भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू(14 नवंबर,1889-27 मई, 1964) की झलक लोक सभा सचिवालय में आने से पहले मैं तीन बार देख चुका था और उन्हें सुन भी चुका था ।लोकसभा सचिवालय में नौकरी के बात तो अधिवेशन के दिनों में पंडित जवाहरलाल नेहरू को देखने की आदत सी पड़ गयी ।लेजिस्लेटिव ब्रांच में काम करने के कारण इनर लॉबी और सदन के भीतर जाने के अवसर मिलते थे।सत्र के दिनों में पंडित जी आम तौर पर सदन में मौजूद रहा करते थे ।प्रश्नकाल में तो उन्हें कम ही गैरहाजिर देखा गया।कारण था विदेश मंत्रालय भी उनके पास होना ।विदेश मंत्रालय संबंधी प्रश्नों और अल्पकालिकबहस के समय वह उपस्थित रहते ।बेशक विदेश मंत्रालय में एक राज्यमंत्री लक्ष्मी मेनन थीं लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर पंडित जी स्वयं दिया करते थे ।वह दौर ऐसा था कि सांसद और मंत्री पूरी तैयारी के साथ सदन में आया करते थे।न कोई व्यवधान होता था और न ही मंत्री और सांसद के बीच तू तड़ाका।इसका एक कारण शायद यह था कि अधिकांश सांसद और मंत्री स्वतंत्रता संग्राम के दिनों के तपे हुए नेता थे और देशहित की भावना उनके लिए सर्वोपरि हुआ करती थी । उन्हें यह ज्ञात था कि स्वतंत्र भारत को निर्माण की ज़रूरत है, अंग्रेज़ों ने जिस हाल में देश को छोड़ा है उसके पुनर्निर्माण के लिए बहुत ही सोची समझी योजनाओं-परियोजनाओं की आवश्यकता है ।

क्योंकि मैं पहली लोकसभा के चौथे वर्ष यानी 1956 के मध्य में लोकसभा सचिवालय में भर्ती हुआ था लिहाजा देश के बहुत से नेताओं और मंत्रियों को नज़दीक से देखने की शुरू में उत्सुकता तो रहती ही थी। ज्यों ही हम संसद भवन में एक नंबर गेट से घुसकर एक नंबर लिफ्ट की तरफ़ जाते हैं तो पहले पार्लियामेंटरी नोटिस ऑफ़िस (पीएनओ) ब्रांच पड़ती है,उसके आगे टेबल ऑफ़िस और उपसचिव के कमरे को क्रॉस करते हुए पब्लिकेशन काउंटर के सामने वाली लिफ्ट से ऊपर तीसरी मंज़िल पर अपनी लेजिस्लेटिव ब्रांच में पहुंचने से पहले कई सांसद और मंत्री आते जाते दीख जायेंगे जिन्हें अभी तक हम केवल अखबारों में ही देखा करते थे ।यदि आप पब्लिकेशन काउंटर पर अपने किसी सहयोगी के पास खड़े हैं तो सदन के भीतर जाने वाले सांसदों और मंत्रियों को बहुत नज़दीक भी देख सकते हैं ।कभी कभी तो लिफ्ट में आते जाते भी सांसद और मंत्री आप को मिल जायेंगे। ऐसा कुतूहल थोड़े दिन का ही रहता है ।जब आप वहां काम करने लगते हैं तो यह सभी दृश्य सामान्य हो जाते हैं ।क्योंकि मेरी नियुक्ति लेजिस्लेटिव ब्रांच में हुई थी और मुझे गैरसरकारी सदस्यों के संकल्पों और विधेयकों के आये नोटिसो पर काम करना होता था इसलिए कभी कभी सांसदों से मिलने के लिए लॉबी में भी जाना पड़ता था और कभी उमाचरण पटनायक,चिंतामणि पाणिग्रही,लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, मनीराम बागडी आदि जैसे सांसद ब्रांच में भी आ जाया करते थे अपने संकल्पों या विधेयकों की स्थिति जानने के लिये।

लोकसभा सचिवालय में आकर अधिवेशन के दिनोंं में पंडित नेहरू को कमोबेश रोज़ ही देखने को मिल जाया करता था ।किसी न किसी मुद्दे को लेकर सदन की बाहरी और कभी कभी इनर लॉबी में भी जाना पड़ जाता था इसलिए पंडित नेहरू की झलक देखने को मिल जाया करती थी ।जब कभी उन्हें लोकसभा से राज्यसभा में जाना होता तो वह अमूमन सेंट्रल हाल से होकर ही जाया करते थे और आते जाते बहुत नज़दीक से भी दीख जाते थे और उन्हें देखकर हाथ अपने आप जुड़ जाते थे । गैर-सरकारी कार्य हर शुक्रवार को आधे दिन का होता था- दोपहर दो बजे से शाम पांच बजे तक ।इसकी कार्यसूची अलग होती थी ।किस संकल्प या विधेयक पर कितने समय तक चर्चा होगी यह तय करती थी गैर-सरकारी संकल्पों और विधेयकों की समिति जिसके अध्यक्ष होते हैं लोक सभा के उपाध्यक्ष यानी डिप्टी स्पीकर ।उन दिनों डिप्टी स्पीकर थे सरदार हुकम सिंह । लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के फरवरी,1956 में निधन के कारण उस समय के उपाध्यक्ष एम अनंतसायम अय्यंगर को स्पीकर बनाया गया और सरदार हुकम सिंह को सर्वसम्मति से डिप्टी स्पीकर चुना गया । तब वह अकाली पार्टी के सांसद थे ।उनके बाद ही विपक्ष से लोकसभा का उपाध्यक्ष बनाने की परंपरा पड़ी । 1957 में भी यही दोनों सांसद क्रमशः स्पीकर और डिप्टी स्पीकर चुने गये जबकि 1962 में सरदार हुकम सिंह को स्पीकर चुना गया ।

लोकसभा के सदन के दिन में तीन-चार चक्कर तो लग ही जाया करते थे ।कभी किसी सांसद से मिलने के लिये तो गैर-सरकारी संकल्प और विधेयक की समिति का कोरम पूरा करने के लिए सांसदों को इकट्ठा करने के लिए तथा कोरम पूरा होने पर उपाध्यक्ष को उनके चैंबर में साथ ले जाने तक ।यह तो मेरी हर हफ्ते की ड्यूटी थी ।इस नाते भी उस समिति से जुड़े सांसदों के साथ मेरी अच्छी खासी पहचान हो गयी थी और सरदार हुकम सिंह को उनकी चैंबर में ले जाते हुए उनसे मिलने वाले सांसद भी मुझे पहचानने लगे थे ।एक बार फिरोज गांधी ने उन्हें रास्ते में रोककर मिलने का वक़्त मांगा था और मुझसे भी दुआ सलाम हो गयी थी ।फिरोज गांधी का सेंट्रल हाल में एक निश्चित कोना था जहां वह असम की महारानी मंजुला देवी और अपने कुछ मित्रों के साथ बैठा करते थे ।

उन दिनों साल में संसद के नियमित तीन सत्र हुआ करते थे-फरवरी से मई तक बजट सत्र ।बजट 28 फरवरी को शाम पांच बजे पेश होता था।मानसून सत्र जुलाई-अगस्त और शीतकालीन सत्र नवंबर-दिसंबर में ।उन दिनों पूरे समय तक सत्र चला करते थे,कमेटी सिस्टम नहीं था अर्थात् फरवरी से मई तक बिना विराम सत्र चला करते थे, साल में करीब सात महीने ।पंडित नेहरू रोज़ बेनागा सुबह ग्यारह बजे अपनी सीट पर होते थे । उनके दो भाषणों को सुनने के लिए लोगों की कतारें लगा करती थीं और सभी दर्शक दीर्घायें भरी रहती थीं ।ये भाषण थे राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब और विदेश मंत्रालय की मांगों की बहस पर जवाब ।मज़ाल है कि उनके भाषण के दौरान कोई व्यवधान डाले।वह देश की सोच और सरकार की नीतियों पर बोला करते थे ।पंडित जी में एक सिफत यह थी कि जब भी राष्ट्रपति अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव, विदेशमंत्रालय की मांगों या और किसी महत्वपूर्ण विषय पर संसद में चर्चा होती थी तो वह पूरे समय तक सदन में बैठकर हर सांसद के विचारों को सुना करते थे और नोटस भी लेते थे ।

उनमें विपक्ष के सुझाव और आलोचना सुनने का मादा था ।वह अटल बिहारी वाजपयी, प्रकाशवीर शास्त्री, प्रो हीरेन मुकेर्जी,इंद्रजीत गुप्ता,नाथ पै, डॉ राममनोहर लोहिया जैसे विपक्ष के नेताओं को बड़े गौर से और पूरा समय सदन में बैठकर सुना करते थे ।अटल जी के एक भाषण से प्रभावित होकर सत्र की समप्ति के बाद वह उनके पास गये और उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा कि आप एक दिन शिखर पर पहुंचोगे ।सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष के रिश्ते बहुत ही मधुर और सद्भावनापूर्ण हुआ करते थे ।उनके समय ही लोक सभा के उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने पर सहमति हुई थी ।विपक्षी अकाली पार्टी के सांसद होने के बावजूद सरदार हुकम सिंह पहले उपाध्यक्ष चुने गये थे सर्वसम्मति से ।

पंडित नेहरू की नज़र खासी पैनी थी ।वह आते जाते लोगों से मिलते रहते थे ।उन दिनों सुरक्षा व्यवस्था आज जैसी पुख्ता नहीं होती थी । यहां तक कि जब पंडित नेहरू संसद से त्रिमूर्ति भवन के अपने निवास में लंच के लिए जाते तो उनका पायलट मोटरसाइकिल पर होता था।उसके पीछे पंडित नेहरू की कार और उसके पीछे एक और कार हुआ करती थी।बस इतना ही।ट्रैफिक भी एक-दो मिनट से ज़्यादा नहीं रोका जाता था । पंडित जी का पायलट पंजाबी था।अक्सर हमारी ब्रांच में आ जाता तो पंडित नेहरू से जुड़े किस्से सुनाता रहता था ।हमारी ब्रांच में हम छह-सात लोग पंजाबी थे । एक बार उन्होंने बताया कि पंडित जी का नाई बहुत पावरफुल था ।उससे से बड़े बड़े नेता पंडित जी से सिफारिश कराया करते थे ।पंडित जी रोज़ अपनी दाढ़ी बनवाते थे। कभी कभी नाई पंडित जी की दाढ़ी बनाते हुए बातचीत भी कर लिया करता था । एक बार तो हद हो गयी ।नाई पंडित जी की दाढ़ी बनाते बनाते बीच में ही उस्तरा रोककर खड़ा हो गया और पंडित जी से पूछा की क्या आप जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को हटा रहे हैं? इससे पहले कि पंडित जी कुछ बोलते नाई ने खुद ही कह दिया कि कुछ नहीं उनके हटाये जाने की ऐसी कोई खबर मेरे कान में पड़ी थी इसलिए पूछ लिया ।एक बार फिर उस नाई ने के. कामराज के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि कुछ ऐसी बातें करते बताए जाते हैं कि वह पढ़े लिखे तो हैं नहीं फिर भी पंडित जी उनकी बहुत मानते हैं तो कभी वह शास्त्री जी से उनकी करीबी के किस्से छेड़ देता ।पंडित जी भी बड़े मज़े लेकर ये किस्से सुना करते थे और मंद मंद मुस्कुराते रहते थे ।यही थोड़ा सा वक़्त उन्हें रिलैक्स करने को मिलता था।वह जानते थे घर से निकलने के बाद वह गंभीर मुद्दों से घिर जायेंगे । पंडित जी नाई की बातें सुनने के बाद जब वह कुर्सी से उठते तो पूछते कि ये खबरें तम्हें कौन देता है और तुम से कौन किसी न किसी की सिफारिश करने के लिए कहता है ।इस पर वह अचकचा जाता और घबराहट में आकर उसी बंदे का नाम बता देता जिसने उसे पंडित जी से सिफारिश करने को कहा होता था। वह बेचारा बहुत मासूम था,पंडित जी से झूठ नहीं बोल सकता था ।कभी कभी पंडित जी उस नाई की तारीफ भी करते हुए कहते कि तुम्हारे पास अच्छी जानकारियां होती हैं । तुम्हारी मार्फत मुझे अपने ‘रहनुमाओं’ की सोच का पता चलता रहता है ।शुक्रिया ।’क्या आपसे लोग संपर्क नहीं साधा करते थे’, मैंने एक बार पंडित नेहरू के पायलट से पूछा।वह बोले,आम तौर पर राजनेता बहुत शातिर होते हैं ।उन्हें मालूम होता है कि भला इस पायलट की पंडित जी तक कहां पहुंच होगी और इसकी क्यों सुनेंगे। अपनी जगह उनका नजरिया सही था ।लेकिन उन बेचारों को पंडित जी के मानवीय गुणों की जानकारी नहीं थी ।वह दौर ऐसा था कि जब हर बड़ा आदमी अपने साथ जुड़े हुए लोगों का पूरा ख्याल रखता था ।उनमें मैं भी शामिल था ।मुझसे कभी कभी कुछ नेता अपनी बात पंडित जी तक पहुंचाने के लिए जब कहते तो मैं हाथ जोड़ देता था ।

मैं 1956 से दिसंबर,1965 तक लोकसभा सचिवालय में रहा। 27 मई, 1964 को पंडित जी का निधन हुआ था यानी मैंने पंडित नेहरू को करीब आठ बरसों तक नज़दीक से देखा था,सांसदों और आम लोगों से मिलते जुलते, उनकी बातें-शिकायतें-मांगें सुनते देखा था ।कभी कभी उन्हें मज़ाहिया अंदाज़ में भी देखा था तो कभी झिड़कते-घूरते-डांटते हुए भी ।संसद भवन के लॉन में कांग्रेस पार्टी के सदस्यों के साथ हँसते हुए भी देखा था तो केंद्रीय कक्ष में सांसदों को लतियाते हुए भी । अब जो बातें मैं शेयर करने वाला हूं वह आंखों देखी हैं सुनी सुनाई नहीं ।मेरी भी उनसे संक्षिप्त बातचीत हुई है जो उनसे केंद्रीय कक्ष में उनके राज्यसभा से आते जाते हुई थी ।क्योंकि मैंने करीब दस बरस तक लोक सभा सचिवालय में काम किया था लिहाजा वहां के सहयोगियों-साथियों के अतिरिक्त सांसदों-मंत्रियों से मुलाकातें और बातचीत आम बात हुआ करती थी ।उस समय के खुले दौर में सभी लोगों के बीच एक किस्म का ‘दोस्ताना’ रिश्ता होता था ।क्योंकि हमारी ब्रांच के साथियों का सदन में आना-जाना लगा रहता था इसलिए प्रधानमंत्री पंडित नेहरू सहित बहुत से मंत्री भी हमें चीन्ह्ते थे।

एक सांसद थे उपाध्याय जी ।वह अक्सर कुछ लोगों को पंडित जी से मिलवाने के लिए लाया करते थे।इनमें महिलाएं और लड़कियां भी काफी होती थीं ।उन मुलाकातियों को लेकर कभी वह तीनमूर्ति भवन पहुंच जाते तो कभी केंद्रीय कक्ष में पंडित जी के राज्यसभा में आने जाने का इंतज़ार करते ।पहले कुछ समय तक दो-चार मिनट रुक कर पंडित जी उन मुलाकातियों से मिलते हालचाल पूछते और अपने काम में लग जाते ।तीन-चार बार तो पंडित जी ने उपाध्याय जी के साथ आने वाले लोगों से मिलना जारी रखा लेकिन जब पंडित जी ने देखा कि यह तो उपाध्यायजी की आदत बनती जा रही है तो उन्हें गुस्सा आ गया और उन्हें
डांटते हुए कहा, उपाध्याय जी आपको कोई और काम भी काम है कि नहीं ।उसके बाद उपाध्याय जी की हिम्मत न हुई ऐसे मुलाकातियों से पंडित जी से मिलवाने की।

पंडित जवाहरलाल नेहरू को संसद में मैंने आठ साल तक देखा है । इन आठ बरसों में करीब सवा दो सौ दिन तो संसद का सत्र चला होगा ।वह संसद के सत्र के दौरान सदा उपस्थित रहते ।वह उस दिन 8 सितम्बर, 1960 को भी लोकसभा आये थे जिस दिन उनके दामाद फिरोज गांधी का निधन हुआ था ।जब किसी सांसद ने उन्हें आज लोकसभा न आने की सलाह दी तो उनका दो-टूक उत्तर था कि ‘इन्दु (इंदिरा गांधी) सारी व्यवस्था देख और संभाल रही है ।’ लोकसभा में सभी पार्टियों के सदस्यों ने फिरोज गांधी के असामयिक निधन पर श्रृद्धांजलि दी थी ।सदन का नेता होने के नाते पंडित नेहरू ने भी अपने दिवंगत साथी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की ।

पंडित जवाहरलाल नेहरू की आदत थी कि लोक सभा, राज्यसभा या केंद्रीय कक्ष में उन्हें जो भी सांसद मिलने के लिए खड़ा होता वह उससे ज़रूर मिला करते थे और उनकी समस्याएँ सुनकर उनका समाधान भी कर देते थे ।कभी कभी दो-तीन सांसदों के बीच की गरमागरम बहस या तल्खी देख उसमें हस्तक्षेप भी कर लिया करते थे ।वह सभी सांसदों के बीच परस्पर सद्भावना बनाये रखने बहुत महत्व देते थे ।एक खासियत उनमें यह भी थी कि कभी किसी व्यक्ति को जब कई बार सदन की इनर लॉबी या सदन के भीतर खड़ा हुआ अक्सर देखते थे तो उसकी कैफ़ियत भी लेने में हिचकते नहीं थे जैसे हम लोगों को अक्सर इनर लॉबी या सदन के भीतर के दरवाजे के पास कई बार खड़ा देखकर हमारे वहां खड़ा होने का मकसद भी पूछ लेते थे ।इस संदर्भ में कुछ बहुत महत्वपूर्ण ‘आंखों देखी’ साझा कर रहा हूं ।

एक बार पंडित नेहरू लोकसभा के सदन से निकल इनर लॉबी से गुजरते हुए राज्यसभा की तरफ़ जा रहे थे तो बीच में एक सोफे पर पल्थी मारे बैठे लोकसभा सांसद प्रो. दीवान चंद शर्मा उठे और पंडित जी की तरफ़ मुखातिब होकर बोले,’पंडित जी आपकी उम्र क्या होगी? इसपर पंडित जी चौंके और कहा कि प्रोफेसर साहब यह कैसे सवाल है,बहरहाल मेरी उम्र के बारे तो आप जानते ही मगर असली मुद्दा क्या है । प्रो साहब ने पूछा आप अगला चुनाव लड़ेंगे,पंडित जी जवाब दिया कि जरूर लडूंगा ।लेकिन इससे आपका क्या संबंध इस पर शर्मा जी का सवाल का उत्तर था कि आप जब मुझसे सात साल बड़े होकर चुनाव लड़ सकते हैं तो मेरे आड़े मेरी उम्र क्यों आ रही है और मुझे अगला चुनाव लड़ने की टिकट क्यों नहीं दी जा रही है । पंडित जी ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है,’आप तो इस हाउस की रूह हैं अगर रूह ही निकल जाएगी तो हम लोग क्या करेंगे।आपको टिकट देने से मना कौन कर सकता है? वही प्रताप सिंह कैरो, प्रो दीवान चंद शर्मा ने कहा । इस पर पंडित नेहरू ने उन्हें आश्वासन दिया कि आपको टिकट मिलेगा और चुनाव जीतकर आयेंगे और इस सदन की शोभा बढ़ायेंगे ।मार्च, 1896 में जन्मे प्रो दीवान चंद शर्मा पहली लोक सभा चुनाव होशियारपुर से लड़ कर जीते थे जबकि दूसरा,तीसरा और चौथा गुरुदासपुर से विजयी हुए थे ।

ऐसा एक और प्रकरण याद आ रहा है ।केंद्रीय कक्ष में राजा महेंद्र प्रताप सिंह बैठे कोई अध्ययन कर रहे थे कि इतने में भक्त दर्शन उनके पास पहुंचे और राजा महेंद्र सिंह को संबोधित करते हुए कि श्रीमन आपने तो बड़े झंडे गाड़े हैं । भक्त दर्शन का ‘श्रीमन’
तकियाकलाम था,वह सभी को ऐसे ही संबोधित किया करते थे ।अभी राजा महेंद्र प्रताप उन्हें कोई एक घटना बताते वह पूरी भी नहीं हुई होती तो दूसरी ‘श्रीमन’ कहकर दूसरी पूछनी शुरू कर देते ।जब भक्त दर्शन तीन-चार बार ‘श्रीमन’ कहकर राजा साहब से सवाल पूछ रहे थे तो थोड़ी दूर पर बैठे प्रो दीवान चंद शर्मा से रहा नहीं गया ।उन्होंने देखा कि राजा साहब उनके सवालों से कुछ असहज-सा अनुभव कर रहे हैं वह अपनी पल्थी से उठे और भक्त दर्शन से बोले ‘अरे ओ श्रीमन की औलाद जिसे तू परेशान कर रहा है वह तेरे बाप की उम्र से भी बड़ा है और देश के लिए जितना इन्होंने बलिदान किया है तू सोच भी नहीं सकता और मैं दूर से देखकर रहा हूं कि तुम इन्हें तंग किये जा रहे हो।’भक्त दर्शन कुछ झेंपे ज़रूर, इससे पहले कि वह और कुछ पूछते, इन सांसदों के बीच कहासुनी सुन राज्यसभा से लौटते हुए पंडित नेहरू भी वहां पहुंच गये और भक्त दर्शन से पूछा कि राजा साहब के बारे में क्या और कितना जानते हैं ।जब भक्त दर्शन से कोई उत्तर देते नहीं बना तो पंडित जी ने उन्हें बताया कि राजा साहब मुझसे भी उम्र में तीन साल बड़े हैं ।शाही परिवार के होते हुए भी उन्होंने देश और विदेश में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम का जो बीड़ा उठाया था वह बेमिसाल है ।उन्होंने अपनी सारी संपति दान में दे दी ।अगली पीढ़ियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल,कॉलेज आदि खोले। राजा साहब ने 1915-1919 तक काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति वह स्वयं थे ।वह 1946 तक विश्व के विभिन्न देशों में रहते हुए अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते रहे और उन्होंने विश्व मैत्री संघ की स्थापना की ।राजा महेंद्र सिंह ‘आर्यन पेशवा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और न यह सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं बल्कि क्रांतिकारी,समाज सुधारक और महान दानवीर है ।हम सब के लिए तो यह गर्व की बात है कि आप ऐसी महान शख्सियत के सानिध्य में हम लोकसभा के सदस्य हैं ।ऐसे लोगों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए बल्कि उनसे सीख प्राप्त करनी चाहिए ।पंडित इतना कहकर चले गये और भक्त दर्शन का सिर झुक गया और राजा महेंद्र सिंह से क्षमायाचना की ।राजा साहब ने उन्हें आशीर्वाद दिया ।मेरी खुशकिस्मती है कि मैं भी राजा महेंद्र सिंह से मिला हूं ।वह 1957 से 1962 तक लोकसभा के सदस्य रहे ।उन्होंने अपना हस्ताक्षरयुक्त मुझे अपना लिटरेचर दिया था जो मुझसे कहीं खो गया । लोकसभा सचिवालय में जिस दौर में मैंने काम करता था वह निस्संदेह देश की महान विभूतियों,विद्वानों और बुद्धिजीवियों का समय था जो उनकी बातचीत सदन में दिए गये भाषणों से पता चलता है ।

ऐसा बात भी नहीं है कि मैं हमेशा लोकसभा की लॉबी और सेंट्रल हाल में घूमता ही रहता था बल्कि वहां सिर्फ काम से ही जाना होता था ।सत्र के दिनों में हर किसी को इनर लॉबी में जाने की अनुमति नहीं होती थी ।सदन के कार्यों से संबंध रखने वाली शाखाओं के पास एक हरे रंग का टोकन होता था जिसे वॉच ऐंड वार्ड के कर्मचारी को दिखाकर ही इनर लॉबी में प्रवेश किया जा सकता है ।सदन के भीतर स्पीकर के आसन के नीचे लोकसभा सचिव बैठते थे ।उनके सामने एक बड़ा सा टेबल होता था जिसपर अमूमन लोकसभा के उपसचिव,अपर सचिव, शाखा प्रमुख बैठते थे और उनकी बगल में संसदीय रिपोर्टर -एक अंग्रज़ी का और एक हिंदी का जो हर सांसद के भाषण की डिक्टेशन लिया करते थे ।हरेक की ड्यूटी दस मिनट की हुआ करती थी।वह अपने कमरे में जाकर स्टेंसिल काटता था।इस तरह कई रिपोर्टर अपनी अपनी बारी से आते जाते थे ।जिन दिनों लोकसभा सचिवालय में मेरी नियुक्ति हुई तब लोकसभा के अध्यक्ष एम ए अय्यंगार थे और सचिव महेश्वरनाथ कौल ।उन दिनों उपसचिव एन सी नंदी थे ।शाखा प्रमुख उसी समय सदन में जाता था जब उनकी ब्रांच से संबंधित कोई मैटर आना होता था ।उन दिनों लेजिस्लेटिव ब्रांच के प्रमुख थे के के सक्सेना।हम लोगों से कोई इनर लॉबी या सदन में दरवाजे के पास इसलिए खड़े रहते थे ताकि किसी भी मुद्दे की जानकारी की ज़रूरत हमारे एसओ या डीएस (एल) यानी सेक्शन ऑफिसर और डिप्टी सेक्रेटी (लेजिस्लेटिव) हो तो हम उपलब्ध रहें अन्यथा लॉबी असिस्टेंट भट्ट को ब्रांच में भागना पड़ता था।हम लोगों की इनर लॉबी या सदन के भीतर की उपस्थिति न तो कभी पंडित नेहरू की नज़रों से चूकी और न ही दूसरे मंत्रियों और सांसदों की निगाहों से ही ।

ऐसे ही किसी सांसद से मिलने के लिए इनर लॉबी में उनका इंतज़ार कर रहा था कि इतने में क्या देखता हूं कि पंडित नेहरू तेज़ कदमों से सदन से निकलकर राज्यसभा की तरफ़ जा रहे हैं और मुझ से टकराते टकराते बचे। मैंने अपने आपको बचाते हुए उन्हें देखकर दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया ।मुझसे छूटते ही बोले, कुछ लगा तो नहीं ।फिर हंसकर बोले, तेज़ चलना मेरी आदत है ।हमेशा की तरह फिर मुझे गौर से देखने के बाद बोले,’नौजवान आप यहां काम करते हैं?’ मैंने जी,यहां लेजिस्लेटिव ब्रांच में हूं । आपको अक्सर यहां देखा है,कोई खास वजह।जी मैं किसी न किसी माननीय सदस्य से उनके संकल्प या विधेयक पर चर्चा करने के लिए आता हूं ।और सदन के भीतर! मैंने बताया कि अपने अधिकारी को कोई पेपर देने के लिये। कई बार आपको बहुत देर तक रुके हुए भी देखा है ।अब मुझमें कुछ हिम्मत आ गयी थी और मैंने बेबाकी से कह दिया,आपको सुनने के लिये ।वैसे पंडित जी मैं 1951 से आपको सुन रहा हूं पहले रायपुर में,1955 में भिलाई में और दिल्ली में तब जब आपने रिफुजी कॉलोनी का नाम बदल कर पंजाबी बाग रखा था।जबसे मैं यहां लोकसभा सचिवालय में आया हूं आपको सुनना और देखना कभी नहीं भूलता,मुझे इससे ऊर्जा मिलती है । मेरे कंधे पर पंडित जी ने हाथ रखा और पहले जैसे तेज़ कदमों के साथ ही राज्यसभा की तरफ़ बढ़ गये ।मेरे लिए तो यह किसी सपने से कम नहीं था परंतु यह थी सोलह आने हक़ीक़त ।इसके बाद जब भी पंडित जी मिलते तो मुस्कुरा देते और कभी कभी कंधे पर अपना हाथ रखकर आशीर्वाद भी दे देते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ इतनी मुलाकातें और यादें हैं जिन्हें कलमबद्ध करना आसान नहीं । एक बार यशपाल कपूर ने कहीं पंडित जी मुझे मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए देख लिया और बोले ‘की गल ऐ अजकल पंडत जी बड़े मेहरबान ने।’ मैंने कहा कि ‘हां उनका आशीर्वाद है ।’ फिर मैंने उनसे आग्रह किया कि ‘कभी इंदिरा जी से मिलवओ’।हंस कर टालते हुए बोले जब कांग्रेस पार्टी के लोग चाय के लिए इधर लॉन में इकट्ठा होंगे तो मिल लेना ।’ यशपाल कपूर इंदिरा गांधी के करीबी लोगों में से माने जाते थे लेकिन पंडित जी के पास भी उनका आना जाना था ।


पंडित नेहरू जितना व्यक्तियों का आदर सम्मान करते थे संवैधानिक संस्थाओं और उनसे जुड़े व्यक्तियों का कहीं ज़्यादा । कुछ सांसदों का सुझाव था कि किसी मुद्दे पर वोटिंग करने की लिए उन्हें अपनी सीट से उठकर लॉबी में जाकर पर्ची की प्रणाली के स्थान पर ऑटोमेटिक प्रणाली होनी चाहिए ताकि सांसद अपनी सीटों पर बैठे बैठे ही मतदान कर सकें ।उन दिनों संसद एक स्वायत संस्था थी और उसके अपने नियम और कायदे थे।सरकारी बजट में उनके व्यय की व्यवस्था होती थी ।लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से सांसदों के सुझावों को सरकार के विचारार्थ भेज दिया गया ।उससे स्वीकृति मिलने के बाद जब लोकसभा में वोटिंग मशीन लग गयी तो उसकी कार्यकुशलता देखने की गर्ज़ से पंडित नेहरू वहां आये थे।जब इंजीनियरो ने मशीन का प्रदर्शन करना चाहा तभी किसी अधिकारी ने सुझाव दिया कि स्पीकर साहब को भी बुला लेना चाहिए ।सुझाव अच्छा था लेकिन उसके कहने का ढंग पंडित जी को पसंद नहीं आया ।उन्होंने उस अधिकारी को डांटते हुए कहा कि आपको इतना भी पता नहीं कि स्पीकर साहब को बुलाया नहीं जाता बल्कि उनके चैंबर में जाकर उन्हें आने के लिए निवेदन किया जाता है ।लोकसभा सदन के भीतर से स्पीकर के चैंबर में जाने के लिए एक दरवाज़ा है ।पंडित जी ने स्वयं जाकर पहले चैंबर का दरवाज़ा खटखटाकर खोला और झांककर पूछा,’मैं आ सकता हूं सरदार साहब ।’ उन दिनों सरदार हुकम सिंह लोकसभा के माननीय अध्यक्ष थे ।पंडित जी को देखकर बोले, ‘तशरीफ़ लाएं पंडित जी’। पंडित नेहरू ने उनके सामने रखी कुर्सी पर बैठते हुए उन्हें बताया कि ऑटोमेटिक वोटिंग मशीन सदन में लग गयी है ।मेरा निवेदन है कि आप भी चल कर उसकी कार्यकुशलता देख लें । स्पीकर साहब को सभी लोग सरदार साहब कहकर संबोधित किया करते थे । जब सरदार साहब को साथ लेकर पंडित जी उनके कक्ष से बाहर आये तो स्पीकर साहब को उनके आसन पर बिठाया गया जबकि पंडित जी और कुछ और अन्य लोग सांसदों की सीटों पर बैठे।स्पीकर ने जब आदेश दिया ‘वोटिंग’ तो इंजीनियरो के निर्देश के अनुसार ‘हां’ और ‘न’ के बटन दबाए गये । पहली बारी में ही परिणाम सही निकले ।इसके बाद भी इस ऑटोमेटिक वोटिंग मशीन का कई कोणों से परीक्षण करने के बाद पंडित नेहरू और स्पीकर दोनों ने कहा कि तब तक कंपनी के इंजीनियर यहां पर रहेंगे जब तक लोकसभा सचिवालय के कर्मचारी पूरी तरह से प्रशिक्षित और पारंगत नहीं हो जाते ।पंडित जी स्पीकर साहब को उनके कक्ष में छोड़ने के बाद जब बाहर आये तो उन्होंने वहां जुड़े अधिकारियों को बताया कि ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस के अनुसार लोकसभा के अध्यक्ष का पद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद आता है,प्रधानमंत्री का चौथा स्थान है ।ऐसी स्थिति सभी लोकतंत्री देशों में है ।अमेरिका में तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के त्यागपत्र के बाद वहां की निम्न सदन यानी प्रतिनिधिसभा का स्पीकर राष्ट्रपति भी रह चुका है ।हम भी अपने यहां के लोकसभा अध्यक्ष को वैसा ही सम्मान देते हैं इसीलिये मैं खुद स्पीकर साहब को एस्कार्ट करके लाया था ।

बेशक पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीते जी लोक सभा के माननीय अध्यक्ष का वैसा ही रुतबा और सम्मान रहा जैसे कि पश्चिमी देशों में है । उनके अवकाश प्राप्त करने के बाद किसी राज्य का राज्यपाल तो बनाया जाता रहा है लेकिन मंत्री नहीं बनाया गया । पंडित नेहरू के बाद इस परंपरा का निर्वाहन नहीं हो पाया । पंडितजी के समय एक और परंपरा थी ।वह बॉर्डर पर तैनात सैनिकों के मनोरंजन के लिए फिल्मी सितारे भेजा करते थे ।इनमें एक प्रमुख नाम था सुनील दत्त और नरगिस दत्त का ।उनकी एक संस्था थी अजंता आर्ट्स कल्चरल ट्रूप्स । एक बार इस सिलसिले में सुनील दत्त पंडित नेहरू से मिलने के लिए आये थे संसद भवन में । वह गलती से पहले संसद के स्वागत कक्ष में पहुंच गये जहां लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय के कर्मचारी एक दूसरे के सामने बैठते थे ।लोकसभा की तरफ़ मेरा एक दोस्त था प्रेम बाटला। उसने फोन करके बताया कि अभिनेता सुनील दत्त आया है ।उन्हें अभी मैं पंडित नेहरू के निजी सचिव के. राम के पास छोड़कर आया हूं ।पंडित जी से मिलने के बाद वह हम लोगों से भी मिलेंगे ।मैंने एस जे सिंह से पूछ लिया है वह कैमरा लाया है ।हम लोग उनके साथ फोटो लेंगे और तुम चाहो तो बातचीत भी कर लेना ।अच्छा अवसर था ।मैं नीचे स्वागत कक्ष में पहुंच गया ।एस जे सिंह राज्यसभा में बैठते थे।उन्हें फोटोग्राफी का भी शौक था ।वह प्रसिद्ध फोटोग्राफर ओ पी शर्मा के शागिर्द थे ।अपने वादे के मुताबिक पंडित जी से मिलने के बाद सुनील दत्त स्वागत कक्ष में आ गये ।हम सभी लोग उन्हें लेकर संसद भवन के पीछे के एक लॉन में ले गये जहां एस जे सिंह हम सभी की सुनील दत्त के साथ फोटो खींचीं ।बाद में उनके साथ भी एक ग्रुप फोटो हुई ।एक बातचीत में सुनील दत्त ने बताया था कि पंडित जी चाहते हैं कि मैं अपने ग्रुप के साथ सैनिकों का मनोरंजन करने के लिए लद्दाख जाऊं और साथ में कुछ और अभिनेताओं और गायकों को भी लेकर जाऊं ।अब मैं बंबई (अब मुंबई) पहुंचकर अपनी पत्नी नरगिस दत्त के साथ सलाह मशविरा करके पंडित जी को सूचित कर दूंगा ।उसके बाद हमारा बॉर्डर जाने का यथोचित प्रबंध कर दिया जायेगा ।यह शायद 1963 की बात है ।तब न तो सुनील दत्त और न ही नरगिस दत्त संसद की सदस्य थीं । सुनील दत्त से तो मेरी बाद में भी मुलाकातें होती रहीं जिन पर आगे कभी चर्चा होगी ।

जैसे मैंने कहा कि पंडित नेहरू और उनके अतिरिक्त भी बहुत से मंत्रियों को देखने-मिलने-सुनने का अवसर प्राप्त हुआ जिसे मैं अपने जीवन की ऐतिहासिक घटना मानता हूं ।1956 में जब मैंने लोकसभा ज्वायन किया तो उस समय के मंत्रियों में प्रमुख थे अबुल कलाम आजाद, सी डी देशमुख, गुलजारीलाल नंदा, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम राजकुमारी अमृत कौर, लाल बहादुर शास्त्री,मोहम्मद करीम छागला,सरदार स्वर्ण सिंह, गोविंद बल्लभ पंत, सत्य नारायण शर्मा, यशवंतराव चव्हाण, बलिराम भगत,राजा दिनेश सिंह, अजित प्रसाद जैन,हुमायूं कबीर, वी के कृष्णा मेनन,अशोक सेन,डॉ कैलाश नाथ काटजू,ललित नारायण मिश्र,केशव देव मालवीय,के. कामराज,टी टी कृष्णमाचारी,बी वी केसकर, डॉ सुशीला नैयर,विद्या चरण शुक्ल,डॉ त्रिगुण सेन, मनु भाई शाह, राज बहादुर,महावीर त्यागी,डॉ. रामसुभग सिंह, जयसुखलाल हाथी आदि । इन सभी को मैंने देखा था,दुआ सलाम सभी से थी,बातचीत भी बहुत लोगों से की थी ।हालांकि मैंने लिखना तो 1952-53 में शुरू कर दिया था लेकिन कुछ पारिवारिक हालात के चलते बीच में करीब दस बरस का विराम आ गया था ।1962-63 में जब मेरी लिखने की तलब फिर से हुई तो मैंने कई लोगों का इंटरव्यू लेकर छपवाया था ।इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा कुछ सांसद भी थे । 1963 से 1966 तक गुलज़ारीलाल नंदा गृह मंत्री थे और वरिष्ठता में वह दूसरे स्थान पर ।इसीलिए मई, 1964 में पहले पंडित नेहरू के निधन और जनवरी, 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे-दोनों बार तेरह दिनों के लिये ।

मुलाकातें बहुत लोगों से थीं लेकिन इस पोस्ट में केवल मैं राजकुमारी अमृत कौर अहलूवालिया का ही जिक्र करूंगा । उनका स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ लंबे समय तक जुड़ाव रहा तथा राष्ट्रहित में उनके द्वारा दिये गये दान और योगदान की पंडित नेहरू अक्सर चर्चा किया करते थे ।वह स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कर्यकर्ता थीं तथा महात्मा गांधी की अनुयायी थीं और 16 बरस तक उनकी सचिव रहीं ।राजकुमारी अमृत कौर स्वतंत्र भारत की पहली स्वास्थ्य,परिवार और कल्याण मंत्री थीं जो 1947 से 1957 तक इस पद पर रहीं ।उन्होंने खेलमंत्री और शहरी विकास मंत्री का भी कार्यभार संभाला था।राजकुमारी अमृत कौर ने 1956 में नयी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।एम्स की स्थापना के लिए धन जुटाने में उनके भाइयों में से एक ने अपनी पैतृक संपत्ति और मकान बेच दिया।इसके अतिरिक्त उन्होंने स्वीडन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड,पश्चिम जर्मनी आदि देशों से भी सहायता ली । उनकी अपनी निजी जो संपति थी वह भी एम्स के निर्माण में दान कर दी।वह एम्स की अध्यक्ष भी रहीं ।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनेताओं का देश निर्माण के प्रति ऐसा ही जज्बा था । इसी प्रकार राजकुमारी को खेलों से बहुत प्रेम था ।वह टेनिस की बेहतरीन खिलाड़ियों में मानी जाती थीं ।उन्होंने ही नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ़ इंडिया की स्थापना की और उसकी अध्यक्ष भी रहीं ।राजकुमारी अमृत कौर टीबी एसोसियेशन ऑफ़ इंडिया,हिंद कुष्ट निवारण संघ,लीग ऑफ़ रेडक्रॉस सोसाइटीज़,बाल कल्याण आदि से जुड़ी रहीं तथा दिल्ली म्यूज़िक सोसाइटी की भी अध्यक्ष रहीं । उनकी इन तमाम रुचियों को लेकर मेरी उनसे मुलाकातें हुआ करती थीं ।उनके निजी सचिव बलवंत कपूर के माध्यम से मेरी उनसे मुलाकातें हुई करती थीं ।वह बहुत ही सौम्य, उदार और मधुर स्वभाव की थीं ।

2 फरवरी,1887 में लखनऊ में जन्मी राजकुमारी अमृत कौर अहलूवालिया वास्तव में कपूरथला के राजा रणधीर सिंह के छोटे बेटे राजा सर हरनाम सिंह अहलूवालिया की बेटी थीं ।सिंहासन के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष के बाद उन्होंने कपूरथला छोड़ दिया था और अवध की पूर्व रियासत में सम्पदा के प्रबंधक बन गये थे ।एक मिशनरी गोलखनाथ चटर्जी के आग्रह पर ईसाई धर्म अपना लिया और बाद में चटर्जी की बेटी प्रिसिला से शादी कर ली ।उनके दस बच्चे थे,अमृत कौर सब से छोटी और इकलौती बेटी थी । वह बहुत विदुषी महिला थीं,उनका फूलों और बच्चो से बड़ा प्रेम था ।स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के बाद उन्होंने खादी अपना ली थी ।स्कूल और कॉलेज की इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद वह पूरी तरह से स्वदेशी थीं ।वह पूर्ण शाकाहारी थीं ।बेशक उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था बावजूद इसके वह बाइबल के अतिरिक्त रामायण,गीता और गुरु ग्रंथ साहब का पाठ किया करती थीं ।उनका कहना था इससे उन्हें बहुत सुकून मिलता था ।राजकुमारी अमृत कौर के इन गुणों की चर्चा उनके
निजी सचिव रहे बलवंत कपूर ने की थी ।राजकुमारी अमृत कौर के निधन के बाद बलवंत कपूर लंदन में जाकर बस गये थे ।वहां रहते हुए वह कांग्रेस पार्टी का काम किया करते थे ।दिल्ली आने पर उनसे मुलाकात होती रहती थी।पिछले वर्ष लंदन में उनका निधन हो गया ।

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