सरदार हुकम सिंह से ताजिंदगी मेरे संबंध रहे ।उन्हें मैंने जाना बेशक गैर-सरकारी विधेयक और संकल्पों की समिति के अध्यक्ष के तौर पर लेकिन शनै:शनै: यह संबंध प्रगाढ़ता में बदलता चला गया ।हो सकता है कि लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए माननीय अध्यक्ष से ऐसी करीबी को लोग गैरवाजिब समझें लेकिन सरदार हुकम सिंह के ज़ेहन में कभी ऐसी सोच मैंने महसूस नहीं की ।उनके उपाध्यक्ष रहते जैसे उनके 21,अशोक रोड के आवास पर कभी भी चला जाता था,आम तौर पर सुबह, वैसे ही उनके अध्यक्ष रहते मेरा 20,अकबर रोड भी आना जाना शुरू हो गया । 1952 में पहले लोकसभा अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के समय 20,अकबर रोड को लोकसभा स्पीकर के स्थायी निवास के तौर पर निश्चित किया गया था, वह परंपरा वैसी ही कायम है जैसी उपराष्ट्रपति की 6, मौलाना आज़ाद रोड के निवास की परंपरा ।लेकिन प्रधानमंत्री आवास को लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने तीन मूर्ति भवन में न रहने का फैसला लेकर उनके लिए नया आवास तलाशने की कवायद शुरू हो गयी थी ।तीन मूर्ति को नेहरू संग्रहालय में बदल दिया गया था ।

अन्ततः 10, जनपथ को प्रधानमंत्री आवास के तौर पर चुना गया ।इसके पीछे शायद सोच यह थी कि जिस तरह से ब्रितानी प्रधानमंत्री का आवास 10, डाउनिंग स्ट्रीट है उसी तर्ज पर भारतीय प्रधानमंत्री का आवास 10, जनपथ होगा ।लेकिन लगता है लालबहादुर शास्त्री के लिए यह स्थान सौभाग्यशाली न होकर दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ । जून,1964 में शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने और जनवरी,1966 में उनका निधन हो गया । इस स्थान के लिए पनौती, अशुभ और कुछाया जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ । बहुत समय तक 10, जनपथ खाली रहा। यह बहुत ही विशाल बंगला है,कोई भी मंत्री यहां रहने को राज़ी नहीं होता था ।इंदिरा गांधी ने 1,सफ़दरजंग रोड को अपना ठौर बनाया लेकिन राजीव गांधी के समय 5-7, रेसकोर्स रोड को प्रधानमंत्री आवास के तौर पर चुना गया है जो अभी तक विद्यमान है ।मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री काल में एक राज्यमंत्री नरहरि प्रसाद साय ने इस बंगले को फिर से आबाद किया ।वह छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेता थे । छत्तीसगढ़ से अपनी निकटता के चलते मैं उनसे मिलता रहता था ।उन्होंने मुझे बताया कि यह तो मन का भ्रम है,हम आदिवासी यह पनौती नहीं मानते ।जब 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार जाती रही थी तो इसके चलते नरहरि प्रसाद साय को इस बंगले को छोड़ना पड़ा था । काफी समय तक यह फिर खाली पड़ा रहा ।

कुछ समय बाद 10, जनपथ के दो हिस्से कर दिए गये ।एक हिस्से में लालबहादुर शास्त्री का संग्रहलय है और दूसरे हिस्से में सत्ता जाने के बाद राजीव गांधी सपरिवार रहने लगे थे। लेकिन 1991 में राजीव गांधी की तमिलनाडु में उनकी हत्या के बाद फिर इस बंगले को अशुभ करार दिया जाने लगा लेकिन सोनिया गांधी और उनका परिवार आज भी यहां रहता है ।प्रियंका गांधी की शादी भी यहीं हुई थी।लालबहादुर शास्त्री के बेटे हरिकृष्ण शास्त्री से मैं अक्सर मिलता रहता था ।शास्त्री जी पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ की एक प्रति मुझे भेंट करते हुए बताया था कि शुभ अशुभ कुछ नहीं होता,यह मन का भ्रम है ।पिता जी तो भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए ताशकंद गये थे।उनके जीते जी समझौता हो भी गया ।उसके बाद उनके स्वर्गवास से इस बंगले का क्या लेना देना। अम्मा भी उनके साथ जाना चाहती थीं लेकिन वह नहीं जा पायीं ।यह भी तो संभव था कि वह गयी होतीं तो हमें यह दिन देखने को न मिलता ।

यह विषयान्तर शायद विषय के अनुसार ही था ।सरदार हुकम सिंह से मैं अक्सर मिलने के लिए आता कभी अनौपचारिक तौर पर तो कभी औपचारिक तौर पर भी ।अनौपचारिक उनके किसी संस्मरण को समझने के लिये या प्रकाशक श्याम सुंदर को मिलाने के लिये । दो-एक बार सुबह सुबह उनके यहां धोती पहने एक व्यक्ति को जब देखा तो उनके विषय में जब मैंने सरदार साहब से पूछा तो उन्होंने बताया कि यह सेठ रामकृष्ण डालमिया हैं जिनकी पंडित नेहरू से खटपट चल रही है ।मेरी मदद चाहते हैं लेकिन मेरी अपनी सीमाएं हैं ।फिर भी मुझसे जितना बन पड़ता है दोनों के बीच की गलतफहमियां दूर करने की कोशिश ही कर सकता हूं,और करता भी हूं ।जब अनौपचारिक रूप से मिलता था तो उन्हें ‘भाईया जी’ संबोधित करता था, औपचारिक तौर पर मिलने पर सरदार साहब ।कभी कभी मुझे उनके निजी सहायक के तौर पर भी उनके निवास पर आना होता था ।उनसे डिक्टेशन भी मैंने ली थी ।

जब कभी थोड़ा उन्हें मैं फुर्सत के क्षण में देखता तो मैं सरदार हुकम सिंह से पूछ लेता कि आपने तीन या यों कहें कि सवा तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया वे कभी आपके निर्णयों के आड़े नहीं आये या आपके फैसलों से उन्होंने असहज अनुभव नहीं किया ?सवा इस किए क्योंकि गुलज़ारीलाल नंदा दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे थे। सरदार हुकम सिंह ने पहले तो मुझ गहरी नज़रों से देखा और फिर पूछा कि ‘तू मेरा इंटरव्यू लै रियां जां कुज समझन दी कोशश कर रिया हैं ‘।मैंने मुख्त्सिर सा जवाब दिया,’दोवे’। अब उन्होंने कुछ इस तरह से बताना और समझाना शुरू किया:’देखो मैं सदन के नियमों के अनुसार काम करता हूं ।मेरे लिए सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों दलों के नेता और सांसद एक समान हैं ।पंडित जवाहरलाल नेहरू और विपक्ष के नेताओं में मुझे सर्वसम्मिति से अध्यक्ष चुनते हुए मुझमें जो विश्वास व्यक्त किया था मैंने अपने फैसलों से किसी को निराश नहीं किया और न ही कभी विपक्ष ने मेरे निर्णयों को पक्षपातपूर्ण माना ।जहां तक प्रधानमंत्रियों के सहयोग या समर्थन की बात है उनका मुझ पर कभी किसी प्रकार का दबाव नहीं रहा और न ही उनको मेरी निष्पक्षता पर संदेह था ।देश का दुर्भाग्य रहा कि हमने एक के बाद दूसरा प्रधानमंत्री खो दिया।तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भी मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं रही। नंदा जी बेचारे तो दो प्रधानमंत्रियों के शोककाल में कार्यवाहक प्रधानमंत्री ही रहे ।

कहा जाता है कि आपका स्पीकरकाल चुनौतियों वाला रहा है । 1962 और 1965 में दो-दो युद्ध देश को झेलने पड़े और सरकार की 1962 में चीन के हाथों हार से सदन में बड़ी छीछालेदर हुई तो सरकार पर विपक्ष के प्रहार को आपने कैसे झेला । मैंने प्रतिपक्ष को अपना पक्ष रखने की पूरी छूट दी । आप विपक्ष को अपना शत्रु क्यों समझते हैं ।उन्हें भी लोगों ने चुन कर भेजा है और उनकी भी देशवासियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी बनती है ।मुझे खुशी है कि विपक्ष ने जहां सरकार की नीतियों की आलोचना की वहीं कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये ।दोनों ओर की मोटा मोटी सहमति से ही डिफेंस ऑफ़ इंडिया, 1962 का कानून पास हुआ ।1965 के युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर निर्णायक जीत थी लेकिन इस क्षेत्र में शांति को तरजीह देते हुए ही भारत ने युद्धविराम किया था और अपने कब्ज़े में आये इलाकों को पाकिस्तान को लौटा दिया था ।हमारे देश के लिए यह शांति इस मायने में महंगी पड़ी क्योंकि हमने अपने प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को खो दिया था ।बेशक इस समझौते को लेकर भी विपक्ष ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया था और उसकी नीतियों की बघिया उधेड़ी लेकिन स्पीकर के आसन के प्रति न तो सत्तापक्ष और न विपक्ष के मन में किसी प्रकार की कटुता और संदेह की भावना थी ।दोनों पक्षों में वैचारिक मतभेद थे लेकिन वैमनस्य की भावना कतई नहीं थी ।दोनों ओर का परस्पर सामंजस्य ही किसी भी स्पीकर के आसन की सफलता मानी जा सकती है ।क्या कभी विपक्ष वेल में आकर नारेबाज़ी करता था,सरदार हुकम सिंह ने बताया था कि उनके स्पीकरकाल में कभी नहीं ।उसकी वजह है कि सरकार का रवैया सदा विपक्ष के प्रति सहयोगपूर्ण का रहा ।मैंने अक्सर पंडित नेहरू, शास्त्री जी और इंदिरा गांधी को विपक्ष के सुझावों के नोटस लेते हुए देखा था ।

सरदार साहब आपके यात्रा संस्मरणों का अनुवाद करते हुए मैंने पाया कि आप केवल विदेश में संसदीय गतिविधियों का ही विवेचन नहीं करते हैं बल्कि उन देशों की भौगोलिक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्यों का चित्रण भी पेश करते हैं ।ये सब जानकारियां आपको कहां से मिलती हैं?सरदार साहब का उत्तर था कि यह तो बड़ी सहज और सामान्य बात है ।जिस देश की यात्रा पर आप जाते हैं वहां आपको मुहैया किए जाने वाले दस्तावेजों में ये सारी जानकारियां उपलब्ध रहती हैं ।मेरी आदत है कि मैं केवल संसदीय ही नहीं सभी किस्म की जानकारियों को आत्मसात करता हूं और जिज्ञासावश वहां के नेताओं और अधिकारियों से जब अतिरिक्त जानकारी मांगता हूं तो मुझे मिल जाती है इसलिए मेरे ये संस्मरण दिलचस्प और काफी हद तक ज्ञानवर्धक भी हो जाते हैं ।

एक बार मैंने सरदार हुकम सिंह से यह भी जानना चाहा कि आप दोनों शासन प्रणालियों वाली सरकारों की संसदीय प्रणाली का अवलोकन,अध्ययन और विवेचन करते हैं उनमें कहीं साम्य पाते हैं ।उनका उत्तर हर देश की व्यवस्था को लेकर अलग-अलग था ।पश्चिमी यूरोप की संसदों की कार्यपद्धति कमोबेश हमारे यहां जैसी है लेकिन पूर्व यूरोपीय देशों में साम्यवादी व्यवस्था है वहां पर आम तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी ही किसी न किसी रूप में सत्ता में होती है ।लेकिन इन देशों में भी सांसदों को अपनी बात कहने और विचार प्रगट करने की छूट रहती है ।(अब तो रूस को छोड़ कर सभी यूरोपीय देशों में कमोबेश समान संसदीय व्यवस्था है)। मुझे हंगरी संसद में खासा खुलापन देखने को मिला ।उसकी वजह के तौर पर आप ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मान सकते हैं ऑस्ट्रिया-हंगरी के रिश्तों की ।

इन देशों के स्पीकर की भूमिका को आप कैसे देखते हैं विशेष तौर पर ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ कॉमन्स और अमेरिका की प्रतिनिधि सभा के स्पीकरों को लेकर मसलन ब्रिटेन में स्पीकर के विरुद्ध कोई भी पार्टी अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करती और अमेरिका में स्पीकर तो बहुत पावरफुल होता है ।वहां तो स्पीकर को राष्ट्रपति बनते भी देखा गया है । इस लंबे प्रश्न पर सरदार हुकम सिंह मुस्कराये और बोले कि जहां तक ब्रिटेन की बात है कहने को वहां चार पार्टियां हैं लेकिन सत्ता अमूमन दो पार्टियों के बीच ही आती जाती रहती है कंज़रवेटिव और लेबर पार्टी । इन दोनों के बीच अगले स्पीकर के नाम पर चुनाव से पहले ही सहमति हो जाती है इसलिए उस उम्मीदवार के विरुद्ध कोई भी पार्टी अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करती ।आपने देखा होगा कि हाउस ऑफ़ कॉमन्स का स्पीकर तटस्थ और निष्पक्ष वह रहता है । आपके सवाल में जो दूसरा सवाल छुपा है कि जब हमारे देश का सिस्टम ब्रितानी सिस्टम के आसपास ह तो हमारे यहां स्पीकर के विरुद्ध दूसरी पार्टियां अपने उम्मीदवार क्यों उतारती hain तो इसका जवाब है क्योंकि हमारे यहां बहुदलीय प्रणाली है ।कोई भी पार्टी यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकती कि इस समय वह कांग्रेस का विकल्प है ।हमारे यहां प्रतिपक्ष के तौर पर कभी कम्युनिस्ट पार्टी बड़ी विपक्षी पार्टी होती है तो कभी स्वतंत्र पार्टी या कोई अन्य पार्टी ।लेकिन इस समय इन प्रतिपक्षी पार्टियों की सदस्य संख्या इतनी नहीं जो कांग्रेस की एवजी पार्टी होने का दावा कर सके, भविष्य में क्या होता ह मैं नहीं कह सकता।हो सकता कोई पार्टी या पार्टियों का समूह कांग्रेस के खिलाफ कोई एलायंस बनाये,ऐसी स्थिति में स्पीकर किस पार्टी का होना चाहिए यह बहुत बड़ा सवालिया सवाल है । लिहाजा हमारे यहां स्पीकर जब चुनावी मैदान में उतरता है तो किसी पार्टी का उम्मीदवार होता है,स्पीकर नहीं ।मेरा यह मानना है कि किसी सांसद के स्पीकर चुने जाने के बाद वह अपनी पार्टी की दलीय स्थिति से संबंध विच्छेद के ले तो वह अपनी तटस्था और निष्पक्षता का परिचय दे सकता है,स्पीकर चुने जाने के बाद मैंने ऐसा ही किया है ।इसीलिये सभी पार्टियां मेरे निर्णयों और रूलिंग्स पर विश्वास करती हैं, यह उनकी मेहरबानी और मोहब्बत है मेरे प्रति ।

जहां तक अमेरिकी निम्न सदन यानी प्रतिनिधसभा के स्पीकर का प्रश्न है उनकी स्थिति वहां के संघीय संविधान में स्पष्ट है । निम्न सदन का कार्यकाल दो बरस का होता है ।वहां दो दलीय प्रणाली है ।कभी डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुमत मिलता है तो कभी रिपब्लिकन पार्टी को ।इसलिए वहां भी स्पीकर बदलते रहते हैं ।जैसा मैंने कहा कि संविधान में स्पीकर की भूमिका साफ है ।राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति न रहने पर प्रतिनिधिसभा का स्पीकर राष्ट्रपति बनता है ।जहां तक मुझे याद पड़ता है एक बार वहां ऐसी स्थिति पैदा हो चुकी है ।सरदार हुकम सिंह के स्पीकरकाल तक शायद एक ही मिसाल थी ।दूसरी मिसाल जेराल्ड फोर्ड की है जब दिसंबर, 1973 में उपराष्ट्रपति स्पायरो अगन्यू ने अपने पद से इस्तीफा दिया तो फोर्ड स्वत: उपराष्ट्रपति बन गये और अगस्त, 1974 में राष्ट्रपति के त्यागपत्र के बाद राष्ट्रपति बने, बिना चुनाव के।वह 9 अगस्त,1974 से 20 जनवरी, 1977 तक अमेरिका के 38वें राष्ट्रपति रहे ।कहने को तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकसभा स्पीकर की स्थिति भी अमेरिकी प्रतिनिधिसभा के स्पीकर के समकक्ष मानते रहे हैं लेकिन बाद के सालों में लगता है कि स्पीकर पद का शायद वह गौरवशाली स्थान नहीं रहा ।सरदार हुकम सिंह और पंडित नेहरू दोनों ही मानते थे कि स्पीकर को कभी सरकार में मंत्री पद स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि मंत्री पद स्पीकर की तुलना में तुच्छ है ।पहले तीन स्पीकर तो खालिस स्पीकर रहे हैं लेकिन बाद के कुछ स्पीकर मंत्री पदों पर भी रहे हैं ।सरदार हुकम सिंह के बाद नीलम संजीव रेड्डी लोक सभा अध्यक्ष रहे ।उनका पहला कार्यकल 1967-69 तक रहा और दूसरा 1977 में तीन महीने का। 1977 में वह राष्ट्रपति चुने गये थे।वह भी अपने आप में अकेली मिसाल है ।

सरदार हुकम सिंह का मुझ पर इतना विश्वास हो गया था कि वह मुझे अपनी निजी डायरियां भी पढ़ने के लिए देने लगे ।एक बार मैंने उनसे पूछा कि ‘भाईया जी यह आपकी बहुत निजी यादें हैं, मुझसे क्यों शेयर कर रहे हैं!’ उनका उत्तर था,’शायद तुम से बेहतर और कोई नहीं ।मैं अब तुम्हें करीब दस सालों से जानता हूँ ।इतनी तो मुझमें समझ है कि किस पर भरोसा करना चाहिए और किस पर नहीं ।’ लेकिन यह बेटी के गोद लेने वाला क्या प्रसंग है? सरदार साहब गंभीर हो गये थे और बोले हमारी अपनी संतान नहीं थी ।मैंने और तुम्हारी बी जी ने एक बच्चा गोद लेने का फैसला किया और हमने तृप्त कौर (सरदार साहब की धर्मपत्नी) ने उनके एक रिश्तेदार की बेटी को गोद लिया जो आज हमारी बेटी है ।ब्रिगेडियर हरिसिंह हमारे दामाद हैं जतिन्दरपाल (जे पी) सिंह हमारा नाती ।

30 अगस्त,1895 में अविभाजित भारत के मिंटगुमरी (अब पाकिस्तान में) में जन्मे सरदार हुकम सिंह की प्रारंभिक शिक्षा मिंटगुमरी के सरकारी स्कूल में हुई,स्नातक वह खालसा कॉलेज,अमृतसर से बने जबकि 1921 में एलएलबी लाहौर के लॉ कॉलेज से करने के बाद वकालत मिंटगुमरी में की। वह अपने धर्म के प्रति बहुत समर्पित थे ।श्रद्धालु सिख होने के कारण गुरुद्वारों को ब्रितानी राजनीतिक प्रभाव से मुक्त कराने के लिए उन्होंने कई आन्दोलन किये ।जब गोरी सरकार ने शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी (एसजीपीसी) को गैरकानूनी घोषित किया तो उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया ।वह दो बरस तक जेल में रहे।उन्होंने केवल सिख और गुरुद्वारों से जुड़े आन्दोलनों में ही भाग नहीं लिया बल्कि 1928 में साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शनो में भी मिंटगुमरी की सड़कों पर
जुलूस निकाले और पुलिस की लाठीचार्ज में घायल होकर गिरफ्तार भी हुए ।

मिंटगुमरी मुस्लिम बहुल इलाका है इसलिए 1947 में विभाजन के समय यहां काफी मारकाट हुई ।उन्होंने हिंदुओं और सिखों को गुरुद्वारे में शरण लेने के लिए कहा ।सिखों का नेता होने के नाते वह दूसरों को बचाते स्वयं दंगाइयों से घिर गये तो उन्हें सीमा बल के यूरोपीय अधिकारी ने खाकी वर्दी में भेष बदल कर सुरक्षित फिरोजपुर छावनी पहुंचाया ।यहां आकर उन्हें पता चला कि उनका परिवार सही सलामत जालंधर पहुंच गया है ।यह सारी जानकारी मुझे उनकी एक पुरानी डायरी में मिली ।इस मुद्दे पर जब सरदार हुकम सिंह से आगे चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि हम लोग अपने साथ कुछ लाये नहीं थे ।एसजीपीसी से जुड़े होने की वजह से कुछ साथियों और पदाधिकारियों से बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हो गयी थी ।एक अकाली नेता ज्ञानी करतार सिंह मुझे कपूरथला के महाराजा से मिलवाने ले गये और उन्हें मिंटगुमरी में मेरी वकालत के बारे में जानकारी दी ।इस पर महाराजा ने मुझसे भी बात की और कहा कि आप ढंग के कपड़े पहनकर अगले हफ्ते मुझे मिलें ।जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने एक पत्र मुझे सौंपते हुए कहा कि आपको कपूरथला हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया गया है ।लगता है इस बीच मेरे बारे में महाराजा ने और कुछ लोगों से सूचनाएं प्राप्त कर ली थीं क्योंकि वहां मैं वकालत के अलावा सिख मूवमेंट के साथ साथ स्वतंत्रता सेनानियों से भी जुड़ा हुआ था और साइमन कमीशन के विरोध में मैं जेल भी जा चुका था ।

एक और डायरी में उनके संविधान सभा के सदस्य बनाये जाने की प्रविष्टि भी पढ़ने को मिली । विभाजन के बाद भारत की संविधान सभा में कुछ सीटें खाली थीं ।इन के लिए दो हिंदुओं और दो सिखों को सदस्य के रूप में शामिल किया गया ।सरदार हुकम सिंह शिरोमणि अकाली दल के सदस्य के तौर पर निर्वाचित किया गया ।उन्होंने अपनी विद्वता और सक्रियता से दूसरे दलों के नेताओं पर अमिट छाप छोड़ी जिसके चलते उन्हें सभापतियों की पैनल में स्थान प्राप्त हुआ ।वह बहुत अच्छे वक्ता थे और कानूनी दांवपेंच में भी माहिर। लिहाजा एक तो अपने मृदु और मधुर स्वभाव और दूसरे कानूनी पृष्ठभूमि के चलते वह विभिन्न पार्टियों के नेताओं के करीब आ गये ।उनकी विद्वता की परख संभवतः पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तभी कर ली थी जिसके कारण 1956 में विपक्षी दल के नेता को लोकसभा के उपाध्यक्ष बनाने की शुरुआत की जो बाद में यह परंपरा ही बन गयी ।इस आशय की कुछ प्रविष्टियां मैंने सरदार हुकम सिंह के कागज़ों में पायी थीं ।उनके लोकसभा के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष की चुनौतीपूर्ण दायित्वों के बारे में मैं लिख ही चुका हूं । 1967 से 1972 तक राजस्थान के ‘लोकप्रिय’ राज्यपाल की भी चर्चा कर चुका हूं ।उस समय की एक घटना और याद आ रही है ।

एक दिन मैं अपनी बहन श्रीमती प्रभजोत कौर से मिलने के लिए गया ।याद नहीं कि मैं खुद गया था या फोन करके मिलने के लिए बुलाया गया था ।बहरहाल उन्होंने मुझे खबर दी कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी निरूपमा (घरेलू नाम वीना) का रिश्ता सरदार हुकम सिंह के नाती जे पी सिंह से कर दिया है ।मेरे लिए बहुत बड़ी खुशखबरी थी ।मैंने उन्हें ढेर सारी बधाइयां दीं ।मैं जे पी सिंह और उनके पिता ब्रिगेडियर हरिसिंह को भी जानता था ।वैसे मेरी बहन के पति कर्नल नरेंद्रपाल सिंह और ब्रिगेडियर हरिसिंह भी एक दूसरे से अच्छी तरह से परिचित थे ।उन दिनों कर्नल नरेंद्रपाल सिंह पेरिस स्थित भारतीय दूतावास में सैन्य अटाशे थे तथा ब्रिगेडियर हरिसिंह मास्को में ।मेरी बहन प्रभजोत जी की दो बेटियां हैं-बड़ी निरूपमा और छोटी अनूपमा (घरेलू नाम रोहिणी)। वीना की शादी में मैं जयपुर गया था ।मामा जो था ।सरदार हुकम सिंह मुझ से गले मिले और बोले ‘अब हम रिश्तेदार जो हो गये हैं।’ उन्होंने मुझे खूब प्यार दिया ।बहुत अच्छी शादी हो गयी ।शादी के बाद वीना और जे पी सिंह को आशीर्वाद देकर मैं दिल्ली आ गया ।

मेरी बहन की दूसरी बेटी अनूपमा यानी रोहिणी की शादी मेरठ में हुई ।किन्हीं कारणों से मैं उसकी शादी में शरीक नहीं हो सका ।रोहिणी की शादी एक फौजी से हुई जोगिंदर जसवंत सिंह यानी जे जे सिंह ।शादी के समय वह शायद मेजर थे और उनके पिता कर्नल ।यहां भी दोनों परिवार एक दूसरे को जानते थे ।रोहिणी के पति जे जे सिंह पहले सिख जनरल थे जो देश के बाइसवें सेनाध्याक्ष बने ।उनका कार्यकाल 31 जनवरी,2005 से 30 सितम्बर,2007 तक रहा ।उनके कार्यकाल में सेना में खासा आधुनिकीकरण हुआ । सेना से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्हें 27 जनवरी,2008 में अरुणाचलप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया ।28 मई, 2013 तक जनरल जे जे सिंह इस पद पर रहे

1972 में राजस्थान के राज्यपाल के पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद सरदार हुकम सिंह दिल्ली के रिंग रोड वाली अपनी कोठी में रहने लगे थे ।एक-दो बार मैं उनके यहां सुबह नाश्ते पर भी गया था ।एक बार मैंने सरदार हुकम सिंह से पूछा कि रिटायरमेंट की जिंदगी कैसी लग रही है?तपाक से जवाब मिला,’बहुत खुली खुली ।अब तो मैं और तुम्हारी बीजी तिपहिये पर बैठकर गोल गप्पे खाने साउथ एक्सटेंशन चले जाते हैं ।बड़ा मज़ा आता है,हमें कोई पहचानता भी नहीं ।अब प्रोटोकोल जो नहीं है ।’ जब आपके पास ‘कुर्सी’ न हो तो अक्सर ऐसा देखने को मिलता है ।मैंने कई बार ज्ञानी जैल सिंह को कनाट प्लेस के बरामदों में अकेले
घूमते हुए देखा था । टेंट काफी हाउस में भी बड़ी बड़ी हस्तियां आया करती थीं इंदर कुमार गुजराल,जग प्रवेश चंदर,डॉ राम मनोहर लोहिया से लेकर तमाम राजनीतिक,सांस्कृतिक,साहित्यिक,सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियां ।कहीं कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं । ऐसा भी एक दौर था ।

जुलाई, 1972 में राजस्थान के राज्यपाल पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद सरदार हुकम सिंह को ज़्यादा दिनों तक रिटायरमेंट का सुख नहीं मिला ।एक दिन जब मैं उनके रिंग रोड स्थित निवास पर गया तो वह बहुत लोगों से घिरे बैठे थे ।मैंने आंखों ही आंखों में जब इसका मकसद पूछा तो उन्होंने अपने पास बैठने के लिए कहा ।उन्होंने बताया कि यहां बैठे ये सिख नेता एसजीपीसी के सदस्य हैं जिन्होंने मुझे सूचित किया है कि 1873 में प्रारंभ सिंह सभा आंदोलन की एक शताब्दी समिति गठित कर मुझे उसका अध्यक्ष बनाया गया है ।इस अवसर पर होने वाले शताब्दी समारोह के सिलसिले में मुझे यूरोप के देशों और अमेरिका का दौरा करना होगा जहां सिख पंथ से जुड़े स्थानों पर जाकर खूब सामग्री एकत्र करनी है ।मेरे साथ एसजीपीसी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा और सुरजीत सिंह बरनाला भी जायेंगे ।पश्चिम गोलार्ध में सिख धर्म के नये क्षेत्र का दौरा भी शामिल है जिसमें सिरी सिंह साहिब हरभजन सिंह खालसा योगीजी (योगी भजन) द्वारा स्थापित मिशन पर विशेष ध्यान देना है ।सरदार हुकम सिंह ने एसजीपीसी को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सौंप दी लेकिन इस समिति से जुड़ाव जीवन के अंतिम दिनों तक रखना पड़ा ।27 मई, 1983 में 87 वर्ष की उम्र उनका निधन हो गया । सरदार हुकम सिंह ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ अंतिम दिनों तक दोस्ती निभायी ।पंडित नेहरू का 27 मई,1964 को स्वर्गवास हुआ था ।

लेकिन सरदार हुकम सिंह के निधन के बाद परिवार में बिखराव हो गया ।वीना और जे पी सिंह की शादी टूट गयी । वह अपने माता पिता के घर आ गयी ।मेरी बहन प्रभजोत कौर अपनी बड़ी बेटी की तलाक से दुखी तो थीं लेकिन वीना के दो बच्चे उनको ढाँढस बंधाते थे ।वीना की बेटी मीशिका बड़ी है और सयानी भी ।उसका बेटा हरप्रीत है ।वीना की साहित्य में रुचि थी ।वह कविताएँ लिखती थी और ‘बाईवर्ड’ नामक एक अंग्रेजी साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित भी करती थी ।साथ ही अपने माता पिता की सहायता किया करती थी ।प्रभजोत जी पंजाबी की लब्ध प्रतिष्ठित कवयित्री थीं जबकि कर्नल नरेंद्रपाल सिंह उपन्यासकार ।दोनों को ही अपने अपने साहित्यिक उपलब्धियों के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुए थे और दोनों को ही पदमश्री से सम्मानित किया गया था ।प्रभजोत जी को उनके कविता संग्रह ‘पब्बी’ के लिए जबकि कर्नल नरेंद्रपाल सिंह को उनके उपन्यास ‘बा मुलाहिज़ा होशियार’ के लिये साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।कर्नल नरेंद्रपाल सिंह का 2003 में 79 साल की उम्र में निधन हो गया जबकि प्रभजोत कौर का नवंबर,2016 में 92 वर्ष की आयु में ।दोनों के शताब्दी समारोह इस साल के अंत में होने की संभावना है ।वीना का निधन भी जनवरी,2021 में हो गया था । बेशक सरदार हुकम सिंह के साथ साथ इन सभी लोगों की यादें मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित हैं ।रिश्ता ही कुछ ऐसा है ।

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