modimjसबसे पहले यह जानना जरूरी है कि किसी भी देश के लिए उसका पड़ोसी क्यों महत्वपूर्ण होता है. एक राजनयिक के तौर पर मैं जहार भी गया या जहां भी मैंने अपनी सेवाएं दी, हर देश में नेबर-फर्स्ट की बात दोहराई जाती है. हम खुद भी नेबर-फर्स्ट की बात कहते हैं. अब सवाल यह उठता है कि कोई देश ऐसा क्यों कहता है? इसके तीन कारण हैं. पहला, यदि हमें एकाग्रचित होकर अपने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना है, तो उसके लिए हमें सद्भावपूर्ण संबंध वाला और शांत पड़ोसी देश चाहिए. पड़ोसी देश अगर शांतिपूर्ण नहीं होगा, तो आर्थिक विकास संभव नहीं है. दूसरा, विशाल क्षेत्रफल और जनसंख्या वाले भारत जैसे देश में, जहां संसाधन की कोई कमी नहीं है, उससे यह आशा की जाती है कि वह विश्व स्तर पर बड़ी भूमिका निभाए. हम इस दिशा में आगे बढ़े हैं, लेकिन एक दिन आएगा जब दुनिया हमारी तरफ देखेगी. लेकिन जब तक आसपास के क्षेत्रों में शांति नहीं होगी, तब तक हम विश्व स्तर पर कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकते.

नहीं रुका बाहरी हस्तक्षेप

पड़ोस में आग लगी हो, तो हम दुनिया की आग बुझाने नहीं जाएंगे. पहले हमें अपने आसपास की आग को ही बुझाना होगा. पड़ोसियों के साथ हमारी समस्याएं हैं और यह कोई नई बात नहीं है. लेकिन हालिया दिनों में हमारे संबंध अपने पड़ोसियों के साथ ठीक नहीं रहे हैं. मिसाल के तौर पर नेपाल को लेते हैं, जहां मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपना चुनाव अभियान भारत विरोधी नारे के ऊपर केंद्रित रखा. पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं. नियंत्रण रेखा पर स्थिति काफी नाजुक है. मालदीव के साथ दिक्कतें हैं. श्रीलंका के साथ भी हमारे संबंध ठीक नहीं हैं, वहां चीनी हस्तक्षेप बढ़ा है. इन सबको देखते हुए, इस वक्त हमारे रिश्ते पड़ोसियों के साथ बहुत अच्छे नहीं माने जा सकते हैं. 1947 में देश आजाद हुआ. वह एक कठिन समय था. देश का बंटवारा हुआ.

सीमा के दोनों तरफ के लोगों को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. विभाजन के बाद दो मुद्दे उभर कर सामने आए थे. एक था नीति निर्माताओं का मुद्दा और दूसरा लोगों की भावनात्मक प्रतिक्रिया का. नीति निर्माता यह बात जानते थे कि भारत के शासकों ने लंबे समय तक दक्षिण एशिया की रणनीति पर प्रभुत्व बनाए रखा था. वे यह भी जानते थे कि यहां सैकड़ों साल तक यूरोपिय सत्ता का हस्तक्षेप रहा है. इसलिए वे अब इस क्षेत्र में बाहरी हस्तक्षेप नहीं चाहते थे, लेकिन सबसे बड़ा देश होने के नाते वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि सभी यहां आपस में सद्भाव से रहें. इसलिए उन्होंने बाहरी ताकतों के प्रवेश और हस्तक्षेप को नकारने की कोशिशें की.

इसके साथ लोगों की एक भावनात्मक प्रतिक्रिया भी थी. वे बंटवारे को खत्म करना चाहते थे और फिर से एक बृहद भारत का सपना देख रहे थे. बावजूद इन सबके, बाहरी हस्तक्षेप बहुत शीघ्र ही इस क्षेत्र में होने लगा. पाकिस्तान ने पश्चिमी देशों के साथ समझौते किए, जिसकी वजह से शीत युद्ध हमारे दरवाज़े तक आ पहुंचा. फिर इस इलाके में संयुक्त राष्ट्र का हस्तक्षेप हुआ. पश्चिमी ब्लॉक और यूएसएसआर का भी हस्तक्षेप हुआ. अब तो चीनी भी इस इलाके में सक्रिय भूमिका में नज़र आने लगे हैं. हम रोज़ाना अखबारों में पढ़ते हैं और अपने सामरिक मामलों के जानकारों को कहते हुए सुनते हैं कि चीनी हमारे क्षेत्र में निवेश कर रहे हैं. वे इसके साथ ही रक्षा समझौते भी कर रहे हैं. ये ऐसे मामले हैं, जिनके लिए भारत को कुछ करना होगा. बाहरी ताकतों को इस क्षेत्र से बाहर रखने की हमारी इच्छा पूरी न हो सकी. लिहाजा इसके लिए हमें कोई और रास्ता अपनाना होगा.

क्षेत्रीय शांति महत्वपूर्ण है

बंटवारे को खत्म करने का दूसरा तरीका पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था. वे फरवरी 1999 में लाहौर गए थे. मैं उस वक्त पाकिस्तान में डिप्टी हाई कमिश्नर था. मैं उनके दौरे में शामिल था. उस दौरे में वे मिनार-ए-पाकिस्तान भी गए थे. यह पाकिस्तान का प्रतीक है, जहां पर पाकिस्तान का प्रस्ताव पास किया गया था. उन्होंने विजिटर्स बुक में लिखा कि वे पाकिस्तान के लोगों की भलाई चाहते हैं और भारत एक मजबूत और समृद्ध पाकिस्तान की आशा करता है. एक दिन पहले उन्होंने गवर्नर हाउस में आयोजित एक बड़े नागरिक अभिनंदन समारोह में कहा था कि बंटवारे से दोनों तरफ के लोगों के सामने दिक्कतें आईं, जिसका दर्द हम आज भी महसूस करते हैं.

लेकिन ये ऐसी यादें हैं, जिन्हें हमें भूलना ही पड़ेगा, क्योंकि इस क्षेत्र का भविष्य इस क्षेत्र के देशों के आपस में मिलकर काम करने से ही जुड़ा है. उनके भाषण से एक बड़ी उम्मीद पैदा हुई थी, जो पाकिस्तान द्वारा कारगिल घुसपैठ की वजह से मंद पड़ गई. बहरहाल, वाजपेयी जी ने उस समय एक विचार दिया था. हम भारत की बड़ी अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल करके अपने पड़ोस की छोटी अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर व्यापार संबंध स्थापित कर सकते हैं, ताकि दोनों को फायदा हो. हम एक बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते उदारवादी रुख दिखा सकते हैं.

हमलोग चीनी घुसपैठ को लेकर चीख-चिल्ला रहे हैं कि चीन को इस क्षेत्र में नहीं आना चाहिए. लेकिन इसके लिए हमें एक विकल्प देना होगा. यदि हम इस क्षेत्र के लिए कोई विकल्प नहीं देंगे, तो हमारे चीखने-चिल्लाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस क्षेत्र के देशों को कुछ ऐसी पेशकश करनी चाहिए कि उन्हें किसी अन्य की ओर मुंह न ताकना पड़े. अटल जी के बाद, मनमोहन सिंह ने इस विचार को आगे बढ़ाया. उन्होंने इस क्षेत्र के लिए एक विजन दिया. वे चाहते थे कि इस क्षेत्र के सभी देश एक साथ काम करते हुए गरीबी से समृद्धि की ओर आगे बढ़ें. हमें एक साथ मिलकर अपने विकास के लिए और एक दूसरे के विकास के लिए काम करना चाहिए.

पिछले कुछ सालों में मैंने महसूस किया है कि हम विश्व स्तर पर अपनी वृहद भूमिका पर अधिक फोकस कर रहे हैं, बजाए क्षेत्रीय स्तर पर ध्यान देने के. बेशक, एक दिन हम विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना लेंगे, लेकिन इसी के साथ हम अपने क्षेत्रीय संतुलन को गवां सकते हैं. यदि हम वृहद भूमिका के लिए प्रयासरत हैं, तब भी एक शांत क्षेत्रीय स्थिति का निर्माण भी उतना ही महत्वपूर्ण है. हमें इसके लिए भी काम करना चाहिए.

ताकत के इस्तेमाल में सावधानी जरूरी

पिछले 16-17 सालों में पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते बेहद खराब रहे हैं. यह ऐसा मसला था कि हमारा दक्षिण एशियाई एजेंडा पाकिस्तान पर केंद्रित हो गया और हम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को काउंटर करने में लगे रहे. एक महत्वपूर्ण धारणा है, ताकत की धारणा. यह न केवल हमारे पड़ोसियों के प्रति सोच और संबंध में, बल्कि हमारी विदेश नीति में भी समाहित हो गई है. अलग-अलग देशों के पास विभिन्न मुद्दों से निपटने के  लिए अलग-अलग हथियार होते हैं.

लिहाजा, ताकत का इस्तेमाल और धमकी वगैरह देना इसमें शामिल है. लेकिन यदि ताकत का इस्तेमाल बिना सोचे-समझे किया जाएगा, तो इसके अनपेक्षित परिणाम आ सकते हैं. उदाहरण के लिए, पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते उतार-चढाव वाले हैं. मौजूदा चक्र जनवरी 2013 से शुरू होता है. 2012 में रिश्तों में कड़वाहट कम हो गई थी. तब हमने पाकिस्तान के साथ वार्ता की शुरुआत की थी. नियंत्रण रेखा पर और कश्मीर में हताहतों की संख्या नगण्य हो गई थी, जो 1989 के बाद सबसे कम थी. लेकिन एक तबका ऐसा है, जो इस मुद्दे के प्रति अधिक सख्त रुख चाहता है.

जनवरी 2013 में हमारे दो सैनिक पाकिस्तान की तरफ से आए हमलावरों के हाथों शहीद हो गए. उनके शव को क्षत-विक्षत कर दिया गया. जाहिर है, इससे किसी को भी गुस्सा आएगा. तत्कालीन सेनाध्यक्ष ने कहा कि हम इसका जवाब देंगे, लेकिन अपने तरीके से. इसके बाद और अधिक सख्त प्रतिक्रिया के लिए आवाज उठती रही. यह भी कहा गया कि हिंसा और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकती और हर पाकिस्तानी क्रिया के खिलाफ एक मजबूत प्रतिक्रिया होनी चाहिए, ताकि लोगों को साफ-साफ दिखे कि सरकार इस पर कठोर है. बातचीत की प्रक्रिया स्थगित हो गई. लेकिन फिर से अगस्त में जब नवाज शरीफ की सरकार सत्ता में आई, तो बातचीत की दिशा में कदम बढ़े.

लेकिन उसके बाद हमारे पांच सैनिकों को शहीद कर दिया गया और फिर बातचीत आगे नहीं जा सकी. उसके बाद हमारे यहां नई सरकार आई और रिश्तों को सामान्य करने की कोशिश की गई. लेकिन पठानकोट हमले के बाद सरकार ने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया. उसके बाद 2003 का सीजफायर लगभग समाप्त हो गया. दोनों तरफ हताहतों की संख्या बढ़ने लगी. मुझे लगता है कि पाकिस्तान की तरफ हताहतों की संख्या ज्यादा रही. एक बार फिर सीजफायर की स्थिति अपेक्षाकृत सामान्य है. हम आशा करते हैं कि यह स्थिति बनी रहेगी. कहने का अर्थ यह है कि हमारे पास स्थिति से निपटने के लिए बहुत सारे तरीके हैं, लेकिन हमें उनका इस्तेमाल सावधानीपूर्वक करना होगा. यदि हम बिना सावधानी के किसी एक ही तरीके का इस्तेमाल करते रहेंगे, तो इसके नुकसान हो सकते हैं.

पाक सेना का एजेंडा

पाकिस्तान के लिए हमारी पॉलिसी क्या है? हम कहते हैं कि आतंक और बातचीत साथ नहीं चल सकते. ऐसा कहना आकर्षक तो लगता है, क्योंकि पाकिस्तान जो कर रहा है, उसकी यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. लेकिन समस्या यह है कि पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है और यदि हम उसे नजरअंदाज भी करते हैं, तब भी वह हमारे लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है. इसलिए इस बात पर कि बातचीत और हिंसा एक साथ नहीं चल सकती है, एक राजनयिक के तौर पर मैं यह सोचता हूं कि क्या इससे पाकिस्तान के साथ हमारी जटिल समस्याओं का समाधान हो पाएगा. मेरा जवाब यह है कि इससे जटिल समस्या का समाधान नहीं हो सकता.

मैं बताता हूं क्यों. जहां तक भारत के साथ संबंधों का सवाल है, तो इस मामले में पाकिस्तान एक इकाई नहीं है. पाकिस्तानी राज्य व्यवस्था को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला, उनकी सेना है, जहां से आतंकवाद को समर्थन मिलता है. कुछ राजनेता हैं, जो सेना के शासन से लाभान्वित होते हैं. पाकिस्तान पर सेना ने लम्बे समय तक प्रत्यक्ष हुकूमत किया है. तमाम शांति प्रयासों के बावजूद ये सभी लोग भारत को अपना सर्वकालिक दुश्मन समझते हैं. पाकिस्तानी सेना और सुरक्षा तंत्र का कश्मीर पर एक संदेहास्पद एजेंडा है. कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. जब वे इस एजेंडे को आगे नहीं ले जा पाते हैं, तो कश्मीर पर बातचीत का बहाना बनाकर साबित करते हैं कि वे कश्मीर के हितधारक हैं. पाकिस्तान के सुरक्षा तंत्र ने अभी तक ऐसा कोई इशारा नहीं दिया है कि उन्होंने आतंकवाद का समर्थन बंद कर दिया है या उसे बंद करने का कोई इरादा है.

मेरा मानना है कि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को उलझाने और भारत को हानि पहुंचाने के लिए आतंकवाद को एक सस्ते हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. उन्होंने भले एक रणनीतिक चाल के तहत आतंकवाद की तीव्रता कम कर दी हो, लेकिन इस तरह के कोई संकेत नहीं हैं कि उन्होंने इसे पूरी तरह से खत्म करने का इरादा कर लिया है. दरअसल, भारत का खौफ दिखाना पाकिस्तानी सेना के निहित स्वार्थ में शामिल है, क्योंकि पाकिस्तानी सियासत में उनका बुनियादी पक्ष यह है कि केवल वे ही पाकिस्तान के विचार और उसकी सीमाओं को सुरक्षा दे सकते हैं. जब कोई ऐसे दावे करता है, तो उसे अपने दावे को पुख्ता करने के लिए किसी बाहरी खतरे को दिखाना पड़ता है. लिहाज़ा, भारत का खौफ दिखाना पाकिस्तानी सेना के निहित स्वार्थ में शमिल है.

विशाल अर्थव्यवस्था एक लाभप्रद अवसर है

पाकिस्तान में एक बड़ा तबका है, जो यह समझता है कि भारत के साथ अच्छे संबंध रखना उनके अपने हक में है. वे जानते हैं कि जबतक भारत के साथ पाकिस्तान के अच्छे और स्थायी संबंध नहीं होंगे तब तक वे आगे नहीं बढ़ सकते. इस तबके में वहां के बड़े राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल हैं. ये ऐसे नेता हैं, जो सेना के बजाए चुनावी राजनीति के माध्यम से सत्ता हासिल करने का सामर्थ रखते हैं. यह तबका समझता है कि जब भारत के साथ अच्छे संबंध बहाल हो जाएंगे, तो फिर वहां की राजनीति में सेना का रोल भी कम हो जाएगा, क्योंकि वे फिर भारत का खौफ नहीं दिखा पाएंगे.

एक बड़ा सवाल पाकिस्तान में व्यापार और उद्योग का भी है. जब मैं वहां था, तो मुझे पाकिस्तान के सभी चैम्बर ऑफ कॉमर्स से निमंत्रण मिला. यहां तक कि पंजाब से भी, जहां भारत विरोधी भावना सबसे अधिक है. ऐसा इसलिए था क्योंकि वे भारत की विशाल अर्थव्यवस्था को एक लाभप्रद अवसर की तरह देखते हैं. इसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया है कि कैसे हम व्यापार के माध्यम से अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बना सकते हैं. पाकिस्तान जहां आम तौर पर भारत विरोधी भावना पाई जाती है, वहां भी एक बड़ा तबका है, जो भारत की विशाल अर्थव्यवस्था से लाभ उठाने के बारे में सोचता है.

जहां तक पाकिस्तान के आम लोगों का सवाल है, तो वे भी दुनिया के किसी अन्य देश के लोगों की तरह अपने रोजाना की समस्यों से जूझते हैं. वे अपने रोज़गार, अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजाना की ज़रूरतों को लेकर चिंतित रहते हैं. ज़ाहिर है, जब भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर कोई उनसे सवाल करेगा, तो उनका जवाब वही होगा जो उनके देश का रुख होगा. बिल्कुल उसी तरह से जैसा हमारा होता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे सुबह शाम, सोते जागते भारत के खिलाफ आग ही उगलते हैं. शायद यही वजह है कि 2008 और 2013 के चुनावों में वहां भारत कोई मुद्दा नहीं था.

हालांकि इस बार भारत मुद्दा था, क्योंकि पहली बात तो यह कि भारत के साथ उनके संबंध पिछले कुछ वर्षों में तनावपूर्ण रहे हैं और दूसरी बात यह कि वहां के चुनावों में सभी पार्टियों ने कश्मीर और भारत के साथ रिश्तों की बात उठाई थी. लेकिन जहां तक आम लोगों का सवाल है, तो उनके वोट का फैसला भारत की बुनियाद पर नहीं, बल्कि रोज़ी-रोटी के सवाल पर हुआ है. बहरहाल, तनाव बढ़ जाता है और जब दोनों तरफ से बयानबाज़ी तेज हो जाती है, तो पाकिस्तान में लोग सेना की तरफ देखने लगते हैं और सेना को अपना मसीहा समझने लगते हैं. लिहाज़ा, यह एक चीज़ है जिसका हमें संज्ञान लेना चाहिए.

सावधानी से दें सख्त संदेश

पाकिस्तान में एक बड़ा तबका है, जो भारत के साथ स्थायी संबंध का पक्षधर है. यह बाद सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि हमारे सभी पड़ोसियों पर लागू होती है. यदि मैं इसे और साधारण तरीके से कहूं, तो सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं सभी देशों में स्वार्थी तत्व होते हैं. हमारे पड़ोस में भी, चाहे वो बांग्लादेश हो, नेपाल हो, मालदीव हो, श्रीलंका हो हर जगह इस तरह के तत्व मौजूद हैं, जो अपने देश के साथ भारत के रिश्ते ख़राब करना चाहते हैं. इसलिए समय-समय पर सख्त संदेश भेजना ज़रूरी हो जाता है. लेकिन यदि यह संदेश इस तरह से दिया जाए, जिसकी वजह से उस देश की पूरी आबादी विमुख हो जाए, तो यह अपने हितों के लिए फ़ायदे से ज्यादा नुकसान साबित होता है. जिस तरह पाकिस्तान के साथ तनाव की स्थिति में वहां सेना महत्वपूर्ण बन जाती है, उसी तरह जब हमने नेपाल के ट्रांजिट रूट में बाधा डाला, तो वहां भी कुछ ऐसी ही स्थिति बन गई.

दरअसल, नेपाल ने एक संविधान बनाया था, जिसमें उन्होंने अपनी आबादी के एक वर्ग को कुछ अधिकार नहीं दिए. यह हमें ठीक नहीं लगा. भारत के रास्ते जो सामान नेपाल जाता था, उसमें रुकावट आई. हमारा मत यह था कि यह रुकावट वहां के हालत की वजह से आई है, लेकिन नेपाल में यह धारणा बन गई कि भारत ने यह बाधा उत्पन्न की है. यदि हम चाहते तो केवल उन्हीं नेताओं को अपना संदेश दे सकते थे, जिन्होंने ऐसा संविधान बनाया, जिसमें सभी वर्ग के लोगों को सामान अधिकार नहीं मिले. लेकिन हमारी तरफ से जो संदेश गया वो यह था कि भारत की बाधा के कारण पूरे नेपाल को तकलीफ उठानी पड़ी. लिहाज़ा, यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि हर देश में केवल ऐसे लोग नहीं हैं, जो हमें तकलीफ पहुंचाते हैं, बल्कि ऐसे लोग भी हैं जो हमारे साथ मिलकर काम करना चाहते हैं और भारत के साथ मधुर संबंध चाहते हैं.

बातचीत जारी रहनी चाहिए

जहां तक पाकिस्तान से बातचीत का सवाल है, तो मेरे दिमाग में 8-ट्रैक बातचीत है, जिसे हमने 1996 में शुरू किया था. उस समय पाकिस्तान की सोच यह थी कि कश्मीर पर भी बातचीत हो. भारत चाहता था कि इसमें आतंकवाद का मुद्दा भी शामिल हो. कुल मिलाकर उस बातचीत में 8 मुद्दे थे, जिसमे सीबीएम, जम्मू-कश्मीर, सियाचिन, तुलबुल नौ-परिवहन परियोजना, आर्थिक संबंध, आम लोगों में आदान प्रदान आदि मुद्दे शामिल थे. इसलिए जब मैं बातचीत की बात करता हूं, तो इस बातचीत की बात करता हूं. दरअसल, जब भी हमने पाकिस्तान के साथ बातचीत की शुरुआत की है, तो उस बातचीत का आधार यही मुद्दे रहे हैं. बातचीत पर हमारी निराशा इसलिए जाहिर होती है, क्योंकि हम चाहते हैं कि पाकिस्तान अपना व्यवहार बदले. हमारे साथ सभ्य तरीके से पेश आए और आतंकवाद पर लगाम लगाए. लेकिन मैं नहीं समझता कि निकट भविष्य में ऐसा कुछ होने वाला है, क्योंकि उनके अपने कुछ अंदरूनी समीकरण ही ऐसे हैं, जिनकी वजह से पाकिस्तानी सोच में बदलाव आने में काफी समय लगेगा. इसलिए मैं कहता हूं कि हमें पाकिस्तान या किसी अन्य पड़ोसी के साथ वैसे ही डील करना चाहिए, जैसे वे हैं. हमें उनमें बदलाव आने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए.

बातचीत में ऐसी कोई क्षमता नहीं है, जो हमारे प्रति पाकिस्तान की सोच को एकदम से बदल दे. बातचीत की एक सीमित भूमिका है, जिससे हम अपने संबंधों को थोड़ा नियंत्रित कर सकते हैं. पाकिस्तान के साथ तनाव, जैसा कि पिछले कुछ सालों में दिखा है, हमें अपने आर्थिक विकास की पटरी से कहीं भटका न दे. इस वजह से हम उस चीन से भी डील करने में भटक सकते हैं, जो अभी आक्रामक है. बातचीत जारी रखने से यह भी फायदा होगा कि हम पाकिस्तान के उस तबके से जुड़े रहेंगे, जो भारत के साथ बेहतर संबंध चाहता है. अपने बल पर सत्ता हासिल करने में समर्थ पाकिस्तानी राजनेता, वहां का संभ्रांत वर्ग और व्यापारी वर्ग पाकिस्तान में चरमपंथी गतिविधियों का जवाब भारत के उदारवादी रूख में तलाशते हैं. बातचीत से हमें यह भी फायदा होगा कि व्यापार बढ़ेगा, दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क बढ़ेगा. लेकिन पाकिस्तानी सेना ये सब नहीं चाहती है. ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें हमें पाकिस्तान के साथ रिश्तों के संदर्भ में ध्यान रखना चाहिए.

हमने पानी का सही इस्तेमाल नहीं किया

पाकिस्तान के साथ डील करने के लिए जिन दूसरे तरीकों की बात आती है, उनमें पहला जल है. सिन्धु जल संधि के तहत पाकिस्तान के हिस्से में तीन पश्चिमी नदियां आईं- सिन्धु, झेलम और चेनाब. रावी, सतलुज और व्यास हमारे हिस्से में आईं. लेकिन पश्चिमी नदियों के इस्तेमाल के कुछ अधिकार भारत को मिले. यदि हम पाकिस्तान को पानी नहीं देना चाहते हैं, तो उसके लिए हमें उस पानी को भारत के दूसरे हिस्से में भेजने के उपाय करने होंगे. लेकिन हम पानी रोक कर अपने ही इलाके को जलमग्न नहीं कर सकते. भारत के मैदानी इलाकों में पानी की जरूरत है और ये नदियां उंचाई से आती हैं.

लिहाजा, मैदानी इलाकों में वहां से पानी लाने के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना होगा, जिसके लिए बहुत संसाधन चाहिए और इसमें काफी समय भी लगेगा. दूसरी चीज यह है कि हमने अपने हिस्से के पानी का भी इस्तेमाल नहीं किया है. सिन्धु नदी संधि हमें इजाजत देती है कि पश्चिमी नदियों पर बांध बना कर 3.6 मिलियन क्यूबिक फिट पानी जमा कर सकें. लेकिन हमने ऐसा कोई स्टोरेज नहीं बनाया और न ही जल विद्युत क्षमता का दोहन किया. मेरे हिसाब से पानी रोकने के बजाए (जो रणनीतिक रूप से सही नहीं है) हमें अपने हिस्से के पानी का बेहतर इस्तेमाल करने पर ध्यान देना चाहिए. 2016 में सरकार ने यह इशारा दिया था कि इस पानी का इस्तेमाल करने की दिशा में कुछ कदम उठाए जाएंगे.

व्यापार जारी रहना चाहिए

एक अन्य मांग यह है कि पाकिस्तान के साथ हर तरह के व्यापारिक रिश्ते रोक दिए जाए. पाकिस्तान के साथ हमारा व्यापार 2.5 बिलियन डॉलर का है. इसमें से करीब दो बिलियन डॉलर भारत पाकिस्तान को निर्यात करता है और बाकी का वहां से आयात करता है. यदि यह व्यापार रोक दिया जाता है, तो जिप्सम, ड्राई फ्रूट्स और केमिकल्स अन्य देशों से मंगाना पड़ेगा, जो अभी हम पाकिस्तान से मंगाते हैं. यह काफी खर्चीला होगा. यह कहना तो आसान है कि हमें पाकिस्तान के साथ व्यापार बंद कर देना चाहिए, लेकिन उनका क्या होगा, जिनकी रोजी-रोटी इस व्यापार से जुड़ी हुई है, क्योंकि इस व्यापार में हमारा हिस्सा 2 बिलियन डॉलर का है.

यह मांग भी उठती है कि पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने की कोशिश की जाए. मुझे खुशी है कि इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है. मिसाल के तौर पर फाइनांसियल एक्शन टास्क फोर्स ने पाकिस्तान को ग्रे-लिस्ट में दूसरी बार शामिल किया है. इस कवायद में हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि दूसरे देश अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही पाकिस्तान के साथ डील करेंगे. कोई जरूरी नहीं है कि वे भारत के हित के मुताबिक ही काम करें. लिहाजा, यह काम हमें खुद ही करना है.

पारंपरिक युद्ध जोखिम भरा हो गया है

पाकिस्तान के बारे में भारत में यह आम धारणा है कि वहां सेना ही सत्ता के केंद्र में बैठी है, इसलिए सेना से ही बात करनी चाहिए. मेरा मानना है कि यदि संबंध को किसी तरह से मैनेज करना है, हिंसा रोकनी है, शांति बनाए रखनी है, तब तो ठीक है. लेकिन यदि आप चाहते हैं कि पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते बिल्कुल ही ठीक हों, तो यह नहीं होने वाला है, क्योंकि भारत विरोधी भावना को जीवित रखना पाकिस्तानी सेना का सबसे बड़ा स्वार्थ है. इसलिए इस विकल्प की कुछ सीमाएं है. संबंध ठीक रखने के लिए हर एक हितधारक से बात की जा सकती है. पाकिस्तान की परमाणु क्षमता ने पारंपरिक युद्ध, जिसमें हमारी बढ़त है, को बहुत ही जोखिम भरा बना दिया है. हमारी सेना में इतनी क्षमता है कि वे उनके किसी भी हमले या दुस्साहस का जवाब दोगुनी शक्ति से दे सकती है, लेकिन पारंपरिक युद्ध परमाणु क्षमता की वजह से बहुत ही जोखिम भरा हो गया है.

ऐसे में हमें कौन सी नीति अपनानी चाहिए? जहां तक पड़ोसी देशों का सवाल है, तो इस संबंध में मैं दो बातें कहूंगा, जिनका संबंध मेरी उपरोक्त बातों से है. पाकिस्तान और नेपाल में मौजूद भारत विरोधी तत्वों के बावजूद, इन देशों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध बनाना हमारे हित में है. इसलिए ऐसे संबंध की कोशिशें होती रहनी चाहिए, क्योंकि हम विश्व स्तर पर एक बड़ी भूमिका तलाश रहे हैं. हम अपनी विशाल अर्थव्यवस्था का सहारा अपने पड़ोसियों को देकर आपसी लाभ हासिल कर सकते हैं. यह ताकत या कठोर रूख से हासिल नहीं किया जा सकता है. जरूरत पड़ने पर हमें ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन सावधानी के साथ. यदि हमें अपने पड़ोसी को सख्त संदेश देना ही है, तो इस तरह से दिया जाना चाहिए कि वो उसी तबके तक पहुंचे, जिसके लिए वो संदेश है.

हमारी पाक पॉलिसी गुस्से पर आधारित न हो

हमारी पाकिस्तान पॉलिसी गुस्से पर आधारित नहीं होनी चाहिए. पाकिस्तान निश्चित तौर पर भारत को गुस्सा दिलाने का काम अक्सर करता रहता है. लेकिन हमारी पाकिस्तान पॉलिसी गुस्से के बजाय सोच-समझ कर बनाई जानी चाहिए. विदेश नीति पर सार्वजनिक तौर पर बात करना लोकतंत्र में सामान्य है. लेकिन समस्या वहां पैदा होती है, जब यह टीवी डिबेट का विषय बन जाता है, जिसमें पाकिस्तान के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ ताकत के इस्तेमाल की सलाह दी जाती है. इस तरह की चीजों के लिए एक तार्किक विदेश नीति में कोई स्थान नहीं है. कुल मिलाकर, पाकिस्तान के बारे में यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान की शासन व्यवस्था बदलने नहीं जा रही है. सेना की पकड़ सरकार पर बरकरार रहेगी, जैसा कि हमने पाकिस्तान में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में देखा कि कैसे सेना पर चुनाव को प्रभावित करने के आरोप लगे. सेना का एजेंडा नहीं बदलने वाला है. पाकिस्तान में सेना शासन व्यवस्था को प्रभावित करती है.

2008 और 2013 के चुनावों (2013 में मैं पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त था) के बाद पाकिस्तानियों और दुनिया को आशा की एक किरण दिखाई दी थी. ये चुनाव धांधली रहित चुनााव थे और ऐसा लगा था कि सेना की प्रमुखता में कमी आएगी और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी. लेकिन वो उम्मीदें अब खत्म होती दिख रही हैं. हालिया चुनावों को सेना ने प्रभावित किया और इमरान खान को सत्ता में ला बैठाया. उन्होंने अपनी पार्टी की स्थापना 1996 में की थी और एक सीट जीतने में कामयाब हुए थे. कहने का अर्थ यह है कि पाकिस्तान की शासन व्यवस्था पर सेना का प्रभुत्व ज्यों का त्यों बरकरार रहेगा. हमारे पास सैन्य विकल्प मौजूद है. समय-समय पर हम उन्हें एहसास दिलाते रहें कि यदि वे आतंकवाद को प्रोत्साहन देंगे, तो हम भी उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं.

दो साल पहले हमने सर्जिकल स्ट्राइक किया. पहले भी इस तरह के स्ट्राइक होते रहे हैं, लेकिन इस बार अंतर यह था कि इस स्ट्राइक की घोषणा की गई. पहले इसकी सार्वजनिक घोषणा नहीं होती थी. एक फर्क यह भी रहा कि इस बार एक साथ कई ठिकानों को निशाना बनाया गया. यह स्ट्राइक ठीक था. इसे सार्वजनिक करने को लेकर मेरा दूसरा मत है. इसे शायद इसलिए सार्वजनिक किया गया, क्योंकि पब्लिक ओपिनियन को मैनेज करना था. हमने जब इसकी घोषणा की, तो पाकिस्तान ने इसे खारिज कर दिया. हमारे यहां इसकी बहुत पब्लिसिटी हो रही थी. इससे पाकिस्तानियों पर दबाव बढ़ा. लेकिन मेरा मानना है कि संदेश वहीं तक जाना चाहिए, जिस तबके के लिए वो संदेश है.

लिहाजा, मैं कहूंगा कि पाकिस्तान के साथ जो पॉलिसी बने, उसमें बातचीत के साथ-साथ बिना शोर-शराबे के बल प्रयोग का विकल्प भी खुला रखा जाना चाहिए. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हमें एक विदेश नीति के मसले पर देश के भीतर आम सहमति के निर्माण पर जोर देना चाहिए, क्योंकि आम सहमति के बिना महत्वपूर्ण विदेश नीति से संबंधित मुद्दों का राजनीतिकरण हो जाता है.

(लेखक पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रह चुके हैं)

विदेश नीति दिशाहीन होती जा रही है –संंजय सिंह

कहावत है कि पड़ोसी अच्छा हो तो आपकी तरक्की दुगुनी हो जाती है. यह जितना किसी व्यक्ति के परिवार के संबंध में सही है, उतना ही या उससे भी कई गुना ज्यादा किसी देश के बारे में सही है. हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी पड़ोसी राज्यों के साथ कूटनीति के संबंध में संकेत और दिशा निर्देश मिलते हैं. पड़ोसी राज्यों के साथ संबंध और राज्यों का वर्गीकरण महाभारत में भी मिलता है. महाभारत काल में राज्यों को मित्र, शत्रु, तटस्थ और मध्यस्थ चार तरह के राज्यों में बांटा गया है. शत्रुता, मित्रता, तटस्थता और मध्यस्थता इन चार प्रकार के संबंधों के वर्णन महाभारत में मिलते हैं.

पड़ोसी देशों या राज्यों के साथ संबंध व प्रगाढ़ मित्रता बनाए रखना इतना जरूरी था कि राजनीतिक संबंधों को मजबूत करने के लिए विवाह के माध्यम से पारिवारिक संबंध जोड़े गए. यूनानी राजकुमारी का सातवाहन राजपरिवार के साथ वैवाहिक संबंध और शको का भारतीय राजवंश में वैवाहिक संबंध इतिहास के पन्नों में दर्ज है.

इतिहास में विम्बिसार का लिच्छिवी की राजकुमारी चेलेना से विवाह, कौशल हारने के बाद वहां के नरेश प्रसेनजित का अपनी पुत्री वज्जीरा का आजातशत्रु से विवाह, सेल्यूकस का चन्द्रगुप्त मौर्य की बेटी से विवाह आदि यह समझने के लिए काफी है कि प्राचीन काल से ही अंतरराष्ट्रीय संबंध कितने महत्वपूर्ण थे और तत्कालीन राजा अपने राज्य की सुख-शांति और मजबूती के लिए कितने संवेदनशील थे.

देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विदेश नीति के संबंध में पंचशील को आगे बढ़ाया, जिसमें एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और सम्प्रभुता का सम्मान, परस्पर अनाक्रमण, एक दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करना, समानता और पड़ोसी राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व आदि को महत्व दिया गया.

गुटनिरपेक्षता भारत की विदेश नीति का दूसरा पड़ाव रहा है. देश में अमेरिका, ब्रिटेन और रूस जैसे देशों को नकारकर नए स्वतंत्र देशों के समूह द्वारा अपने हितों को ध्यान में रखते हुए आपसी हित और विकास को आगे बढ़ाया गया. भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संवाद और मजबूत संबंध के पीछे गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत के नेतृत्व की बड़ी भूमिका रही है.

ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से हमारी विदेश नीति को उद्धेश्यहीन और दिशाहीन बनाए जाने के कारण भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ बने आत्मीयपूर्ण संबंधों में दरार आने लगी है.

(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)

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