चुनावी वर्ष की शुरुआत बिहार ने कयासों की उत्तेजक राजनीति से की है. अख़बारी पाठकों को सर्दी के दिन गर्म रखने के लिए खूब खुराक मिल रही है, मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के किसी भी घड़ी सलीब पर टंग जाने की आशंका की खुराक. हालांकि, यह राजनीतिक सरगर्मी पिछले कई महीनों से बनी है, लेकिन हाल में इसमें तेजी आई है. राजनेताओं के साथ-साथ बिहारी मीडिया भी उल्लेखनीय तौर पर काफी सक्रिय रहा. पर, इस राजनीतिक अभियान को सफलता नहीं मिली. कहते हैं, जद (यू) और राजद के प्रमुख क्रमश: नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद ने ऐसे किसी अभियान को चुनावी हित के प्रतिकूल मानते हुए इसके प्रमोटरों को शांत रहने की नसीहत दी है. लेकिन, मांझी के लिए यह तात्कालिक राहत के समान है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने मांझी की विदाई का वक्त तो मुकर्रर कर रखा है, पर इसमें अभी देर है. ऐसा माना जा रहा है कि जनता परिवार के विलय के बाद संगठन और सरकार (दोनों फ्रंट) को लेकर नए सिरे से विचार किया जाना है. उस हालत में नेतृत्व में बदलाव तय माना जा रहा है. यानी मांझी के सिर से तलवार हटी नहीं है, पर उसकी डोर अब नेतृत्व में बदलाव के पैरोकारों के बदले लालू-नीतीश के हाथों में चली गई है. अब राज्य के राजनीतिक समूहों को इस बात की प्रतीक्षा है कि जनता परिवार का विलय कब होता है और तब तक मांझी मुख्यमंत्री रहते हैं या नहीं. यह बात सही है कि मांझी को जीवनदान लालू-नीतीश के कारण मिला है, पर सच्चाई यह भी है कि अपनी प्रशासनिक अक्षमताओं एवं अटपटे बोल के कारण वह राजनीतिक तौर पर किसी को रास नहीं आ रहे हैं, नीतीश-लालू को तो नहीं ही, भाजपा को भी नहीं.
जीतन राम मांझी अपने अंदाज़ में सरकार चला रहे हैं और उनकी शासन शैली में सुशासन सबसे अधिक संकट में फंस गया है. चूंकि नीतीश कुमार के वह सीधे उत्तराधिकारी ही नहीं, उनके द्वारा मनोनीत भी हैं, लिहाजा उनके कामकाज के अच्छे-बुरे के आकलन का पैमाना नीतीश-राज की शासन शैली ही है. इस ख्याल से बिहार के हालात संतोषजनक तो कतई नहीं हैं. नाउम्मीदी के लंबे दौर के बाद कोई नौ साल पहले सत्ता पर नए सिरे से बिहारियों का भरोसा जगा था और राज्य में आम तौर पर क़ानून का भय दिखने लगा था. हालांकि, उस दौर में भी काली दुनिया के अनेक सरगनाओं को सत्ता के खास जैसी सहूलियतें मिली थीं और शासन का यह आचरण कभी-कभी भय (आतंक कहिए) पैदा करता था, पर आम तौर पर जीवन सहज होता दिख रहा था. लेकिन, गत कुछ महीनों से हालात बदलने लगे और अब राज्य में क़ानून व्यवस्था अपने निम्नतम स्तर पर जाती दिख रही है. इस मुतल्लिक आंकड़ों की जुबान में बातचीत कठिन है और सरकार एवं सत्तारूढ़ दल के अपने तर्क हैं, अन्य राज्यों के आंकड़े हैं. साथ ही वे सार्वजनिक तौर पर इसे स्वीकर कर अपने नेता को सेंसर नहीं करना नहीं चाहते. पर, यह ज़रूर मानते हैं कि हालात बेकाबू होते जा रहे हैं. आपराधिक गिरोहों की संगठित-सुनियोजित काली करतूतों के आतंक का दायरा बढ़ता जा रहा है. पटना से लेकर सुदूर ग्रामांचल तक नए-नए अंदाज़ में उक्त गिरोह अपना काम अंजाम दे रहे हैं. पुलिस उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करती दिखना भर चाहती है. कारण, उसकी कार्रवाई का कोई विशिष्ट परिणाम सामने आता नहीं. क़ानून के राज की ज़िम्मेदार एजेंसियां अपना इकबाल खोती जा रही हैं. यही नीतीश की चिंता का कारण है. चुनाव के ठीक पहले राज्य का ऐसा माहौल किसी सत्ताधारी राजनीतिक दल की वापसी की राह का सबसे ख़तरनाक रोड़ा है. फिर, जद (यू) के बागी विधायकों को लेकर संगठन और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद का इस कदर सार्वजनिक होना भी पार्टी नेतृत्व में समन्वय के घोर अभाव का परिचायक है. यह सही है कि बागी विधायकों की सदस्यता ख़त्म कराने को लेकर मांझी से कोई राय-मशविरा नहीं किया गया था और संकेतों में अपनी उपेक्षा वह जाहिर कर चुके हैं. राज्य की चुनावी राजनीति का तकाजा है कि यह नुक्ताचीनी अब ख़त्म होनी चाहिए, लेकिन हालात विपरीत हैं और आने वाले महीनों में इस या ऐसी प्रवृत्ति के बढ़ते जाने की आशंका है. यह जद (यू) के चुनावी भविष्य को दांव पर चढ़ा रहा है. मांझी के बार-बार के अट-पट बोल प्रशासन में सामाजिक समूहों के बीच नई गोलबंदी का कारण बन रहे हैं. ऐसा प्रशासनिक माहौल दो-ढाई दशक पहले के हालात की याद दिलाता है. नीतीश-राज, विशेषकर एनडीए के जमाने में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने का बड़ा शोर था. उन दिनों सरकार का भ्रष्टाचार विरोधी चेहरा दिखता भी था, पर गत कई महीनों में (एनडीए सरकार के विघटन के बाद से) इस फ्रंट पर सरकार की सक्रियता सीमित हो गई है. कुछ महीने पहले तक जब-जब पुलिस का चेहरा दागदार दिखने लगता था, तब-तब ऐसी कार्रवाई होती रही, पर अब तो ऐसी तात्कालिक गतिविधि भी बंद है. प्रशासन के ऊंचे हलकों में लेन-देन की चर्चा पटना की सड़कों पर होने लगी है. नीतीश-राज, जिस पर जद (यू) को नाज़ है, का चेहरा भी आज बिहार को दागदार दिखने लगा है.
जीतन राम मांझी अपने अंदाज़ में सरकार चला रहे हैं और उनकी शासन शैली में सुशासन सबसे अधिक संकट में फंस गया है. चूंकि नीतीश कुमार के वह सीधे उत्तराधिकारी ही नहीं, उनके द्वारा मनोनीत भी हैं, लिहाजा उनके कामकाज के अच्छे-बुरे के आकलन का पैमाना नीतीश-राज की शासन शैली ही है. इस ख्याल से बिहार के हालात संतोषजनक तो कतई नहीं हैं. नाउम्मीदी के लंबे दौर के बाद कोई नौ साल पहले सत्ता पर नए सिरे से बिहारियों का भरोसा जगा था और राज्य में आम तौर पर क़ानून का भय दिखने लगा था.
फिर भी, आज के जीतन राम मांझी विधानसभा चुनाव में नीतीश की राजनीतिक पूंजी बनने की हरचंद ताकत रखते हैं. यह सही है कि गत मई में लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद नीतीश ने बैक बेंचर समझ कर ही मांझी को अपना भरत बनाया था और उन्हें अपनी खड़ाऊं सौंपते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव तक उसे संभाले रहने का वचन लिया था, लेकिन कुछ ही महीनों में भरत ने मोम का पुतला बनने से इंकार कर दिया. शुरू के कुछ महीनों के रिमोट संचालित सरकार के प्रभारी मुख्यमंत्री मांझी अपने खास लोगों तक को सरकारी समितियों में शामिल कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. पर, चार-पांच महीने में ही उन्होंने अपनी पकड़ मजबूत की और अब वह नीतीश भक्त अफसरों को न केवल शंटिंग पदों पर भेज रहे हैं, बल्कि मंत्रि परिषद के नीतीश भक्तों को भी जता रहे हैं कि मंत्रियों को बर्खास्त करने की ताकत तो उनके पास है ही. वह अपनी रौ में सब कुछ कर रहे हैं और कई मसलों पर जद (यू) की राजनीतिक धारा के विपरीत लाइन लेते हैं. उनकी स्वाभाविक दलितोन्मुखी राजनीति जद (यू) को ही नहीं, लालू प्रसाद के सामाजिक आधार को भी बार-बार उत्तेजित कर रही है. जद (यू) जिस सामाजिक समूह को अपना वोट बैंक के तौर पर पेश कर रहा है, वह वस्तुत: मांझी के साथ है और इसके अलावा उसकी वोट की पूंजी बड़ी सीमित है. लालू प्रसाद के पास गत कई चुनावों से यादव-मुसलमान की पूंजी है, लेकिन उसमें भी संसदीय चुनाव में भारी क्षरण हुआ है और ग़ैर यादव उम्मीदवारों को यादव वोट दिलवाने में वह कई संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में विफल रहे. अब मांझी के साथ कोई बैर-भाव लेकर अपनी चुनावी विफलता पर एक बार फिर वह मुहर नहीं लगवाना चाहते. ऐसे में मंडल राजनीति के इन दोनों बिहारी नायकों की राजनीतिक विवशता बन गए हैं मांझी. यह सच्चाई है कि मांझी के चलते बिहार के महादलित समाज में नई चेतना विकसित हो रही है और वह नई चुनौतियों का सामना करने की मानसिक तैयारी कर रहा है. लेकिन, यह भी सही है कि यह सारा कुछ मांझी के साथ ही है, जद (यू) के साथ नहीं. नीतीश कुमार और उनके समर्थक राजनीतिक-सामाजिक समूहों को यह वास्तविकता पच नहीं रही है. यही कारण है कि मांझी निरंतर मजबूत होते जा रहे हैं, दृढ़ता से अपनी बात कह रहे हैं, जिससे सरकार से जुड़े बिचौलियों की, जिनमें मंत्रियों की संख्या कम नहीं है, परेशानी बढ़ गई है. मांझी हटाओ अभियान में इन बिचौलियों की भूमिका किसी अन्य राजनीतिक समूह से अधिक है. लेकिन, कुछ तो ऐसी मजबूरी है कि जद (यू) में सुप्रीमो की हैसियत पा चुके नीतीश कुमार खामोश हैं. उनकी यह खामोशी कुछ तो क़ीमत वसूल करेगी. पर क्या? इस क्या का उत्तर भविष्य देगा.
इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक राजनीतिक बेचैनी भाजपा में है. बिहार का मतदाता समूह गहरी वोटबंदी का नमूना बन गया है. अगड़ा मतदाता भाजपा की ओर प्रतिबद्ध दिखता है, मगर पिछड़े मतदाताओं में विभाजन है और दलित-महादलित एवं अति पिछड़ा मतदाता समूह प्राय: अति-प्रतिबद्ध ही है. राजद-जद (यू) की एकता या जनता परिवार के विलय के बाद निर्विवाद रूप से यह तीसरा अप्रतिबद्ध मतदाता समूह काफी महत्वपूर्ण हो जाएगा. सत्ता के दरवाजे तक किसी भी राजनीतिक समूह को पहुंचाने के लिए इस समूह का वोट ज़रूरी हो जाएगा. भाजपा के साथ मजबूरी है कि उसके पास बड़े दलित-महादलित और अति पिछड़े नेता का अभाव है. इसके साथ यह यथार्थ है कि हाल के महीनों में मांझी दलित-महादलित के साथ-साथ अति पिछड़ों में एक नए राजनीतिक ध्रुव बनकर उभरे हैं. इन सामाजिक समूहों की मतदान-शैली को प्रभावित करने की उनकी ताकत दिखने लगी है. अभी तक उनके इस उत्थान का राजनीतिक लाभ जनता परिवार या ऐसे भाजपा विरोधी किसी गठबंधन को मिलता दिख रहा है. बिहार की मौजूदा सरकार के सत्ता के बिचौलिए जब तक अपने अभियान को अंजाम तक नहीं पहुंचाते, मांझी के मुख्यमंत्री होने का लाभ नीतीश-लालू को मिलना तय है. भाजपा इस समीकरण को बदला हुआ देखने को बेचैन है. देखना है, भाजपा को कब चैन मिलता है, मिलता भी है या नहीं.