1999 से लेकर 2008 तक भाजपा और आरएसएस द्वारा कोई भी आंदोलन स़िर्फ इसलिए नहीं किया गया कि उसे आशा थी कि जनता उसे हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण के  राष्ट्रीय मुद्दे पर शासन-सत्ता पुन: सौंप देगी. लेकिन जनता उनके  छलिया आश्वासनों को समझकर उनकी नीतियों को पूरी तहर चकनाचूर कर उन्हें सत्ता के  नज़दीक  भी नहीं फटकने दिया.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक बार फिर अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि निर्माण मुद्दे को गरमाना चाहती है. अपनी खोती जा रही राजनैतिक पकड़ को मज़बूत करने के लिए वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के ज़रिए 16 मार्च 2010 से इस दिशा में नई पहल शुरू  करने की कोशिश में है. भाजपा की मंशा को देख संघ भी एक बार फिर  अपने स्वयंसेवकों के  साथ शंखनाद करके  पूरे देश की राजनीति में अफरा-तफरी मचाने को तैयारी में है. मंदिर निर्माण के  लिए 16 मार्च से 16 मई के  बीच हरिद्वार में कुंभ मेले के  दौरान निर्माण से जुड़े संगठन व संत कार्यशाला में रखी गई शिलाओं पर लग रही काई को साफ कराने तथा उन शिलाओं को विवादित परिसर के  नज़दीक ले जाने की तैयारी करेंगे.
हरिद्वार कुंभ मेले में संत यह भी तय करेंगे कि लखनऊ से अयोध्या तक वे पैदल चल कर जाएं और कारसेवकपुरम से राम जन्मभूमि के  क़रीब तक शिलाओं को उठाकर ले जाएं. रामजन्म भूमि न्यास से जुड़े पूर्व सांसद डॉ. राम विलास वेदांती ने एक विशेष बातचीत में बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली सरकार के  समय एनडीए के घटक दल नहीं चाहते थे कि मंदिर निर्माण हो. यदि भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार होती तो अब तक मंदिर बन चुका होता.
1999 से लेकर 2008 तक भाजपा और आरएसएस द्वारा कोई भी आंदोलन स़िर्फ इसलिए नहीं किया गया कि उसे आशा थी कि जनता उसे हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण के  राष्ट्रीय मुद्दे पर शासन-सत्ता पुन: सौंप देगी. लेकिन जनता उनके  छलिया आश्वासनों को समझकर उनकी नीतियों को पूरी तहर चकनाचूर कर उन्हें सत्ता के  नज़दीक  भी नहीं फटकने दिया. ऐसे में सत्तालोलुप भाजपाइयों ने एक बार फिर हिंदुत्व की रक्षा और राम मंदिर निर्माण के  लिए कुचक्र रचने में जुट गए हैं. स़िर्फ इस मक़सद से कि पार्टी की डूबती को बचाया जा सके. इसके लिए उसने  आरएसएस और संतों को फिर हथियार बना डाला है. इसी उद्देश्य की ख़ातिर अभी हाल में ही आठ अगस्त को अयोध्या स्थित राम सुंदर धाम राजकोट में विहीप सुप्रीमो अशोक सिंघल, मणिराम छावनी महंत ज्ञानदास, धर्मदास, बड़ा भक्तमाला महंत कौशल किशोर दास, दिगंबर अखाड़ा के महंत सुरेश दास, डॉ. राम विलास वेदांती, महंत जगदेव दास, महंत कन्हैया दास आदि ने बैठक की. इसमें हिंदुत्व की बुझी आग को  फिर जलाने का फैसला किया गया.
श्री वेदांती ने बताया कि तीन मंज़िल तक बनने वाले जन्मभूमि मंदिर की दो मंज़िल तक के  पत्थर तराशे जा चुके  हैं. एक मंज़िल बाक़ी है जो निर्माण के समय ही पूरा कर लिया जाएगा. अभी आंदोलन की पूरी रूपरेखा कुंभ मेले में तय होनी है. संत यह भी तय करेंगे कि जिन शिलाओं का पूजन देश-विदेश में हुआ था, उन शिलाओं को विहिप से जुड़े संत राम जन्मभूमि के अत्यंत नज़दीक तक अपने सिर पर रख कर ले जाएं और वहां रखें. सवाल है कि क्या इस बार के कुंभ मेले में कारसेवकों के बिना ही संत कोई इतना बड़ा निर्णय लेने में कामयाब होंगे? ख़ास कर यह देखते हुए कि इस समय केंद्र में जहां कांग्रेस की अगुआई में मनमोहन सिंह की सरकार है, वहीं उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा की सरकार है. क्या मायावती सरकार इस बार भगवा ब्रिगेड को प्रदेश में घुसने की इजाज़त देगी, जबकि पूर्व में केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होते हुए भी एक लाख संतों ने कभी पैदल मार्च नहीं किया और न ही मंदिर निर्माण की सुधि आई. उस समय तो भाजपा के  सांसद लोकसभा में बैठकर सत्तासुख भोगने में ही लगे रहे. और तो और, साधु-संन्यासी भी भाजपा के पूरे पांच साल के  शासनकाल में मंदिर मुद्दे को लेकर न तो कोई प्रचार किया और न ही कोई आंदोलन चलाया. उस समय केवल एक ही आंदोलन ख़ूब फला-फूला, वह यह कि पूरे भारत में राम मंदिर निर्माण को लेकर कई समितियां बरसाती मेढ़क की तरह पैदा हो गईं. उन समितियों ने जनता के बीच हिंदुत्व की रक्षा और राम मंदिर निर्माण के नाम पर ख़ूब धन बटोर गईं. इस सवाल के  जवाब में श्री वेदांती ने माना कि अयोध्या में राम जन्मभूमि न्यास, मंदिर निर्माण की रसीद छपवा कर विभिन्न भाषाओं में लगभग 20 हज़ार ़फर्ज़ी साधु देश में घूम-घूम कर चंदा जमा करके  भोग-विलास में जुटे हुए हैं. जबकि इनका मंदिर निर्माण से कोई संबंध नहीं है. मंदिर निर्माण के  लिए स़िर्फ राम जन्मभूमि न्यास ज़िम्मेवार है, जिसके  अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास हैं. बाक़ी अन्य जितने भी संगठन हैं, वे स़िर्फ कमाने- खाने के  लिए बनाए गए हैं, जिन्होंने संतों की गरिमा घटाई है और राम जन्मभूमि आंदोलन व अयोध्या की छवि को धूमिल किया है. इन्हीं नक़ली साधुओं के चलते असली साधुओं की भी निंदा होने लगी है. लोग दिगभ्रमित हो रहे हैं कि भगवान की जन्मभूमि बनाने के लिए किस-किस संत संगठन को सही माना जाए ग़ौरतलब है कि 1990 से पूरे शबाब में राम मंदिर निर्माण का जो आंदोलन पूरे देश में चला, उससे प्रभावित होते हुए विदेशों में रहने वाले करोड़पतियों ने भारी धनराशि राम मंदिर निर्माण के लिए दान स्वरूप दिया. अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे को तोड़ने के बाद मंदिर निर्माण के लिए उपयोग में आने वाली ईंटों तथा प्रस्तावित ढांचे को तरासने का काम युद्धस्तर पर शुरू कर दिया गया. इसका संरक्षण केवल अयोध्या के साधु-संन्यासियों के हाथों में रहा. पूरे देश में इसका इतना प्रचार-प्रसार किया गया कि जनता ने हिंदुत्व की रक्षा के  लिए भाजपा की सरकार बनवा डाली. लेकिन सरकार बनने के  बाद भाजपा को आख़िरकार अपनी सरकार चलाने में ही मज़ा आया और राम मंदिर की बात उसने जिस किताब में लिखकर रखी थी, उस अध्याय को ही पूरी तरह से बंद कर दिया. यह बात देश की जनता को इतनी बुरी लगी कि उसने भगवाधारी खेमे को एक सिरे से नकार दिया और सत्ता परिवर्तन करके  भाजपा को ज़मीन पर ला पटका. सत्ता जाने के  बाद पार्टी में विचार मंथन शुरू हुआ तो एक नया शगूफा छोड़ा गया. कहा गया कि जब-जब मंदिर निर्माण की बात पर बल दिया गया, एनडीए के घटक दल तब-तब विरोध करने लगे. यही वजह है कि निर्माण नहीं हो सका. लेकिन इस बात को जनता ने स्वीकार नहीं किया और सत्ता परिवर्तन करके  देश से सांप्रदायिकता को अलग-थलग कर दिया. बहरहाल, अयोध्या में कारसेवक पुरम स्थित कार्यशाला में जो वास्तु शिल्पें तैयार रखी गई ह
ैं, उन पर काई जम गई हैं. अयोध्या में निरंतर देश-विदेश से आने वाले पर्यटक जिज्ञासावश मंदिर निर्माण में लगने वाले तराशे गए पत्थरों को देखने के  लिए जब कार्यशाला में जाते हैं तो दंग रह जाते हैं. पयर्र्टक जब राम मंदिर निर्माण कार्यशाला में ताराशे गए शिल्पों को देखने जाते हैं, तो हिंदुत्व और राजनीति के बीच 1990 में निरीह बलिदानियों के  ख़ूनों से सनी हक़ीक़त सामने आ जाती है. अब तो इस देश की जनता भी भली-भांति समझ चुकी है कि भाजपा और अन्य हिंदुत्व संगठन चाह कर भी राम मंदिर का निर्माण नहीं कराएंगे. इसलिए कि राम मंदिर मुद्दा ही उनका राजनीतिक जीवन और जीविकोपार्जन है. यदि राम मंदिर सचमुच बन गया तो भाजपा की राजनीति ही पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगी.

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