कश्मीर घाटी में मिलिटेंसी और हिंसा की लहर हर गुजरने वाले दिन के साथ फैलती जा रही है. सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को पेश आने वाली चुनौतियों में से एक चुनौती ये भी है कि उन हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कैसे सुरक्षा दी जाए, जो पीडीपी, भाजपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस जैसे दलों से जुड़े हैं. पच्चीस अप्रैल को जब दक्षिणी जिला पुलवामा के राजपुरा इलाके में मिलिटेंटों ने एक राजनीतिक कार्यकर्ता गुलाम नबी पटेल को गोली मार कर हत्या कर दी तो पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस में से किसी भी दल ने पटेल को अपना कार्यकर्ता मानने से इनकार कर दिया है. कोई भी दल नहीं चाहता था कि कार्यकर्ता की हत्या की खबर फैलने के कारण उसके अन्य कार्यकर्ताओं में खौफ और दहशत पैदा हो. मरने के बाद एक राजनीतिक कार्यकर्ता से उदासीनता जाहिर करने के मेनस्ट्रीम पार्टियों के इस रवैये पर सब दंग रह गए. पटेल ने 2002 का इलेक्शन कांग्रेस और 2008 का इलेक्शन सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के घोषणापत्र पर लड़ा था.
2014 में उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा बल्कि अपने निर्वाचन क्षेत्र में पीडीपी के नेता डॉ. हसीब को इलेक्शन जीतने में सहायता की. पटेल हाल में पीडीपी को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे. जब उनके घरवालों ने देखा कि पटेल की हत्या के बाद कोई भी पार्टी उन्हें अपना मानने को तैयार नहीं, तो उन्होंने मीडिया के सामने ये बयान दिया कि पटेल ने अपनी जान जोखिम में डालकर मेनस्ट्रीम पार्टियों के लिए किस तरह काम किया था. उन्होंने बताया कि 2014 के चुनाव में किस तरह पटेल ने दूर-दराज के इलाकों से वोटरों को गाड़ियों में लाद कर पीडीपी के हक में वोट डलवाए. मिलिटेंटों के हाथों पटेल की हत्या की वजह से पूरी घाटी में मेनस्ट्रीम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में खौफ और दहशत की लहर फैल गई और उनमें से अधिकतर ने अपने इलाकों को छोड़कर श्रीनगर में पनाह ले ली.
लेकिन सिर्फ पांच दिन बाद यानी तीस अप्रैल को श्रीनगर में मिलिटेंटों ने भाजपा कार्यकर्ता जुबैर अहमद की गोली मारकर हत्या कर दी. भाजपा ने शुरू में इस हत्या पर खामोशी साधी लेकिन जब सोशल मीडिया पर लोग इस पर बात करने लगे तो भाजपा ने स्वीकार कर लिया कि जुबैर श्रीनगर के बटामालू निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी के उपाध्यक्ष थे. भाजपा के केन्द्रीय नेता और कश्मीरी मामलों के पार्टी के इंचार्ज अविनाश राय खन्ना ने जुबैर की हत्या पर कहा कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान की जाएगी. उल्लेखनीय है कि चंद हफ्ते पहले श्रीनगर के आसपास के इलाके में ही मिलिटेटों ने भाजपा के एक स्थानीय कार्यकर्ता मुहम्मद अनवर खान की हत्या करने की एक असफल कोशिश की थी.
घाटी में मेनस्ट्रीम राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमलों में पिछले दो वर्षों के दौरान तीव्रता आई है. इन दो वर्षों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों से दर्जनों कार्यकर्ताओं की हत्या की गई. उनके घरों पर हमले किए गए. सिर्फ पिछले वर्ष घाटी में पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, भाजपा और जदयू से जुड़े नौ कार्यकर्ताओं को मिलिटेंटों ने मार दिया. पटेल और जुबैर की हत्याओं से ऐसा लगता है कि मिलिटेंटों ने फिर से राजनीतिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया है. इसकी वजह से घाटी में हजारों राजनीतिक कार्यकर्ता भयभीत हैं.
इस स्थिति का कष्टप्रद पहलू यह है कि सरकार घाटी के विभिन्न इलाकों में सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देने में असफल रही है. दक्षिणी कश्मीर में तैनात पुलिस अधिकारी ने इस मामले में चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देना असंभव है.
उन्होंने कहा कि दूर-दराज के इलाकों में कार्यकर्ताओं की सुरक्षा पर एक-दो पुलिस अहलकारों को तैनात करने का मतलब उन पुलिस वालों की जान को भी खतरे में डालना होगा, क्योंकि एक-दो सिक्योरिटी गार्ड पर हमला करना मिलिटेंटों के लिए बहुत आसान है. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में कार्यकर्ताओं के पास इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है कि वो अपने इलाकों को छोड़कर उन इलाकों में पनाह लें, जहां उन्हें कोई जानता न हो. अगर ऐसा हुआ तो इसका मतलब यह होगा कि घाटी के अधिकतर इलाकों में मेनस्ट्रीम पार्टियों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होगा. वैसे भी दक्षिणी कश्मीर के बारे में एक आम धारणा यही है कि गत दो वर्षों के दौरान यहां विधायक अपने-अपने इलाकों में जाने से कतरा रहे हैं. इससे स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अनंतनाग लोकसभा सीट पिछले तीन वर्षों से खाली पड़ी है और सरकार इस सीट पर उपचुनाव कराने में नाकाम साबित हुई है. ये सीट महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई थी.
जानकारों का मानना है कि घाटी में मेनस्ट्रीम पार्टियों का अस्तित्व कायम रखने के लिए छोटे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है. पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सिब्ते मोहम्मद हसन ने चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि बड़ा नेता तभी बड़ा कहलाता है, जब उसके आसपास बहुत सारे छोटे-छोटे कार्यकर्ता मौजूद हों. राजनीतिक दलों को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने में इन्हीं छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं का रोल होता है. अगर आज सरकार अनंतनाग लोकसभा सीट का उपचुनाव कराने में असफल हो रही है, तो उसकी बुनियादी वजह यही है कि यहां मेनस्ट्रीम राजनीतिक कार्यकर्ता मौजूद नहीं हैं. और आज हैं भी वे सक्रिय नहीं हैं.
हसन का कहना है कि पटेल की हत्या के बाद विभिन्न दलों की तरफ से उसे अपना कार्यकर्ता स्वीकार न करने के कारण भी बहुत सारे कार्यकर्ता हतोत्साहित हैं. सरकार के लिए अब ये एक चुनौती है कि वो न सिर्फ छोटे कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करे, बल्कि उन्हें यह अहसास भी दिलाए कि सरकार उनके साथ है. इन कार्यकर्ताओं को हालात के रहमोकरम पर छोड़ने और मिलिटेंटों की गोलियों का निशाना बनने देने के नतीजे में ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि यहां मेनस्ट्रीम पार्टियों का अस्तित्व भी नजर नहीं आएगा.
यहां ये बात उल्लेखनीय है कि घाटी में मेनस्ट्रीम पार्टियों के लिए ऐसी स्थिति 1990 में मिलिटेंसी की शुरुआत के बाद पैदा हो गई थी. उस समय नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी. मिलिटेंसी शुरू होते ही राज्य में गवर्नर राज कायम किया गया. इसके साथ ही नेशनल कॉन्फ्रेंस की सारी लीडरशिप घाटी छोड़कर चली गई. खुद फारुख अब्दुल्ला, जो मुख्यमंत्री थे, अपने कुनबे के साथ लंदन चले गए थे. चंद वर्षों के अंदर मिलिटेंटों ने सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, जिनमें ज्यादातर नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ता थे, उनकी हत्या कर दी.
यह स्थिति देखकर हजारों कार्यकर्ताओं ने समाचार पत्रों में विज्ञापन छपवाकर खुद को राजनीति और राजनीतिक दलों से अलग कर लिया. इस तरह से घाटी में मेनस्ट्रीम पार्टियों का अस्तित्व खत्म होकर रह गया. यहां तक कि छः वर्ष बाद यानी 1996 में नए सिरे से चुनाव कराने और मेनस्ट्रीम पार्टियों को यहां फिर से बहाल करने के लिए सुरक्षाबलों और सरकार समर्थक बंदुकधारियों का सहारा लेना पड़ा था. साफ जाहिर है कि कश्मीर घाटी में बढ़ती हुई मिलिटेंसी और हिंसा की कार्रवाईयों को काबू में करने के साथ-साथ सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के लिए यहां मेनस्ट्रीम पार्टियों का अस्तित्व बचाने की चुनौती है.