यूपीए के दस सालों में देश ने इतिहास के सबसे बड़े घोटालों को देखा. अरबों-खरबों का घोटाला करने वाली सरकार ने अनैतिक काम भी किए. संवैधानिक संस्थाओं का मजाक बनाया, साथ ही वह संवैधानिक संस्थाओं में नियुक्ति को लेकर भी विवादों में रही. सारी अनैतिकता और घोटालों के बावजूद यह लगता था कि स़िर्फ न्यायपालिका कांग्रेस के दानवी पंजे से बच गई. लेकिन, जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने एक ऐसा खुलासा किया है, जिससे भारतीय प्रजातंत्र शर्मसार हुआ और साथ ही कांग्रेस पार्टी के ईमानदारी के मुखौटे मनमोहन सिंह बेनकाब हो गए.
जिस तरह ख़तरनाक आंधी या भूकंप के बाद महामारी फैलती है, उसी तरह भारत की राजनीति में चुनाव के बाद महामारी का दौर है. ऐतिहासिक हार का मुंह देखने वाली कांग्रेस पार्टी में विद्रोह का माहौल बन रहा है. कई लोग अपना हिसाब बराबर करने में लगे हैं. जिसे भी मौक़ा मिल रहा है, वह गड़े मुर्दे उखाड़ रहा है. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू और फिर कोयला सचिव के सी पारेख की कोयला घोटाले पर किताबें आईं, तो मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की कलई खुल गई. भूतपूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की भी एक किताब बाज़ार में आने वाली है. यह ख़बर सुनते ही सोनिया गांधी एवं प्रियंका उनके घर पहुंचीं और उन्होंने नटवर सिंह को पुराने रिश्तों की दुहाई देकर किताब प्रकाशित न कराने की गुज़ारिश की. अब जब नटवर सिंह की किताब आएगी, तो कुछ और नए खुलासे होंगे. लेकिन फ़िलहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन एवं रिटायर्ड जज काटजू के खुलासे से कांग्रेस की किरकिरी हो गई.
यह बात 2005 की है. मद्रास हाईकोर्ट में एक जज की नियुक्ति का मामला उलझ गया. जज साहब पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. काटजू हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे. उनसे कई लोगों ने शिकायत की. न्यायालय की गरिमा को ठेस न लगे, इसलिए उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस लाहौटी को फोन करके यह बताया कि जस्टिस अशोक कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इसलिए बेहतर यह होगा कि आईबी से उनकी एक खुफिया जांच करा ली जाए. जस्टिस लाहौटी ने आईबी से जस्टिस अशोक कुमार की जांच कराई और आईबी की जांच रिपोर्ट जस्टिस अशोक कुमार के ख़िलाफ़ आई. जजों का चुनाव करने वाले कॉलेजियम में यह राय बनी कि वह (अशोक कुमार) अब हाईकोर्ट में जज नहीं बन सकते. कॉलेजियम ने अपनी यह राय केंद्र सरकार को भेज दी.
इसके बाद पता चला कि जस्टिस अशोक कुमार के लिए डीएमके ने मोर्चा खोल दिया और यह चेतावनी दी कि अगर उनकी नियुक्ति न हुई, तो डीएमके केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लेगा. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न्यूयॉर्क जा रहे थे और उन्हें डीएमके की इस धमकी का पता एयरपोर्ट पर चला. मनमोहन सिंह चिंतित हो उठे. उन्हें लगा कि अब क्या होगा. उनके साथ यूपीए के एक मंत्री भी थे. उन्होंने यह आश्वासन दिया कि वह सब कुछ मैनेज कर देंगे. खुलासे के बाद पता चला कि वह मंत्री कोई और नहीं, बल्कि यूपीए-1 के विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज थे. यह कांग्रेस की मुसीबतों का हल निकालने वाले मंत्रियों में से एक हैं. इन्हीं की योजना और आशीर्वाद से बोफोर्स घोटाले का आरोपी स्वर्गीय ओट्टावियो क्वात्रोची अर्जेंटीना में पकड़े जाने के बावजूद बच निकला और भारत ने उसके सारे बैंक खातों से पाबंदी भी हटा ली. कई सारे विवादों में घिरने के बाद भारद्वाज को गवर्नर बनाकर दिल्ली से दूर भेज दिया गया. जस्टिस अशोक कुमार की विवादास्पद नियुक्ति की ज़िम्मेदारी अब हंसराज भारद्वाज पर आ गई.
हंसराज भारद्वाज ने इस बात को माना कि कांग्रेस पार्टी पर डीएमके का दबाव था और उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से मुलाक़ात भी की थी, लेकिन उन्होंने यह कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि जस्टिस अशोक कुमार की नियुक्ति में कोई गड़बड़ी नहीं की गई. अगर गड़बड़ी नहीं हुई, तो यह कैसे हो गया कि आईबी की रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ करके एक दाग़ी जज की नियुक्ति हो गई. जिस जज की नियुक्ति को कॉलेजियम ने नकार दिया, तो फिर वह कुर्सी पर कैसे बैठ गया? यह मामला दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि इस जज की नियुक्ति में गड़बड़ी हुई. हंसराज भारद्वाज जब मीडिया और देश की जनता को गुमराह करने की कोशिश में लगे थे, तभी प्रधानमंत्री कार्यालय की एक सीक्रेट रिपोर्ट सामने आ गई. प्रधानमंत्री की तरफ़ से चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को एक पत्र लिखकर सफाई देने को कहा गया कि उन्होंने किस आधार पर दागी जज का नाम हटाया. अब यह समझने के लिए राकेट साइंस के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है कि इस पत्र का मतलब क्या है. यह पत्र न्यायालय पर एक दबाव था. यह पत्र प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाए रखने के लिए एक भ्रष्ट जज की नियुक्ति की तरफ़दारी थी. सत्ता को ज़हर की संज्ञा देने वाली पार्टी का यह एक ऐसा जघन्य अपराध है, जो भले ही क़ानून की दृष्टि से ग़लत न हो, लेकिन राजनीतिक एवं प्रजातांत्रिक आदर्शों के नज़रिये से यह एक घिनौना कृत्य है, जिसने न्यायपालिका की आज़ादी और स्वायत्तता को तार-तार कर दिया.
कांग्रेस ने इस मुद्दे पर एक बार फिर झांसा देने की कोशिश की. कांग्रेस की दलील है कि मनमोहन सरकार ने जो किया, वह क़ानून के मुताबिक़ ही किया. कांग्रेस ने यही दलील टूजी घोटाले और कोयला घोटाले में भी दी. हर घोटाले के पर्दाफ़ाश के बाद कांग्रेस यही कहती रही कि जो हुआ है, क़ानून के मुताबिक़हुआ है. मनमोहन सिंह ने टूजी घोटाले के खुलासे के बाद तीन सालों तक यही कहा कि कोई घोटाला नहीं हुआ है और जितने भी ़फैसले हुए, वे सब क़ानून के मुताबिक़ लिए गए हैं. लेकिन आख़िर में हुआ क्या? इतिहास में पहली बार एक पदासीन केंद्रीय मंत्री को जेल की हवा खानी पड़ी. यह और बात है कि हर बार कांग्रेस पार्टी ने मनमोहन सिंह की ईमानदारी की दुहाई देकर लोगों को झांसा देने की कोशिश की. इसी तरह जब कोयला घोटाला सामने आया, तो ईमानदारी की मूर्ति बनकर मनमोहन सिंह ने यह ऐलान किया था कि अगर शक की सूई भी उन पर आई, तो वह राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. शक की सूई तो क्या, नौबत यहां तक आ गई कि प्रधानमंत्री कार्यालय से कोयला आवंटन की फाइलें ग़ायब होने लगीं. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार आपत्तिजनक टिप्पणी की, लेकिन मनमोहन सिंह पर उसका कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने संन्यास नहीं लिया, तो जनता ने ही उन्हें और उनकी पार्टी को रिटायर कर दिया. लेकिन, इस बार मामला कुछ अलग है. यह अलग इसलिए है, क्योंकि जस्टिस काटजू ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से जो सवाल किए हैं, वे महज सवाल नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह की कार्य पद्धति पर ज़ोरदार तमाचा है, मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि पर आख़िरी कील है. पहले समझते हैं कि इन सवालों का मतलब क्या है?
जस्टिस काटजू ने पूछा है कि क्या यह सही नहीं है कि सबसे पहले मैंने उस भ्रष्ट जज की शिकायत जस्टिस लाहौटी को भेजी थी? मतलब यह कि जस्टिस अशोक कुमार पर भ्रष्टाचार का आरोप कोई मीडिया रिपोर्ट या सुनी-सुनाई बात नहीं है, बल्कि मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने शिकायत की थी. जस्टिस काटजू के इस सवाल का खंडन नहीं किया गया, बल्कि तत्कालीन क़ानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने इसकी पुष्टि भी की. जस्टिस काटजू ने पूछा कि क्या यह सही नहीं कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने मामले की जांच आईबी से कराई? इस बात की भी पुष्टि हो चुकी है कि कॉलेजियम के कहने पर जांच कराई गई. सबसे बड़ी बात यह कि जांच के बाद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने खुद फोन करके जस्टिस काटजू को बताया कि जांच में इस बात की पुष्टि हुई है कि अशोक कुमार पर लगाए गए आरोप सही हैं. अगला सवाल जस्टिस काटजू ने यह पूछा कि क्या यह सही नहीं कि कॉलेजियम ने उस जज का कार्यकाल बढ़ाने से इंकार किया था? कॉलेजियम में शामिल जजों ने इस बात की पुष्टि की है कि जस्टिस अशोक कुमार का कार्यकाल बढ़ाने के ख़िलाफ़ ़फैसला लिया गया था. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस लाहौटी ने कॉलेजियम को बिना बताए ही जस्टिस अशोक कुमार का कार्यकाल बढ़ा दिया. अब सवाल यह है कि आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद जस्टिस लाहौटी ने ऐसा क्यों किया? इस सवाल का जवाब जस्टिस लाहौटी के पास नहीं है. इन सवालों का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, स़िर्फ इतना कहा कि हमने जो कुछ किया है, वह सब रिकॉर्ड है. वैसे भी जस्टिस लाहौटी से जवाब मांगने का कोई मतलब नहीं बनता है, क्योंकि यह पूरा खेल मनमोहन सिंह का है, कांग्रेस की सरकार का है.
कांग्रेस इन सवालों का जवाब देने की बजाय जस्टिस काटजू से ही सवाल पूछ रही है. कांग्रेस के ही सवालों को मीडिया के कुछ एडिटर और चैनल के एंकर पूछ रहे हैं. वे पूछ रहे हैं कि जस्टिस काटजू ने 2005 में क्यों नहीं कुछ बोला? उन्हें मद्रास हाईकोर्ट से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था. वह अभी ही क्यों यह खुलासा कर रहे हैं? सवाल जस्टिस काटजू के टाइमिंग का नहीं है, बल्कि यह देश में प्रजातंत्र के भविष्य का सवाल है. क्या देश में भ्रष्ट लोगों को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है और उसके लिए क्या सीधे प्रधानमंत्री की तरफ़ से दबाव डाला जा सकता है? क्या देश की जनता भ्रष्ट लोगों को जज बनाने के लिए सरकार चुनती है? सवाल केवल इतना है कि जो तथ्य जस्टिस काटजू ने दिए हैं, क्या वे सही हैं या गलत? अब तक इस मसले पर जितने भी तथ्य सामने आए हैं, उनसे यही लगता है कि जस्टिस काटजू की बातों में सच्चाई है. नई सरकार और मीडिया को अब पता करना चाहिए कि क्या यह अकेला मामला है या फिर कई और जजों तथा दूसरी संवैधानिक नियुक्तियों में भी धांधली हुई है? क्या मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुई नियुक्तियों में सरकार एवं नेताओं का हस्तक्षेप रहा?
जस्टिस काटजू का खुलासा मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर सबसे तीखा प्रहार है. कांग्रेस की वह दलील कि मनमोहन सिंह किसी भी शक से ऊपर हैं, भी ख़त्म हो गई. यह साबित हुआ कि कांग्रेस को सत्ता में बने रहने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को दांव लगाने में भी झिझक नहीं है. कांग्रेस ने पिछले दस सालों के दौरान कई सारी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा तहस-नहस की. ऐसा लगा था कि कांग्रेस की सत्तालोलुप राजनीति से न्यायपालिका बचने में कामयाब रही, लेकिन अब इस खुलासे के बाद कहना पड़ेगा कि पिछले दस सालों में यूपीए की मनमोहन सरकार भारत के प्रजातंत्र के लिए एक काला धब्बा साबित हुई. सरकार को इस मामले की छानबीन करानी चाहिए, दोषियों को दंड मिलना चाहिए और ऐसे प्रावधान बनाने की ज़रूरत है, जिससे भविष्य में ऐसी गलती होने की संभावना ख़त्म हो जाए. प्रजातंत्र को बचाने के लिए न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखना ज़रूरी है.
किसने क्या कहा
डी राजा (भाकपा):- न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के बारे में आरोप लगते रहे हैं, लेकिन काटजू द्वारा लगाए गए ताज़ा आरोपों से एक बार फिर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन की आवश्यकता दिखाई देती है. हमें इस बारे में जानकारी नहीं मिलती कि न्यायधीशों की नियुक्ति किस तरह होती है, किस तरह उनकी पदोन्नति होती है या किस तरह तबादला होता है, जबकि हमारे पास कॉलेजियम प्रणाली है. इसीलिए लोग इन चीजों पर सवाल उठा रहे हैं. मनमोहन सिंह और कांग्रेस को स्पष्टीकरण देना चाहिए कि ये आरोप सही हैं या नहीं.
हंसराज भारद्वाज (पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री):- उस जज की नियुक्ति को लेकर एक प्रमुख राजनीतिक दल का दबाव था. इसके बावजूद मैंने दबाव में कोई फैसला नहीं लिया. न्यायधीश को कोई अनुचित मदद नहीं दी गई, क्योंकि उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था. जहां तक गठबंधन सरकार पर राजनीतिक दबाव की बात है, तो जजों की नियुक्तियों पर (घटक दलों की ओर से) हमेशा दबाव रहा, जिसके सामने मैं कभी नहीं झुका.
रवि शंकर प्रसाद (केंद्रीय विधि मंत्री):- जजों की नियुक्ति की व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत है. सरकार ऐसी नियुक्तियां करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करना चाहती है.
एम वीरप्पा मोइली (वरिष्ठ कांग्रेस नेता):- सभी मामलों में कॉलेजियम ही ़फैसला ले रहा था. दस साल बाद इस मुद्दे को उठाने के पीछे का कारण समझ नहीं आ रहा.
नरेश अग्रवाल (समाजवादी पार्टी):- यह मामला गंभीर है. अगर न्यायपालिका पर सवाल उठेंगे, तो किस पर भरोसा किया जाएगा.