अखिलेंद्र प्रताप सिंह का विश्लेषण भी क्या गजब का होता है। इस हफ्ते उन्होंने ‘गैट’ और WTO पर बात करते हुए बताया कि कहां कैसे सारा खेल हुआ कृषि पर। हम सब जानते हैं मनमोहन सिंह किसी जमाने में ‘वर्ल्ड बैंक’ के मुलाजिम थे। इस नाते उनकी क्या क्या मजबूरियां थीं। सवाल यह भी था कि भूमण्डलीकरण या उदारीकरण की दुनिया की दौड़ में भारत को भी शामिल होना था या नहीं। बाजारीकरण का रास्ता खोल कर मनमोहन सिंह ने भारत के साथ कितना न्याय किया।

भारत की अपनी अस्मिता का सवाल जो तब था वह आज भी वैसे ही बना हुआ है। अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने सही कहा कि मंत्रियों का यह राग कि हम WTO की शर्तों से बंधे हुए हैं। एक बेईमानी है। सच यह है कि हमें WTO की शर्तों पर पुनर्मूल्यांकन करके अपने देश के हितों के अनुसार उनसे फिर से बात करनी चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि पहले ‘गैट’ आदि में केवल व्यापार ही शामिल था, कृषि श्रेत्र को इससे अलग रखा गया था। बाद में साजिशन अमरीका और यूरोप के देशों के दबाव में इसमें कृषि को शामिल किया गया। मनमोहन सिंह ने इस सबको होने दिया।वे सब कुछ देख और जान रहे थे।

‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अखिलेंद्र जी का पूरा वीडियो उपलब्ध है। संतोष भारतीय जी की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वे मेहमान को खेलने का भरपूर मौका देते हैं। वे सवाल छोड़ कर शांत हो जाते हैं। और अखिलेंद्र जी खुल कर बैटिंग करते हैं। यह शैली लोगों के लिए पसंदीदा है। वाहियात चैनलों में एंकर की टोकाटाकी से जो परेशान हैं उनके लिए ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अभय कुमार दुबे और अरविंद मोहन के सुनने लायक वीडियो भी उपलब्ध हैं। उदारीकरण की बात तब की है जब मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री थे। 2014 से पहले दस साल मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे।

नरेंद्र मोदी ने बड़ी बारीकी से सब देखा। लेकिन हैरानी की बात यह है कि मोदी को देख कर आप साफ साफ यह नहीं बता सकते कि वे 2014 से पहले सिर के बल खड़े थे या आज सिर के बल खड़े हैं। इसीलिए उन्हें झूठ का व्यापारी भी कहा जा सकता है। मनमोहन सिंह की जिन नीतियों की मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले धज्जियां उड़ायींं आज वे उन्हीं नीतियों पर चल ही नहीं रहे बल्कि बड़ी फूहड़ता के साथ दौड़ रहे हैं। वजह मोदी अपनी छवि से बंधे होने के साथ साथ कारपोरेट और अंतरराष्ट्रीय व्यापार जगत के मोहताज बन कर रहे गये हैं।

यहां तक कि आज कृषि के तीनों कानूनों पर भी मोदी का खुद का बस नहीं। लेकिन जैसे कि अखिलेंद्र जी ने कहा यह सरकार चाहे तो उसे एक बार फिर से WTO से उसकी शर्तों पर बात करनी चाहिए। सवाल देश और उसकी अस्मिता का है। पर क्या इतनी कूव्वत, इच्छाशक्ति और सच्चा देशप्रेम है मोदी के अंदर। शक है। यह सरकार जितना ध्वंस और षड़यंत्र में विश्वास रखती है उतना निर्माण और सीधी सच्ची चाल में नहीं। इसे आप 2014 से पहले के मोदी और 2014 के बाद के मोदी में देख सकते हैं। मोदी अपनी चालाकियों से ज्यादा इसलिए जीत रहे हैं कि कांग्रेस ध्वस्त हो चुकी है।

अखिलेंद्र जी ने कहा और दूसरे भी कई लोग कहते हैं कि राहुल गांधी अकेले ऐसे नेता हैं जो मोदी को सीधे जवाब दे रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या राहुल गांधी के ट्वीट्स और प्रेस कॉन्फ्रेंस कांग्रेस की अंदरूनी कलह को खत्म कर सकते हैं, क्या एक नयी कांग्रेस इनसे खड़ी की जा सकती है, क्या इतने भर से राहुल गांधी देश के सर्वमान्य नेता हो सकते हैं और क्या कांग्रेस मोदी सरकार के बरक्स उतनी मजबूत होकर खड़ी हो सकती है। सच यह है कि राहुल गांधी मुगालते हैं। उनमें आत्मविश्वास और पुरुषार्थ की कमी लगती है। निर्णय लेने की ना समझ है न ताकत। समय तेजी से निकल रहा है और देश तबाह हो रहा है। भला हो किसान आंदोलन का जिसने कम से कम ऐसे खतरनाक समय में अपने वजूद से एक आस तो बंधाई है। वरना पूरा विपक्ष निढाल पड़ा है।

किसान आंदोलन को खतम करने और उसे बदनाम करने की साजिशें आज भी बाकायदा सरकार और गोदी मीडिया की तरफ से चल रही हैं। लेकिन किसान न हताश हैं, न निराश हैं। बल्कि उन्होंने जिस तरह कड़कड़ाती सर्दियों को झेला उसी तरह अब वे आने वाली भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए तैयारी कर रहे हैं। उनके हौसले कमजोर नहीं पड़े हैं। किसान आंदोलन से एक राष्ट्रीय सरकार का सपना देखा जा सकता है। इस ओर भी अखिलेंद्र जी ने इशारा किया है।

पिछले दिनों किसान आंदोलन में अपनी कवरेज को लेकर पत्रकार अजीत अंजुम ने ‘यू ट्यूब’ की ओर से एक खिताब अर्जित किया। कुछ ने उनकी खुल कर तारीफ की, कुछ ने दबी जुबान से और कुछ ऐसे भी रहे होंगे जिन्हें यह सब तारीफ पसंद नहीं आयी होगी। चर्चाओं में कुछ ऐसी बातें भी सामने आयीं। यानि विवाद के कुछ पहलू भी थे। संतोष भारतीय जैसे कुछ ऐसे लोगों को भी ‘स्टार जर्नलिस्ट’ बता देते हैं जो ज्यादातर किन्हीं कंदराओं में रहे और कभी कभी चमके। वैसे ही अजीत अंजुम को कोई ‘स्टार जर्नलिस्ट’ कहे तो रवीश कुमार को फिर क्या कहा जाएगा।

प्रवासी मजदूरों की रवानगी का वक्त हो या किसान आंदोलन का, जो पत्रकार भी पूरी लगन से रिपोर्टिंग करता तो वह चमकता। किसान आंदोलन की निरंतरता ने अंजुम को जगह दी, चमकाया। रिपोर्टिंग ऐसी कला है जिसमें एक बार आप स्वीकृत हो गये तो आप धाक जमा सकते हैं। आज इस सरकार के खिलाफ जो माहौल बना है उसमें रवीश कुमार की रिपोर्टिंग और प्राइम टाइम का कितना हाथ है इससे कौन ना वाकिफ होगा। सवाल सिर्फ रिपोर्टिंग का नहीं, सबसे बड़ा सवाल आपके स्वभाव, ‘कंसिसटैंसी’ और आपकी डिलीवरी का होता है। कंटेंट आप क्या और कैसे डिलीवर करते हैं। अजीत अंजुम ने जो किया वह दर्शकों की संख्या का चस्का था, इसलिए बेहतरीन काम भी हुआ और आज तो वे किसान आंदोलन के पूरक बन गये हैं। संभव है किसान ही आगे चल कर उन्हें ‘रुस्तम ए हिंद’ की उपाधि से नवाज दें। हमारी शुभकामनाएं !!

पिछले हफ्ते आरफा खानम शेरवानी के तीन शानदार वीडियो देखे। दिल्ली दंगों के एक साल बाद, सफूरा जरगर से बातचीत और टिकरी बार्डर पर महिला दिवस पर किसान महिलाओं से बातचीत। तीनों दमदार प्रस्तुतियां रहीं। नयी महिला पत्रकारों को सफूरा जरगर वाली बातचीत जरूर देखनी चाहिए। किसान महिलाओं की एक बात बड़ी रोचक रही कि उन्होंने पहली बार जाना कि महिला दिवस भी कुछ होता है और वह भी हमारे हकों के लिए। इस नाते यह किसान आंदोलन के लिए भी बड़ी उपलब्धि रही। इस बार उर्मिलेश जी का ‘मीडिया बोल’ भी बड़ा दमदार रहा। आलोक जोशी और अजय आशीर्वाद के साथ। पुण्य प्रसून वाजपेयी के भी इधर के कुछ वीडियो रोचक थे। वाजपेयी के आंकड़े, उनके ‘सच’, और उनके ‘सिरे’ उलझन पैदा करते हैं। कोई सिरा लेकर किसी सिरे पर फिर अचानक नये सिरे पर … आंकड़े दुरुस्त होंगे पर श्रोता एकाएक नहीं जुड़ पाता। जहां ‘सच’ न हो केवल विश्लेषण हो वहां जुड़ाव होता है। जैसे पिछले दो तीन वीडियो ऐसे थे जिनसे लोग जुड़े और उन्हें पूरा देखा गया।

लेखक और चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘कौन हैं भारत माता’ पर प्रख्यात गीतकार और लेखक जावेद अख्तर ने पुरुषोत्तम जी से बातचीत की। अच्छी और रोचक बातचीत रही। लेकिन जावेद अख्तर ने नेहरू के ‘सेक्यूलरिझम’ पर मुस्लिम बिरादरी को लेकर कुछ सवाल उठाए। जवाब में पुरुषोत्तम जी को मानना पड़ा कि नेहरू जी से भी कुछ ‘ब्लंडर’ हुए। इन पर भी खुल कर चर्चा होती तो बेहतर होता।

‘सत्य हिंदी’ पर चर्चाएं जारी हैं। लेकिन विजय त्रिवेदी शो में जो हमेशा किसी जाने माने चेहरे के साथ बातचीत की जाती थी, उसमें दो तीन हफ्तों से निराशा हो रही है। कारण, वही चेहरे दिखाई पड़ रहे हैं जो बाकी सारी चर्चाओं में रहते हैं। यही ‘सत्य हिंदी’ की बोरियत है। मैं अक्सर लोगों की राय के आधार पर बात करता हूं। और लोग अलग अलग टापिक पर एक से ही चेहरों को देखकर बोर होते हैं। भाई आशुतोष देखें और समझें।

बसंत पांडे

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