अजय बोकिल
बाॅलीवुड में सुशांत संदिग्ध मौत प्रकरण, भाई भतीजावाद,ड्रग्स प्रकरण, यौन शोषण और हल्के स्तर की राजनीति के बाद नया एंगल एक नया प्रति-बाॅलीवुड खड़ा करने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ताबड़तोड़ घोषणा है। शनिवार को योगी ने कहा कि यूपी में देश की सबसे खूबसूरत फिल्म सिटी बनेगी। आज देश को एक नई फिल्म सिटी की जरूरत है और उत्तर प्रदेश यह जिम्मेदारी लेने को तैयार है। नई फिल्म सिटी नोएडा या ग्रेटर नोएडा में बन सकती है। योगी ने अधिकारियों को इसकी कार्य योजना बनाने को कहा। देश में फिल्म उदद्योग का विकेन्द्रीकरण हो, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। ऐसे प्रयासों को लेकर शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के चलते देश में दूसरा बाॅलीवुड खड़ा करना वास्तव में संभव है? क्या सरकारी योजनाओं से कोई बाॅलीवुड बन सकता है? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि एक तो यूपी में एक फिल्म सिटी पहले से है, दूसरे मध्यप्रदेश सहित कुछ अन्य हिंदी राज्यों में फिल्म सिटी बनाने के बहुतेरे प्रयास और घोषणाएं हुईं,लेकिन उनका जो हश्र हुआ,उस पर भी एक फिल्म बन सकती है। इसका कारण यही है कि फिल्म नगरियां केवल सरकारी योजनाओं और बजट से नहीं बनतीं।
यूं भारत में आज फिल्म निर्माण के कई केन्द्र हैं। देश में हिंदी के अलावा कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी फिल्में बनती हैं। उनका अपना बड़ा दर्शक वर्ग और बाजार है। इनमें भी तमिल, बंगला और भोजपुरी फिल्मों का तो वैश्विक बाजार भी है। यूपी में प्रस्तावित फिल्म सिटी क्या कहलाएगी,अभी नहीं कह सकते,लेकिन अमेरिकी फिल्म उद्दयोग ‘हाॅलीवुड’ का नामकरण की दृष्टि से हमारे फिल्म उद्दयोग पर काफी असर है। मसलन बाॅलीवुड दो दशक पहले तक ‘बाम्बे सिनेमा’ ही कहलाता था। लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने उसका नाम भी बदल दिया। दरअसल ‘बाॅलीवुड’ बाम्बे और हाॅलीवुड के ‘वुड’ शब्द को मिलाकर गढ़ा गया है। ओंक्स फोर्ड डिक्शनरी के अनुसार भारतीय सिनेमा नेटवर्क ‘बाॅलीवुड’शब्द का पहली बार प्रयोग सत्तर के दशक में हुआ। कुछ लोग इसका श्रेय गीतकार अमित खन्ना को देते हैं तो कई लोगों का मानना है कि एक पत्रकार बेविंदा कोलाको ने 2004 में ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में ‘बाॅलीवुड’शब्द का प्रयोग किया,जो जल्द ही लोकप्रिय हो गया। ( गनीमत मानिए कि इसे बदलकर ‘मुंबीवुड’करने की मांग अभी नहीं उठी है)। इसी तर्ज पर बंगला और तेलुगू सिने उद्दयोग को टाॅलीवुड, तमिल फिल्म उद्योग को ‘काॅलीवुड’, असमी फल्म उद्योग को ‘जाॅलीवुड, मलयालम फिल्म उद्योग ‘माॅलीवुड’भोजपुरी फिल्म उद्योग ‘भोजीवुड’के नाम से भी जाना जाता है। यदि भारतीय भाषाओं की फिल्मों की बात करें तो मराठी फिल्म उद्योग सबसे पुराना है,क्योंकि देश में फिल्म उद्योग के पितामह दादा साहेब फाल्के ने अपनी पहली मूक फिल्म‘राजा हरिश्चंद्र’ मराठी और हिंदी में बनाई थी।
वैसे भारतीय फिल्म उद्योग दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मे बनाने के लिए जाना जाता है। हालांकि आकार और राजस्व में यह दुनिया में तीसरे नंबर पर है। राजस्व की बात करें तो अमेरिका का हाॅलीवुड 138 अरब डाॅलर,चीनी फिल्म उद्योग 6.58 अरब डाॅलर और भारतीय फिल्म उद्दयोग 2.53 अरब डाॅलर का बताया जाता है। चीन हमसे कुछ ही कम फिल्में हर साल बनाता है। हालांकि वहां राजनीतिक फिल्में नहीं बनाई जा सकतीं।
बहरहाल बात नई फिल्म सिटी निर्माण की है। वर्तमान में देश में बाॅलीवुड’ के अलावा पांच और फिल्म सिटियां हैं,जिन्हें व्यवसाय और कमाई की दृष्टि से सफल माना जाता है। इनमें पहली तो मुंबई की दादा साहब फाल्के चित्रनगरी है,जो 1977 में बनीं और गोरेगांव के पास स्थित है। हालांकि फिल्में तो मुबंई में 1913 से ही बन रही थीं। वहां कई स्टूडियो भी थे। लेकिन चित्रनगरी में फिल्म निर्माण की सुविधाएं व्यवस्थित रूप से सुविधाएं मुहैया कराई गईं हैं। देश की सबसे बड़ी फिल्म सिटी पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में स्थित प्रयाग फिल्म सिटी’है। इसकी स्थापना 2012 में 10 अरब रूपए की लागत से ‘प्रयाग ग्रुप’ने की थी। यह 2700 एकड़ में फैली है तथा सुविधाओं की दृष्टि से इसे दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म सिटी बताया जाता है।
तीसरी बड़ी और सफल फिल्म सिटी हैदराबाद के पास स्थित ‘रामोजी राव फल्म सिटी’है,जो 1996 में बनी और 1666 एकड़ में फैली है। यहां फिल्म शूटिंग की तमाम अत्याधुनिक सुविधाएं हैं। चौथी है बेंगुलूरू के पास इन्नोवेटिव फिल्म सिटी। पांचवीं है चेन्नई के पास कुंभकोणम में एमजीआर फिल्म सिटी तथा छठी है दिल्ली के पास नोएडा फिल्म सिटी। इसकी स्थापना 1998 में फिल्म निर्माता संदीप मारवाह ने की। हालांकि कई लोग इसे फिल्म सिटी से ज्यादा आॅफिस काॅम्लेक्स के रूप में देखते हैं।
बारीकी से समझें तो हिंदी राज्यों में फिल्म सिटी बनाने के प्रयास आर्थिकी, आयोजना और कलात्मक दृष्टि से बहुत सफल नहीं रहे हैं। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में विभिन्न सरकारों ने राज्य में फिल्म सिटी बनाने की घोषणाएं कई बार कीं। लेकिन हकीकत के स्तर पर वो फिल्मी ही साबित हुईं। मुंबई की चित्रनगरी को अलग रखें तो देश की सभी सफल फिल्म सिटियां निजी क्षेत्र में बनी हैं। चित्रनगरी का निर्माण व रखरखाव जरूर महाराष्ट्र राज्य फिल्म,मंच,संस्कृति महामंडल करता है। ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग यहीं होती है।
मध्यप्रदेश में फिल्म सिटी निर्माण की घोषणाएं वक्त और सरकारों के िहसाब से बदलती रहती हैं। पहले यह भोपाल के पास चिकलोद और बाद में बगरौदा में बननी थी। यह कोशिश विफल रही तो फिल्म सिटी को इंदौर के पास देपालपुर ले जाने पर विचार हुआ। भोपाल के पक्ष में तर्क इसकी नैसर्गिक खूबसूरती का था तो इंदौर के हक में दलील उसके बड़े फिल्म वितरण केन्द्र होने की थी। पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार ने मप्र का ‘प्रोफाइल चेंज’ करने के नेक इरादे से राज्य में फिल्म सिटी बनाने के लिए कई घोषणाएं भी कीं। मप्र पर्यटन विकास निगम को इसका रोड मैप तैयार करने के लिए कहा गया। कोई रोड मैप बनता उसके पहले ही वास्तविक और राजनीतिक कोरोना ने इस योजना पर पानी फेर दिया। इसी तरह जयपुर के पास भी फिल्म सिटी बनाने का ऐलान सात साल पहले वहां की सरकार ने किया था। उसमें आगे क्या हुआ, पता नहीं चला। अगर यूपी में नई फिल्म सिटी बनी तो उसकी क्या संभावनाएं हैं, यह देखना होगा। क्योंकि वहां फिल्म सिटी निर्माण की मांग ज्यादातर सोशल मीडिया पर उठ रही है। यह मुमकिन है कि प्रस्तावित फिल्म सिटी भोजपुरी फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में विकसित हो जाए।
लेकिन यह सब संभावनाएं हैं। सच्ची फिल्म सिटी या बाॅलीवुड केवल सरकारी योजनाओं और राजनीतिक मंशाओं से नहीं बनते। उनके लिए प्रतिभाओंका खून-पसीना और निरंतर कला साधना लगती है। समर्पण और जुनून लगता है। कुछ नया करने के अनंत आकाश में उड़ते रहने की चाहत लगती है। पैसा लगता है, सुविधाएं लगती हैं। जोखिम उठाने का असमाप्त साहस लगता है। बाॅलीवुड केवल एक ‘फिल्म सिटी’ भर नहीं हैं। देश में और भी फिल्म सिटियां हैं, लेकिन वो ‘बाॅलीवुड’ नहीं बन सकीं। बाॅलीवुड में कुछ ऐसा है, जिसकी वजह से प्रतिभाएं इस स्वप्न नगरी की अोर खिंची चली आती हैं। आखिर मुंबई को ‘बाॅलीवुड बनने में सौ साल से भी ज्यादा का समय लगा है। उसकी बुनावट एक अनथक जुनून से हुई है। व्यापक अर्थ में ‘बाॅलीवुड’ तो पूरे भारतीय सिनेमा का नाम है। आज भी बाॅलीवुड एक समन्वित राष्ट्रीय चेहरे के साथ खड़ा है। वह सिटी मात्र न हो कर एक संपूर्ण विविधता से भरा-पूरा मिनी भारत है। इसे भी समझना होगा।
वरिष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 21 सितंबर 2020 को प्रकाशित)