भारत के सामने हमेशा चुनौती रही है कि हमने कमीशन के चक्कर में, खासकर राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक तंत्र ने हमेशा बाहर से सामान खरीदा और उसमें जमकर कमीशन खाया. पहले सेना एक पवित्र गाय की तरह देखी जाती थी, लेकिन अब सेना के भीतर भ्रष्टाचार की खबरें बहुत ज़्यादा बाहर आनी शुरू हो गई हैं. पिछले दस सालों से ऐसा हो रहा है, तब हमें पता चल रहा कि सेना में किस स्तर तक घूसखोरी है और सेना की ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग ही सेना को खोखला करने में लगे हुए हैं. इसलिए आवश्यक यह है कि श्री मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री की मानसिकता से ऊपर उठें और देश के रक्षा मंत्री की तरह संयत व्यवहार करें, देश की सेनाओं को मजबूत करें, देश के सैनिकों में उत्साह भरें और अफसरों की कमी की वजह से जिस सेना को कमांड करने वाली टीम न हो, उस टीम को कैसे पूरा किया जाए, इसके बारे में सोचें.
देश में सरकार चलाने वाले नेता अभी तक देश चलाने के मूड में नहीं आ पाए हैं. इस सरकार में तीन भूतपूर्व मुख्यमंत्री हैं. एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और दूसरे भूतपूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह हैं और तीसरे मनोहर पर्रिकर हैं, जो गोवा के मुख्यमंत्री रहे हैं. यह अलग बात है कि गोवा एक बड़ा राज्य नहीं है और वहां का काम संभालते-संभालते उन्हें देश के रक्षा मंत्री का काम उनके साथी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें दे दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी शासन चलाने की कला में मुख्यमंत्री के मनोविज्ञान से धीरे-धीरे उबर रहे हैं. मुख्यमंत्री के लिए प्रदेश हथेलियों जैसा होता है, जिसमें 30, 40, 50, 60, 70, 80 ज़िले होते हैं, छोटा दायरा होता है. तीन करोड़, छह करोड़, सात करोड़, आठ करोड़ जैसी आबादी होती है और ज़्यादातर लोगों को वे नाम से जानते हैं तथा प्रदेश का शासन आसानी से चला लेते हैं. किसी भी घटित-अघटित स्थिति में वे मौक़े पर भी पहुंच सकते हैं. पर जब सवाल देश का हो, तो 125 करोड़ की आबादी वाले देश में लगभग 29 राज्य प्रधानमंत्री को मिलते हैं और हालात ऐसे होते हैं कि वह चाहे, तो भी हर जगह नहीं जा सकता. इसके लिए उसे किसी भी तरह की शासन प्रणाली विकसित करनी होती है. भारत जैसे देश में 65 सालों के अनुभव के बाद एक शासन प्रणाली का विकास हुआ.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शासन प्रणाली के चक्र को बदला है. उन्होंने मंत्रिमंडल अवश्य बनाया और मंत्रियों को राजनीतिक ज़िम्मेदारी भी दी, लेकिन साथ ही साथ उन्होंने बड़ा ऐलान कर दिया कि मंत्रालयों के सचिव उनसे सीधे संपर्क रखें और उन्हें सीधे रिपोर्ट दें. उन्हें निर्देश भी सीधे ही मिलेंगे, यह इसका अनकहा हिस्सा है. नतीजे के तौर पर इस समय देश में राजनीतिक ज़िम्मेदारी नहीं है, नौकरशाही वाली ज़िम्मेदारी है. राजनीतिक ज़िम्मेदारी का और नौकरशाही की ज़िम्मेदारी का सबसे बड़ा फर्क़ यह होता है कि किसी भी स्थिति में, जिसमें लोगों का ऩुकसान हो, लोगों को दु:ख पहुंचे या प्रशासनिक असफलता सामने आए, तब मंत्री अपने ऊपर ज़िम्मेदारी लेकर त्याग-पत्र दे देता है. लाल बहादुर शास्त्री जी ने ऐसा ही किया था. लेकिन, जब ज़िम्मेदारी ब्यूरोक्रेट्स की हो, तो सिवाय इसके कि उस बड़े ब्यूरोक्रेट या नौकरशाह, जो सचिव स्तर पर होता है, का तबादला कर दिया जाए. और कोई सजा उसे नहीं दी जा सकती. सचिव की ज़िम्मेदारी भी तय नहीं है, जबकि राजनेता की ज़िम्मेदारी परंपरागत और अलिखित रूप से तय होती है. इसलिए सारे देश में शासन चलाने वाले नौकरशाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदेशों का पालन नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने पालन कर दिया या क़दम आगे बढ़ाया और कहीं कोई ऊंच-नीच हो गई, तो उनके ख़िला़फ जांच बैठ सकती है और उनकी पदोन्नति पर इसका असर पड़ सकता है. इसलिए वे कोई भी ़फैसला नहीं ले रहे हैं और इस ़फैसला न लेने की कला का वे सीना तान कर समर्थन भी कर रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की हवा निकालने या उस अभियान की हत्या करने का ज़िम्मा अगर किसी के ऊपर जाता है, तो देश के नौकरशाहों पर जाता है. और, यह एक उदाहरण है कि कैसे नौकरशाही एक अच्छी योजना को लागू नहीं करती.
दूसरा उदाहरण रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का है. रक्षा मंत्री आजकल जब बोलते हैं, तो सिवाय हंसी उड़ाने के कुछ नहीं बोलते. पिछले रक्षा मंत्री चाहे वे सफल रहे हों या असफल, उन्होंने राजनीतिक शब्दावली का कभी प्रयोग नहीं किया और मीडिया के साथ उनका इंट्रैक्शन कम से कम होता था. सेनाएं अपना काम करती थीं. रक्षा मंत्री उनका जवाब या किसी भी आरोप का जवाब, चाहे वे अंदर से लगाए गए हों या बाहर से, नहीं देता था. क्योंकि, अपेक्षा की जाती है कि रक्षा मंत्री का काम देश को बाहरी दुश्मनों से बचाना है और यह बचाव प्रेस के ज़रिये भाषण देकर नहीं होता है. इसके लिए सेनाओं को मजबूत करना होता है. रक्षा मंत्री शेख चिल्ली की तरह बयान दाग रहे हैं और वह अभी भी एक छोटे राज्य के मुख्यमंत्री की मानसिकता से नहीं उबर पाए हैं. उन्हें लगता है कि जिस तरह गोवा में उनकी तारी़फ होती थी और उस तारी़फ का कारण उनका हाफ पैंट पहन कर सब्जी खरीदना होता था या हाफ पैंट पहन कर गोवा में कहीं खड़े होकर कॉफी पीना होता था, वैसी तारी़फ उन्हें यहां भी मिलेगी. लेकिन, अगर वह यही सारे काम दिल्ली में करना चाहें या उस मानसिकता की वजह से दिल्ली में तारी़फ पाना चाहें, तो यह असंभव है, क्योंकि दिल्ली या देश को एक ऐसा रक्षा मंत्री चाहिए, जो अपनी सेनाओं को इतना मजबूत करे कि दुश्मन उसकी खुफिया जानकारी पाते ही परेशान हो जाए. दुर्भाग्य की बात यह है कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर देश की सेनाओं को बदहाली से नहीं उबार पा रहे हैं.
वह स़िर्फ यह कहते घूम रहे हैं कि हमने यूपीए की डील रद्द कर दी और हम 36 राफेल विमान खरीद रहे हैं. ऐसे में, सवाल यह उठता है कि जिस विमान को दुनिया भर ने ठुकरा दिया हो और जो कंपनी बंद हो गई हो, उस कंपनी को 36 विमानों का ऑर्डर देकर आपने दोबारा ज़िंदा कर दिया. लेकिन, आपने उस कंपनी के ऊपर यह दबाव नहीं डाला कि वह टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करे और विमानों का निर्माण हिंदुुस्तान में करे. उसी तरह पाकिस्तान को लगभग तीन बार मनोहर पर्रिकर धमकी दे चुके हैं और वह धमकी ऐसी कि जिसे सुनकर सेना के अफसर भी हंस देते हैं. क्या रक्षा मंत्री को यह पता है कि हमारे पास कितने दिनों तक लड़ने का गोला-बारूद है? क्या रक्षा मंत्री को यह पता है कि जो जानकारियां उनके पास नहीं हैं, वे जानकारियां हमारे दुश्मनों के पास हैं? और, वे दुश्मन भी उनके बयान को सुनकर हंस लेते होंगे. जिस सेना की जिस कमज़ोरी की बात क्लासीफाइड फाइल्स में नहीं है, वह सारी जानकारी ़खतरनाक है और वह हमारे दुश्मनों के पास है. पर रक्षा मंत्री को अपना और देश का मज़ाक उड़वाने से कोई गुरेज नहीं. होता यह कि वह सेना को मजबूत करने की बात करते. जिस टेक्नोलॉजी को सेना पसंद करती है, उसे हिंदुस्तान में लाकर यहां इंडियनाइज वेपन या भारतीय शोध के ऊपर आधारित हथियार बनवाते और अपनी सेना को दुनिया के म़ुकाबले खड़ा करने की बात करते, पर ऐसा उन्होंने कुछ नहीं किया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शासन प्रणाली के चक्र को बदला है. उन्होंने मंत्रिमंडल अवश्य बनाया और मंत्रियों को राजनीतिक ज़िम्मेदारी भी दी, लेकिन साथ ही साथ उन्होंने बड़ा ऐलान कर दिया कि मंत्रालयों के सचिव उनसे सीधे संपर्क रखें और उन्हें सीधे रिपोर्ट दें. उन्हें निर्देश भी सीधे ही मिलेंगे, यह इसका अनकहा हिस्सा है. नतीजे के तौर पर इस समय देश में राजनीतिक ज़िम्मेदारी नहीं है, नौकरशाही वाली ज़िम्मेदारी है.
भारत के सामने हमेशा चुनौती रही है कि हमने कमीशन के चक्कर में, खासकर राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक तंत्र ने हमेशा बाहर से सामान खरीदा और उसमें जमकर कमीशन खाया. पहले सेना एक पवित्र गाय की तरह देखी जाती थी, लेकिन अब सेना के भीतर भ्रष्टाचार की खबरें बहुत ज़्यादा बाहर आनी शुरू हो गई हैं. पिछले दस सालों से ऐसा हो रहा है, तब हमें पता चल रहा कि सेना में किस स्तर तक घूसखोरी है और सेना की ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग ही सेना को खोखला करने में लगे हुए हैं. इसलिए आवश्यक यह है कि श्री मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री की मानसिकता से ऊपर उठें और देश के रक्षा मंत्री की तरह संयत व्यवहार करें, देश की सेनाओं को मजबूत करें, देश के सैनिकों में उत्साह भरें और अफसरों की कमी की वजह से जिस सेना को कमांड करने वाली टीम न हो, उस टीम को कैसे पूरा किया जाए, इसके बारे में सोचें. मुझे लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो मुख्यमंत्री की मानसिकता से ऊपर आ रहे हैं, लेकिन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर अभी उसी मानसिकता में कैद हैं, जहां पर धमकियां देना बहुत बड़ी वीरता का लक्षण माना जाता है.
मैंने भारत के कई प्रधानमंत्रियों के मंत्रिमंडल के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. मैंने पाया कि पहले के प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल में उन्हीं मुख्यमंत्रियों को लेते थे, जिन्हें लेना अति आवश्यक हो जाता था. अन्यथा वे मुख्यमंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेते थे. शायद इसका सीधा कारण यही होगा कि मुख्यमंत्री राज्य की मानसिकता से देश की मानसिकता में ढलने में काफी वक्त ले लेते हैं. उनका एक तरह का मनोविज्ञान हो जाता है, एक तरह की समझ हो जाती है. देवेगौड़ा जी और वीपी सिंह को छोड़ दें, तो कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जो कभी मुख्यमंत्री रहा हो. तीसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. नरेंद्र मोदी जी के सामने यह अवसर है कि जिस जनता ने उन्हें विशाल बहुमत की भेंट दी, उस जनता की भावनाओं का न केवल वह ख्याल रखें, बल्कि उन मुद्दों के ऊपर अपनी उंगली रखें, जो मुद्दे सचमुच मुद्दे हैं. वे मुद्दे, जिनका रिश्ता पेट से हो, रोजी-रोटी से हो, भ्रष्टाचार से हो और विकास से हो, न कि भावनात्मक मुद्दे. हालांकि यह मुश्किल है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी का मौजूदा ढांचा नरेंद्र मोदी को ताकत भी दे सकता है और उन्हें कमज़ोर भी कर सकता है. मुझे लगता है कि भारत के रक्षा मंत्री को राजनीतिक तौर पर थोड़ा और परिपक्व होना चाहिए और उस परिपक्वता को बढ़ाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी मदद करनी चाहिए.