आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं, बदल रहे हैं अथवा बदल दिए गए हैं, नतीजतन, उन पत्रकारों के सामने भटकाव जैसी स्थिति आ गई है, जो पत्रकारिता को मनसा-वाचा-कर्मणा अपना धर्म-कर्तव्य और कमज़ोर-बेसहारा लोगों की आवाज़ उठाने का माध्यम मानकर इस क्षेत्र में आए और हमेशा मानते रहे. और, वे नवांकुर तो और भी ज़्यादा असमंजस में हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में सोचकर कुछ आए थे और देख कुछ और रहे हैं. ऐसे में, 2005 में प्रकाशित संतोष भारतीय की पुस्तक-पत्रकारिता: नया दौर, नए प्रतिमान हमारा मार्गदर्शन करती और बताती है कि हमारे समक्ष क्या चुनौतियां हैं और हमें उनका सामना किस तरह करना चाहिए. चार दशक से भी ज़्यादा समय हिंदी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले संतोष भारतीय देश के उन पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं, जो देश और समाज से जुड़े प्रत्येक मुद्दे पर निर्भीक, सटीक, निष्पक्ष टिप्पणी करते हैं.
जब एक स्त्री डाकू बदला लेने पहुंचती है-3
बेहमई और आसपास के अन्य गांव राजपुर विधानसभा क्षेत्र में आते हैं. यह विधानसभा क्षेत्र शायद मध्य उत्तर प्रदेश में एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां घोर जातीय नारों के आधार पर चुनाव होते हैं और उम्मीदवार की जीत भी जातियों के इकट्ठे होने-न होने पर निर्भर होती है. इस बार भी इस इलाके से अर्जक संघ के राम स्वरूप वर्मा विधायक हैं. अर्जक संघ घोषित रूप से पिछड़ों का दल है और उसके नेता राम स्वरूप वर्मा ही उसके जन्मदाता हैं.
वह इस क्षेत्र से चौथी बार विधायक चुने गए हैं. जनता पार्टी की हवा में चुने गए राकेश चतुर्वेदी के पहले तीन चुनावों में वह ही विजयी उम्मीदवार थे. वह 1967 में राज्य में बनी सम्मिलित सरकार के वित्त मंत्री भी रह चुके हैं. वह व्यक्तिगत रूप से वर्ण-संघर्ष के पक्षधर और मौजूदा ब्राह्मणवादी सामाजिक ढांचे के विरुद्ध हैं. उनका अर्जक संघ उनके इन विचारों को व्यवहारिक रूप देने का ही एक माध्यम है, जिसके ज़रिये समय-समय पर ब्राह्मणवादी संस्कृति पर सीधी चोट करने की कार्रवाइयां होती रहती हैं.
इस इलाके में कुर्मियों व ब्राह्मणों की आबादी लगभग बराबर है, लेकिन आर्थिक संपन्नता कुर्मियों में अधिक है और यहां के ब्राह्मणों के म़ुकाबले वे शिक्षित भी ज़्यादा हैं. इसने उनमें सामाजिक सम्मान पाने की जो भूख पैदा कर दी है, उसे राम स्वरूप वर्मा टुकड़ों-टुकड़ों में तुष्ट करते रहे हैं. अर्जक संघ द्वारा किया जाने वाला नाटक शम्बूक वध भी, जिसमें ब्राह्मणों के मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा शम्बूक नाम के एक शूद्र तपस्वी की हत्या कराके राम राज्य की परिकल्पना का मज़ाक उड़ाया जाता है, उसी पुष्टिकरण की एक कड़ी है.
कोई ढाई वर्ष पहले, जब राम स्वरूप वर्मा अपने प्रभाव में कुछ कमी महसूस कर रहे थे, तो उन्होंने इस इलाके में अर्जक संघ के लोगों द्वारा सार्वजनिक रूप से रामचरित मानस की प्रति जलाए जाने की घोषणा कर दी थी. इसने उनके अनुयायियों को एक तुष्टि ज़रूर प्रदान की, लेकिन इससे क्षेत्र में जातीय द्वेष की आग और गाढ़ी हो गई.
यह जातीय द्वेष का तीखापन इस क्षेत्र के हर वर्ग व जाति के व्यक्ति में देखा जा सकता है. इसने सीधे-सीधे यहां के लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया है, सवर्ण और पिछड़ा. सवर्णों की अगुवाई ब्राह्मणों के हाथों में है और ठाकुर उनके साथ हैं. जबकि पिछड़ों की डोर कुर्मियों के पास है और बाकी जातियां उनके पीछे हैं. घोर जातीय आधार पर यह विभाजन यहां के सामान्य सामाजिक जीवन में भी दिखता है.
कुर्मी ब्राह्मणों के बीच नहीं बैठते और ब्राह्मण कुर्मियों के बीच नहीं, क्योंकि दोनों को अकेला पड़ने पर अपमानित किए जाने का खतरा रहता है. यहां तक कि क्षेत्र की अन्य पिछड़ी जातियों के मज़दूर भी यह जातीयता निभाते हैं और वे किसी पंडित या ठाकुर के यहां मज़दूरी करने के बजाय कुर्मी के यहां काम करना अधिक पसंद करते हैं. यही सवर्णों में भी है. इस तरह कहा जा सकता है कि यहां पर आदमी नहीं, बल्कि ब्राह्मण-ठाकुर बसते हैं या फिर कुर्मी-यादव.
दस्यु गिरोहों में भी इस जातीय सोच की शिनाख्त की जा सकती है. बताते हैं कि लालाराम-श्रीराम द्वारा विक्रम को मारे जाने के पीछे भी यही सोच थी. उससे पहले विक्रम ने खड़गोई गांव के बृज वल्लभ सिंह को, जो लालाराम-श्रीराम का मौसेरा भाई था, मरवा दिया. उसकी मौत से आहत होकर उसकी बहन तभी उनके पास आई और बोली कि तुम लोग या तो उसकी मौत का बदला लो या फिर बीहड़ छोड़ दो. तुम्हारे बीहड़ में रहने से हमें क्या फायदा? इसका लालाराम-श्रीराम पर बड़ा असर पड़ा.
वस्तुत: जबसे गिरोह पर विक्रम मल्लाह का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, वे उससे मन ही मन जलने लगे थे. इस घटना ने उन्हें उसका दुश्मन ही बना दिया. विक्रम की मौत के बाद भी लालाराम-श्रीराम ने अपनी जाति के लोगों के अहं की पुष्टि के लिए मल्लाहों व अन्य पिछड़ी जातियों के लोगों को सताने का जो घिनौना सिलसिला शुरू किया, उसने इलाके में सक्रिय अन्य प्रतिद्वंद्वी डाकू गिरोहों को भी नहीं बख्शा.
इस दौरान अपनी जाति को छोड़कर अन्य जातियों के लोगों को ही निशाना बनाने की वारदातें सामने आईं. लालाराम-श्रीराम के बारे में बताया जाता है कि उन्हें मान सिंह की तरह का लोकप्रिय डाकू सरदार बनने का चस्का लग गया. वे इलाके में लोगों की पंचायतें करने लगे. 14 फरवरी को बेहमई के पड़ोसी गांव दमनपुर के बीहड़ में उनकी एक पंचायत आयोजित थी, जिसमें दमनपुर के एक नाई की बारह बीघा ज़मीन गांव के एक ठाकुर द्वारा हड़पे जाने का मामला तय होना था. फूलन को शायद इसी पंचायत की खबर लगी होगी.
जारी…