बीते विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासी बहुल झारखंड में सत्तारुढ़ एवं विपक्षी दलों ने भी पूरे ताम-झाम के साथ कार्यक्रमों का आयोजन किया. सभी ने अपने को आदिवासियों का हितैषी बताते हुए कई लुभावने वादे भी किए. सत्तारुढ़ दल भाजपा ने इस बार भी आदिवासियों को मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाते हुए कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की घोषणा की, पर ज़मीनी हकीकत इससे इतर है. बीते कुछ सालों में आदिवासियों से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं की राशि में बेतहाशा वृद्धि हुई है, पर इस दौरान आदिवासियों की स्थिति और भी दयनीय होती चली गई. कई जनजातियां तो विलुप्त होने के कगार पर हैं और कुछ सरकार की उदासीनता के कारण इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गए हैं. झारखंड राज्य बनने के बाद आदिवासियों के विकास को लेकर कुछ उम्मीद जगी थी, पर अभी तक आदिवासी समुदाय हर मोर्चे पर पिछड़ा हुआ है.
भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी ने कहा था कि ट्राईबल प्लान को लेकर आजादी के बाद जितनी राशि आवंटित हुई, अगर उसे ईमानदारी से खर्च किया गया होता, तो झारखंड के सभी आदिवासी परिवारों के पास सोने का घर होता, पर आदिवासी योजनाओं के नाम पर केवल लूट ही मची और आदिवासी समाज को साजिशन इसलिए विकसित नहीं किया गया, ताकि इन्हें वोट बैंक बनाए रखा जा सके और यही कारण है कि अब आदिवासियों की जनसंख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है. सन 1951 में झारखंड में आदिवासियों की जो जनसंख्या 35.8 प्रतिशत थी, वो अब घटकर 26.11 प्रतिशत रह गई है. कई आदिम जनजातियां तो विलुप्त हो गईं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं, लेकिन राज्य सरकार उदासीन ही बैठी है. बेतहाशा घटती आदिम जनसंख्या को देख राज्य सरकार की आंखे खुलीं और इसके पीछे की वजहें जानने के लिए ट्राइबल एडवायजरी कमिटी बनाई गई है.
यह कमिटी विभिन्न जिलों का दौरा कर यह जानने की कोशिश करेगी कि वहां आदिवासियों की जनसंख्या घटने का कारण क्या है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले छह दशकों में अनुसूचित जनजातियों की संख्या में नौ प्रतिशत से अधिक की कमी आयी है. 1951 में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 35.8 प्रतिशत थी, जो 1991 में घटकर 27.66 प्रतिशत रह गई. 2011 की जनगणना में आदिवासियों की आबादी मात्र 26.11 बताई गई है. आबादी घटने का यह सिलसिला अब भी लगातार जारी है. इतनी तेजी से जनसंख्या घटना चिंता का विषय है, पर राज्य सरकार इस ओर कोई ठोस कदम उठाने में पूरी तरह विफल रही है.
आदिवासियों की अहमियत वोट बैंक तक
आदिवासियों की आबादी भले ही कम होती जा रही है, पर इनके नाम पर हो रही राजनीति में कमी नहीं आ रही है. इनकी पहचान अब बस वोट बैंक तक सिमित हो गई है. हर साल विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है, आदिवासियों को पारम्परिक वेशभूषा में मांदर की थाप पर कठपुतलियों की तरह नचाया जाता है. इस अवसर पर आदिवासियों के नाम पर कई योजनाओं की घोषणा की जाती है, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला ही होता है. एक तरफ जहां सत्तारुढ़ दल आदिवासियों के विकास के वादे करते हैं, वहीं विपक्षी दल आदिवासी कार्ड खेलते हैं. जमीन से संबंधित मुद्दे, सरना कोड, आदिवासी अधिकार, पांचवी अनुसूची और पत्थलगड़ी जैसे मुद्दे को लेकर विपक्षी दल सत्तारुढ़ दल को घेरने की कोशिश करते हैं. लेकिन आज भी हाल यह है कि 70 प्रतिशत आदिवासियों के पास न मकान है, न शौचालय है, न ही शरीर पर कोई वस्त्र और यही सब एक तरह से आदिवासियों की पहचान बनकर रह गए हैं.
सरकार एवं सरकार समर्थित निजी कंपनियों द्वारा अधिकांश आदिवासियों की जमीनें अधिग्रहित कर ली गई हैं. कई आदिवासियों से तो जबरन जमीनें हड़पी गई हैं. कृषि एवं पशुपालन पर ही अधिकांश आदिवासी समाज निर्भर है और यह इनके आय का मुख्य जरिया था, पर यह सब छीन जाने के कारण वे रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करने लगे, जिससे इनका आर्थिक एवं शारीरिक शोषण होने लगा. अभी नई दिल्ली, पंजाब, असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में काम कर रहे झारखंड के आदिवासी बंधुवा से भी बदतर स्थिति में हैं, पर किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है. आदिवासी बहुल इलाकों में बुनियादी सुविधाओं का भी घोर अभाव है. यहां न स्कूल हैं, न कॉलेज और न ही चिकित्सा सेवा.
इन इलाकों में बच्चों की मृत्यु दर बहुत अधिक है. अनेक प्रकार की बीमारियों और समय परस ही इलाज नहीं मिल पाने के कारण ये असमय ही मौत के गाल में समा जाते हैं. झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू भी आदिवासियों के पलायन को एक बड़ी समस्या मानती हैं. उनका कहना है कि सिर्फ विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर समारोह आयोजित कर पूरे साल उन्हें भूल जाने से उनका विकास नहीं होगा. पढ़े-लिखे आदिवासी युवाओं को गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करने के साथ ही शिक्षा के प्रति उनमें रुचि पैदा करनी होगी, तभी आदिवासियों का अस्तित्व बच सकता है.
अपनी डफली अपना राग
मुख्यमंत्री आदिवासियों के लिए अपनी सरकार के प्रयासों को लेकर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. उनका कहना है कि पिछले 67 सालों से भाषण की राजनीति के अलावा आदिवासियों के लिए कुछ भी नहीं किया गया. हमारी सरकार ही आदिवासियों के विकास के लिए चिंतित है और इनके सशक्तिकरण और इनके जीवन में बदलाव के लिए दर्जनों योजनाएं चला रही है. सरकार चाहती है कि आदिवासी समाज विकास में और लंबी छलांग लगाए, इसलिए 15वें वित्त आयोग से राज्य के 26 प्रतिशत जनजातीय आबादी के समग्र विकास के लिए अधिक धनराशि की मांग की गई है. झामुमो पर निशाना साधते हुए कहा मुख्यमंत्री ने कहा कि झामुमो खुद को आदिवासियों का हितैषी बताती है, पर सबसे ज्यादा शोषण आदिवासियों का झामुमो ने ही किया है. आदिवासियों की कीमती जमीन हड़प कर आलीशान बंगले और होटल बनाए गए.
एक तरफ मुख्यमंत्री आदिवासियों की समस्याओं के लिए झामुमो को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, वहीं विपक्ष के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आदिवासियों के विनाश के लिए भाजपा को ही पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि औद्योगिक विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीनों का अधिग्रहण किया गया. आदिवासियों की जमीन छीन कर भाजपा ने उद्योगपतियों को दे दी. भाजपा तो आदिवासियों का अस्तित्व ही समाप्त करने की साजिश रच रही थी और इसी साजिश के तहत सीएनटी एवं एसपीटी संशोधन विधेयक लाया गया था, पर हमारी पार्टी के विरोध के कारण ही इस विधेयक को वापस लेना पड़ा.
अगर यह संशोधन विधेयक पारित हो जाता तो पूरे राज्य में आदिवासी भूमिहीन हो जाते. फिर इस सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल लाया है, वह भी आदिवासियों की जमीन हड़पने के लिए. हेमंत सोरेन ने कहा कि आदिवासी प्रकृति प्रेमी हैं और इस कारण आदिवासियों का विश्वास झामुमो में है और जन समर्थन झामुमो के पास ही है. सरकार आदिवासियों के हित में क्या सोचती है, इसका सहज अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर किसी भी तरह का विज्ञापन स्थानीय अखबारों में नहीं दिया गया.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पूरे लाव-लश्कर के साथ भगवान बिरसा मुंडा के गांव इलिहातू गए थे, जहां इनके परिजनों के साथ उन्होंने खाना खाया एवं इस गांव को आदर्श गांव बनाने का वादा किया. उन्होंने बिरसा मुंडा का शानदार स्मारक बनाने की घोषणा भी की थी, लेकिन आठ माह बाद भी इस गांव में विकास का एक ईंट भी नहीं रखा जा सका है. जब आदिवासियों के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा के गांव की हालत यह है, तो आम आदिवासी गांवों की स्थिति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
आदिवासियों की घटती आबादी
साल प्रतिशत
1951 35.8
1991 27.66
2001 26.30
2011 26.11
आदिवासियों से जुड़ी योजनाएं, जो ज़मीन से ज्यादा काग़ज़ों पर हैं
- आदिम जनजातीय समूह (पीटीजी) के 64,807 परिवारों को प्रतिमाह 600 रुपए पेंशन.
- आदिम जनजातीय परिवारों को बिरसा आवास योजना के तहत आवास
- रोजगार व आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए दुमका एवं पलामू में पीटीजी बटालियन (कुल 1107 सृजित पदों के साथ) का गठन.
- कल्याण विभाग से संबद्ध झारखंड ट्राइबल डेवलपमेंट सोसाइटी (जेटीडीएस) द्वारा आजीविका के साधनों व आय में वृद्धि के लिए 14 जनजातीय जिलों में चलाई जा रही सूकर व बकरी पालन, सब्जी उत्पादन तथा बागबानी योजना.
- 80 फीसदी या अधिक जनजातीय आबादी वाले गांवों के युवाओं के लिए मुख्यमंत्री अनुसूचित जनजाति ग्राम विकास योजना, जिसके अंतर्गत इन गांवों के एक-एक महिला स्वयं सहायता समूहों को प्रति समूह एक लाख तथा प्रति गांव पांच-पांच बेरोजगार युवाओं को दो-दो लाख रुपए देने का प्रावधान है.
- कल्याण विभाग दुमका, पश्चिम सिंहभूम, गोड्डा व पाकुड़ में पांच हजार पीटीजी परिवारों के गरीबी उन्मूलन के लिए टार्गेटेड टू हार्डकोर पूअर स्कीम (अति गरीब परिवारों पर केन्द्रित योजना) का संचालन.
- आदिम जनजातीय परिवारों तक अनाज पहुंचाने के लिए खाद्य आपूर्ति विभाग द्वारा संचालित डाकिया योजना.
- एसटी विद्यार्थियों के लिए कल्याण विभाग द्वारा एकलव्य व आश्रम विद्यालय सहित अन्य आवासीय विद्यालयों का संचालन तथा जनजातीय बच्चों के लिए प्री व पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति का वितरण.
- जनजातीय स्वास्थ्य के क्षेत्र में कल्याण विभाग की ओर से 35 आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र, 10 पहाड़िया स्वास्थ्य केन्द्र तथा 14 मेसो अस्पतालों का संचालन.
- जनजातीय सहकारिता विकास निगम (टीसीडीसी) की ओर से बेरोजगार जनजातीय युवाओं के कौशल विकास के साथ-साथ उन्हें ऋृण उपलब्ध कराना.
- जनजातीय इलाकों में विकास कार्यों के लिए आर्टिकल 275(1) के तहत केन्द्र सरकार धन मुहैया कराना.
- जनजातीय तथा आदिम जनजातीय समुदायों व जातियों की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति का पता लगाने तथा इनके विकास में आ रही बाधा का पता लगाने के लिए राज्य में डॉ0 रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान है.
झारखंड में 1.93 लाख आदिवासी परिवार भूमिहीन
सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना-2011 की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के 1.93 लाख आदिवासी परिवारों के पास जमीन नहीं है. ऐसे लोगों की आजीविका मजदूरी पर निर्भर है. सबसे खराब स्थिति पश्चिम सिंहभूम जिले की है. यहां के कुल 42,432 जनजातीय परिवारों के पास अपनी जमीन नहीं है. कोडरमा जिले में जनजातीय परिवार बहुत कम हैं, पर यहां के कुल 945 जनजातीय परिवारों में से 40 फीसदी (380 परिवार) के पास अपनी जमीन नहीं है. संख्या के लिहाज से राज्य के दो बड़े शहरों रांची व जमशेदपुर में भी भूमिहीन आदिवासी परिवार पश्चिम सिंहभूम के बाद सर्वाधिक हैं. जमशेदपुर में 25,221 परिवार तथा रांची में 15,968 परिवार खेती नहीं, बल्कि मजदूरी पर निर्भर है.