज्यादातर मैरेज गार्डन और होटल वाले लिया गया एडवांस वापस करने से यह कहकर मुकर रहे हैं कि शादी पार्टी ने रद्द की है। हमने नहीं। ऐसे लोग अपनी गुहार किस से करें ? विवाह से जुड़े पक्षों को होने वाले इस अप्रत्याशित आर्थिक नुकसान पर शासन-प्रशासन की कोई नजर नहीं है। कहीं कोई सुनवाई भी नहीं है। एक तो शादी टली ऊपर से माली झटका अलग से। यानी दोहरी मुसीबत। भारतीय परंपरा में शादी तकरीबन हर धर्म और समाज में एक बड़ा अनुष्ठान होती है। यह दो आत्माओ और जिस्मों का मिलान तो है ही, साथ में सामाजिकता को कायम रखने का महत्वपूर्ण माध्यिम भी है। किसी को शादी में बुलाना, शादी में शामिल होना, वर- वधु को बधाई और आशीर्वाद देना एक ऐसा अनूठा सामाजिक संस्कार है, जिसमें हर कोई हिस्सेदारी करना चाहता है।
लिहाजा शादी आज समूचे भारत में अपने आप में बहुत बड़ा उद्दयोग बन चुका है। ध्यान रहे कि एक शादी केवल दो युवा दिलों को ही नहीं मिलाती, बल्कि सैंकड़ों लोगों को रोजगार भी देती है, उनका पेट भरती है। शादी में फिजूलखर्ची भले एक बुराई हो, लेकिन उन गरीबों के लिए तो वह नेमत बनकर आती है, जो केटरिंग, पंडित, बैंड बाजे, लाइटिंग, मिठाई वाले, फोटोग्राफर ,टेंट हाउस, फ्लालवर डेकोरेशन, घोड़ी बग्घी वाले, कपड़े, आभूषण, मेक-अप, ब्यूटी सैलून, जूते चप्पल, टेलरिंग, शादी गार्डन और होटल, परिवहन, वेडिंग प्लानर आदिा का व्यवसाय कर अपनी आजीविका चलाते हैं। मोटा हिसाब लगाएं तो एक सामान्य शादी भी मेहमानों के अलावा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से औसतन सौ और लोगों की जिंदगी का सहारा बनती है। लेकिन कोरोना के चलते सब कुछ ठप है। शादियों के भरोसे अपना पेट पालने वाले ये लोग किन हालात में जी रहे होंगे, सोच कर ही सिहरन होती है।
हालात कुछ ऐसे हैं कि सरकार और प्रशासन की भी मजबूरी है कि भीड़ और लोगों के जमावड़े को कैसे रोकें? कोरोना ने सबसे बड़ी चोट मनुष्य की सामाजिकता पर की है। जबकि शादी का मतलब ही है खुशी, मौज- मस्ती, लोगों का जुटना, गहमा-गहमी, मिलना-मिलाना, नाचना-गाना, हंसी-ठिठोली, खाना-पीना, लक-दक सजना-सजाना, रूठना-मनाना और ऊपर से शुभकामनाओ और दुआओ की बरसात। कोशिश यही रहती है कि गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले दो दिल खुशियों से लबालब होकर नई जिंदगी की शुरूआत करें। शायद इसीलिए किसी को शादी में बुलाना और न बुलाना भी आपकी सामाजिक हैसियत का अघोषित पैमाना होता है।
कोविड की पिछली लहर शादियों का कारोबार महज 35 फीसदी रह गया था, अब इस साल हालत और बुरी है। आलम यह है कि बैंड वाले सब्जी के ठेले लगा रहे हैं तो केटरिंग और टेंट हाउस वाले मजदूरी कर रहे हैं। हलवाइयों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही हैं। हर साल रास्ते जाम करने वाली अक्षय तृतीया भी सूनी गुजर गई। कहीं कोई शहनाई की गूंज नहीं सुनाई दी और न ही किसी डीजे पर बेहोश थिरकते बाराती दिखाई पड़े। उज्जैन में तो राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव ने शहर की 22 बैंड पार्टियों की गुहार पर उन्हें आर्थिक मदद देकर अच्छी पहल की। बाकी शहरों की भी यही कहानी है।
पहले बैंड वादन की कला को डीजे ने मारा और अब कोविड ने तो उसका गला ही दबा दिया है। यही हाल शादी-ब्याह पर टिके दूसरे व्यवसायों का है। दरअसल पिछले साल दिसंबर में कोविड की पहली लहर मंद होते ही आस बंधी थी कि शादियों की रंगत फिर लौटेगी। हालांकि प्रशासन का अंकुश ज्यादा भीड़ न होने लेकर तब भी था। बावजूद इसके विवाह उद्योग से जुड़े तमाम लोगों के चेहरे पर मुस्कान लौटने लगी थी, जो दो माह भी न टिक सकी। पंडितों के मुताबिक इस साल अप्रैल से जुलाई तक विवाह के कुल 37 मुहूर्त हैं, जिसमें से अप्रैल, मई तो खाली चले गए। जून में कुछ जयमालाएं डलेंगी, लेकिन वो भी चुपके-चुपके, कोविड प्रोटोकाॅल के साथ।
अब तो कोविड की तीसरी लहर को लेकर भय का नया माहौल बन रहा है। वो कब आएगी, किस तेवर से आएगी, यह कोई ठीक से नहीं बता पा रहा। नतीजा यह है कि दिवाली बाद शादियों के प्लान भी ठीक से नहीं बन पा रहे। जो शादियां गर्मियों में होनी थी, वो रद्द होने से शादी कारोबार से जुड़े लोगों के मन में आस की जो क्षणिक शहनाई गूंजने लगी थी, वह फिर खामोश हो गई हैं। सबसे ज्यादा मुसीबत में वो लोग फंसे हैं, जो सभी आयोजनों की प्री-बुकिंग कर चुके थे और अब कार्यक्रम रद्द होने या टलने के बाद अपना पैसा भी वापस नहीं ले पा रहे हैं। इस तरह करोड़ों रूपया लोगों का फंस गया है।
सरकार और प्रशासन को इस पर गंभीरता से ध्यान देने और समुचित कार्रवाई करने की जरूरत है। ज्योतिषियों के मुताबिक इस साल विवाह मुहूर्त वैसे ही तुलनात्मक रूप से कम हैं। ऐसे में आर्थिक हेराफेरी भी हुई तो शादी वाले परिवारों और खासकर लड़कीवालों का तो मरण ही है। इससे हटकर देखें तो कोविड के कारण देश में शादियों के कई नवाचार भी देखने को मिल रहे हैं। मसलन रस्मों को कायम रखते हुए मेहमानों की संख्या को घटाना, शादी में परिजनों परिचितों की ऑन लाइन भागीदारी, वीडियो काॅल पर बधाइयां, सीमित बजट में ही शादी करना, चुनिंदा मेहमानों के बीच डेस्टिनेशन वेडिंग, चंद साक्षियों की मौजूदगी में रजिस्टर्ड मैरेज करना आदि। लेकिन यह सब हालात से समझौता ज्यादा है।
वैसे भारतीय शादियों की धमक और चमक पूरी दुनिया में है। संस्कारों के कारण भी और धूम धड़ाके तथा मौज मस्ती के कारण भी। हम शादियां आयोजित ही नहीं करते, उसे एक उत्सव के रूप में भरपूर जीते भी हैं। लाख बुराइयों के बाद शादी अनुष्ठान हम भारतीयों की खूबी और पहचान है। यह हमारे पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों का सर्वमान्य और बहुप्रतीिक्षित रिफ्रेशर है। कोविड की मार से इसकी रंगत और मस्ती खत्म नहीं होनी चाहिए। क्योंकि शादी की आत्मा तो खुशियों और मौज मस्ती के साथ दो जिंदगियों के गृहस्थ जीवन में एक साथ कदम रखने में बसती है, जहां अरमानों का सेहरा जीवन की पथरीली चुनौतियों को बड़ी खूबसूरती से ढंक लेता है। मशहूर अमेरिकी लेखक विलियम लाॅयन फेल्प्स ने कहा था ‘ पृथ्वी पर सबसे बड़ा आनंद विवाह का आनंद है।‘ कोविड ने मानो यह सर्वोच्च आनंद ही हम से छीन लिया है। लेकिन यकीन मानिए कि शहनाई के सुर इतने कमजोर नहीं होते। वो फिर गूंजेंगे, माहौल बनाए रखिए।