महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर अरविंद अग्रवाल ने विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए जो आवेदन किया था, उसमें पीएचडी विषयक महत्वपूर्ण जानकारियां गलत दी हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी के यहां प्रो. अग्रवाल ने विश्विद्यालय के कुलपति पद के लिए जो आवेदन (फाइल नंबर 51-1/2015-डेस्क यू) जमा किया था, उसकी पृष्ठ संख्या 107 पर इन्होंने अपनी पीएचडी उपाधि जर्मनी के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हेडलबर्ग से 1989 में करने की बात कही है. लेकिन, सच्चाई ये है कि इनकी पीएचडी डिग्री राजस्थान यूनिवर्सिटी, जयपुर से 1992 में मिली है. राजस्थान में इनके पीएचडी का विषय था, मैक्स वेबर एंड मॉडर्न पॉलिटिकल थ्योरिज़.
गौरतलब है कि राजस्थान विश्वविद्यालय में भी इसी विषय पर और जर्मनी से कथित तौर पर प्राप्त पीएचडी का भी यही विषय है. सवाल है कि क्या एक ही प्रोफेसर एक ही विषय पर दो अलग-अलग समय में पीएचडी करेगा या कर सकता है. प्रोफेसर अग्रवाल का यह पी.एच.डी शोधप्रबंधन जुलाई 1992 में पूरा हुआ था, जबकी कुलपति वाले आवेदन पत्र में इन्होंने हेडलबर्ग से पी.एच.डी प्राप्ति की तिथि 1989 बताई है. गौरतलब है कि, ये सारी जानकारी सूचना का अधिकार कानून से मिली है. विश्वविद्यालय के ही एक शिक्षक डा. शशिकांत रे द्वारा डाली गई एक आरटीआइ से पुख्ता तौर पर प्रमाणित हो गया कि प्रोफेसर अग्रवाल ने कुलपति पद पर नियुक्ति के लिए जर्मनी से पीएचडी डिग्री पाने का दावा किया है, जबकि सच्चाई कुछ और ही है.
सवाल है कि 1989 की पीएचडी डिग्री सच है या 1992 की? राजस्थान यूनिवर्सिटी से मिली पीएचडी डिग्री सच या है या जर्मनी के हेडलबर्ग यूनिवर्सिटी से मिली पीएचडी डिग्री सच है? आखिर एमजीसीयूबी, मोतीहारी के वीसी प्रोफेसर अरविंद अग्रवाल ने कहां से पीएचडी डिग्री हासिल की है? और किस साल में ये डिग्री ली है? सच क्या है? जाहिर है, मोतीहारी यूनिवर्सिटी मामले में कुछ तो गलत हो रहा है. मसलन, कुछ सवालों पर ध्यान दे.
आखिर कोई प्रोफेसर एक ही विषय पर दो बार पीएचडी तो नहीं करेगा? अगर दो बार करेगा भी तो विषय पहले वाले से अलग होगा. मान लीजिए, किसी प्रोफेसर ने 1989 में जर्मनी से पीएचडी किया, तो फिर वह 3 साल बाद राजस्थान से उसी विषय पर पीएचडी क्यों करेगा? वो भी एक ही विषय पर. मान लीजिए, अगर प्रोफेसर अग्रवाल पढाई के दौरान जर्मनी गए भी, कुछ समय वहां पढाई भी की, तो भी ये दावा तो नहीं कर सकते कि पीएचडी की डिग्री जर्मनी से ली है? लेकिन, उन्होंने मानव संसधन विकास मंत्रालय को भेजे अपने आवेदन में (2015 में वीसी पद के लिए आवेदन) तो यही दावा किया है.
विश्वविद्यालय से जुड़ी अनियमितताओं के और भी अनेकों मामले हैं. मसलन, क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्रोफेसर अग्रवाल की वीसी के तौर पर नियुक्ति के वक्त उनके पीएचडी दावों की हकीकत जानने की कोशिश की थी. क्या स्थानीय सांसद सह केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह इस तथ्य को जानने के बाद भी इस गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाएंगे और यह कोशिश करेंगे कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस गलत दावे के लिए वीसी के खिलाफ कार्रवाई करे.
अगर स्थानीय सांसद ऐसे गलत दावों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कोशिश नहीं करते है तो यह माना जाना चाहिए कि कहीं न कहीं वाइस चांसलर को किसी बडे आदमी का वरदहस्त प्राप्त है या फिर मौजूदा केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फजीरो टॉलरेंस की बात करती है, कार्रवाई कुछ नहीं करती. यही सवाल बिहार से आने वाले मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के लिए भी है कि क्या वो मोतीहारी स्थित सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी की अनियमितताओं को जानने-समझने के बाद भी आंखें क्यों मूंदे हुए है?
इन सब के अलावा, यूनिवर्सिटी से संबम्धित कैग की सैम्पल जांच रिपोर्ट से सामने आए वित्तीय भ्रष्टाचार और शैक्षणिक नियुक्तियों में हुइ धांधलियों के खिलाफ वहां के प्रोफेसर लंबे समय से आंदोलनरत थे. हाल ही में एक प्रोफेसर संजय कुमार पर हमला भी हुआ था, जो राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना. शिक्षकों का आरोप है कि यह हमला निजी खुन्नस की वजह से करवाया गया था. हालांकि, इसमे कितनी सच्चाई है, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा. लेेकिन, यूनिवर्सिटी मसले पर एक और बड़ा सवाल ये है कि ऐसा क्या कारण है कि चंपारण के वे लोग भी आज खामोश है, जिन्होंने सही मायनो में इस यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए अपना पसीना बहाया था, क्रांति का झंडा बुलन्द किया था. आखिर, वो वजह क्या है…?