वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के लिए ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम का आयोजन करवाया था. उन्हीं आयोजनों में से एक आयोजन 20 मार्च 2014 को हुआ था, जिसमें मोदी ने महाराष्ट्र के यावतमल ज़िले के दभाडी के किसानों से चर्चा की थी. इस चर्चा में 28 वर्षीय किसान कैलाश मानकर भी शामिल हुआ था. कैलाश ने पिछले दिनों फसल की बर्बादी और क़र्ज़ के बोझ के कारण अपनी जान दे दी. कैलाश अपने तीन भाई बहनों में सबसे बड़ा था. 2012 में पिता की मौत के बाद परिवार की तीन एकड़ ज़मीन पर खेती करता था. उसके घर वालों का कहना है कि उसने जिला सहकारी बैंक से 30 हज़ार रुपए और निजी महाजनों से ऊंचे ब्याज दर पर तकरीबन एक लाख रुपए का ऋृण लिया था. इन कर्जों की वापसी और बहन की शादी का बोझ वो बर्दाश्त नहीं कर सका. उसे अपनी जान दे देना ही आसान लगा. ज़ाहिर है कैलाश प्रधानमंत्री मोदी की चाय पर चर्चा कार्यक्रम में इसलिए शामिल हुआ होगा, क्योंकि उसे प्रधानमंत्री के आश्वासनों से उम्मीद बंधी होगी. उसे लगा होगा कि उसकी मुश्किलें आसान हो जाएंगी. मोदी फसल की दोगुनी कीमत का जो वादा कर रहे हैं उसे वो पूरी करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. महाराष्ट्र और देश के दूसरे राज्यों से किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है. सरकर ने क़र्ज़ मा़फी की घोषणा की है, लेकिन उसका नतीजा फिर बैतलवा डाल पर साबित हुआ है.
किसानों की समस्या और पटोले का इस्ती़फा
किसानों की समस्या को लेकर हाल में महाराष्ट्र के भंडारा-गोंदिया के सांसद नाना पटोले का भाजपा की प्राथमिक सदस्यता और लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना एक ऐसी घटना थी, जो एक साथ कई कहानियां बयां करती थी. यूं तो मोदी सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर पिछले वर्षों के दौरान पार्टी के अन्दर से विरोध की कुछ खुली और दबी-दबी आवाजें आती रही हैं, लेकिन पटोले पहले सांसद हैं जिन्होंने एक साथ पार्टी और संसद की सदस्यता छोड़ने का फैसला किया. पटोले ने मुख्य रूप से किसानों की समस्या के प्रति केंद्र और राज्य सरकारों की उदासीनता के चलते अपना इस्तीफा दिया था.
दरअसल पटोले का इस्तीफा अचानक नहीं आया है. वो पहले से ही केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों, खास तौर पर किसान विरोधी नीतियों की आलोचना करते आये थे. अपने त्यागपत्र के साथ संलग्न पत्र में उन्होंने अपने इस फैसले के लिए 14 कारण बताए, जिनमें प्रमुख रूप से किसानों की आत्महत्या, जीएसटी, और नोटबंदी शामिल हैं. वे पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आड़े हाथों लेते रहे हैं. इस वर्ष अगस्त महीने में उन्होंने आरोप लगाया था कि मोदी सवाल सुनना पसंद नहीं करते. उन्होंने गुजरात चुनाव के दौरान आये ‘नीच विवाद’ का हवाला देते हुए अपना त्यागपत्र लिखा कि प्रधानमंत्री इस शब्द से आहत हुए, क्योंकि वे ओबीसी जाति से सम्बन्ध रखते हैं, लेकिन मैं सबको यह बताना चाहता हूं कि उन्होंने पार्टी के हर ओबीसी एमपी और कार्यकर्ता का अपमान किया है.
किसान आत्महत्या का बढ़ता आंकड़ा
यह तो स्पष्ट है कि पटोले ने अपने इस्तीफे का मुख्य कारण केंद्र और महाराष्ट्र सरकार की किसानों की समस्याओं के प्रति उदासीनता को बताया है. पटोले के इस आरोप की पुष्टि राज्य सरकार द्वारा जारी आंकड़ों से भी हो जाती है. एक सवाल के जवाब में महाराष्ट्र सरकार के सहकारिता मंत्री सुभाष देशमुख ने विधान सभा को बताया था कि इस वर्ष जून और अक्टूबर के दरम्यान 1254 किसानों ने आत्महत्या की. यदि इन आंकड़ों में जनवरी से मई तक की संख्या को मिला लिया जाए तो इस वर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दो हज़ार का आंकड़ा पार कर जाती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में इस वर्ष के दस महीनों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 2414 है. गौरतलब है कि जब से महाराष्ट्र सरकार ने 34 हज़ार करोड़ की ऋण मा़फी की घोषणा की है तब से अब तक 1020 किसानों ने अपनी जान दे दी है.
इन आंकड़ों का एक पहलु और भी है. पिछले साल की तुलना में इस वर्ष किसान आत्महत्या के मामलों में 435 का इजाफा हुआ. महाराष्ट्र में सूखे, अधिक बारिश और कीमतों में उतार चढ़ाव के कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. राज्य सरकार ने किसानों से यह वादा किया था कि वो उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देंगे, लेकिन यह वादा भी प्रधानमंत्री के फसल की लागत का दोगुना समर्थन मूल्य देने के वादे जैसा जुमला साबित हुआ. अपने त्यागपत्र में पटोले ने यह भी आरोप लगाया है कि इस मामले को उन्होंने पार्टी में और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के समक्ष उठाने की कोशिश की, लेकिन कहीं भी उनकी सुनवाई नहीं हुई. उक्त आंकड़ों के मद्देनज़र पटोले के आरोप में सत्यता नज़र आती है कि सरकार केवल दावे कर रही है ज़मीनी स्तर पर कोई काम नहीं हो रहा है, सही प्रतीत होता है. अभी लाखों किसानों की आत्महत्या के बाद भी सरकारें आत्महत्या की परिभाषा में फंसी हुई हैं. किसानों को राहत देने के लिए जिस पैकेज की घोषणा होती है वो ज़रूरतमंदों तक पहुंच नहीं पाती. वही हाल महाराष्ट्र सरकार द्वारा 34 हज़ार करोड़ की ऋण मा़फी की घोषणा की भी है.
ऋण मा़फी या भ्रष्टाचार का दूसरा रास्ता
इस वर्ष 24 जून को महाराष्ट्र सरकार ने किसान क़र्ज़ मा़फी की घोषणा की थी. यह घोषणा उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा किसान क़र्ज़ मा़फी की घोषणा के बाद किसान संगठनों और विपक्षी पार्टियों के दबाव में की गई थी. क़र्ज़ मा़फी के पहले चरण की घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने 18 अक्टूबर को कहा था कि इस चरण में 10 लाख किसानों को क़र्ज़ मा़फी का लाभ मिलेगा और 15 नवम्बर तक 80 प्रतिशत योग्य किसानों को इसका लाभ मिल चुका होगा. पहले चरण की क़र्ज़ मा़फी की लागत 32,022 करोड़ रुपए आंकी गई थी. अभी 18 अक्टूबर को किसानों को लाभ पहुंचाने की घोषणा हुई ही थी कि एक अलग तरह के घपले की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी. 25 अक्टूबर को छपी ख़बरों में एक प्रमुख खबर यह भी थी कि 100 किसानों के नाम एक ही आधार नंबर से लिंक थे. गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार ने किसानों से ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कहा था, जिसके लिए आधार नंबर अनिवार्य था, लेकिन जांच के बाद पता चला कि 100 किसानों के नाम एक ही आधार नंबर से लिंक थे. आधार नंबर को अनिवार्य बनाने का फैसला ऋण वितरण में किसी तरह की धांधली को रोकने के लिए किया गया था. इस तरह की चीज़ें सामने आते ही मुख्यमंत्री ने बैंक अधिकारियों की मीटिंग बुलाई ताकि ऋण वितरण में देरी न हो.
आधार नंबर को इसलिए हर चीज़ में अनिवार्य किया गया था ताकि इस तरह की धांधली को रोका जा सके. कुछ बैंकों के अधिकारियों ने यह स्वीकार किया कि रजिस्ट्रेशन पोर्टल ‘आपले सरकार’ पर प्रकाशित आंकड़े उनके आंकड़ों से मेल नहीं खाते. उनका कहना है कि कुछ किसानों के नाम गायब हैं और कुछ के नाम उनकी जमीन से मेल नहीं खाते. कई मामलों में क़र्ज़ की मुख्य राशि और ब्याज मेल नहीं खाते. वहीं दूसरी तरह विपक्ष ने भी सरकार को इस मामले पर घेरना शुरू कर दिया है. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहाण ने इसे बैंक की धोखाधड़ी बता कर घोटाले की संज्ञा दी है. रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को पत्र लिख कर राष्ट्रीयकृत बैंकों और सहकारी बैंकों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है, जिन्होंने 14 लाख फर्जी खाते जमा किए हैं. रिपोर्टों के मुताबिक महाराष्ट्र सरकार ने तकरीबन 15 संदिग्ध बैंक खातों की पहचान की है, जो सरकार की ऋण मा़फी की योजना का लाभ लेने के लिए खोले गए थे.
आधार हर समस्या का समाधान नहीं है
अब सवाल यह उठता है कि सरकार इस तरह की धांधली को कैसे रोकेगी? खास तौर पर जब क़र्ज़ मा़फी की घोषणा के बाद तकरीबन एक हज़ार किसानों ने ख़ुदकुशी की है. क्या ज़रूरतमंद किसानों तक राहत पहुंचाने में ये चीज़ें बाधा नहीं बनेंगी. सरकार किसानों से यह आशा करती है कि वे ऑनलाइन फॉर्म खुद भर लेंगे, जो देश में साक्षरता दर को देखते हुए दूर की कौड़ी मालूम होती है. लिहाज़ा केवल आधार नंबर ही हर मर्ज़ का उपाय बता देना समस्या का समाधान नहीं है. ये वक़्त बताएगा कि इस तरह की धांधली का ठीकरा भी किसानों के ऊपर फोड़ा जाता है या बेईमान अफसरों से भी जवाब-तलब किया जाता है. लेकिन एक चीज़ सा़फ है कि देश का अन्नदाता यानी किसान तनाव में है, वर्ना महज़ फैशन के तौर पर कोई अपनी जान नहीं देता.
इस सिलसिले में पटोले का इस्तीफा भी काफी महत्वपूर्ण है. कांग्रेस की पृष्ठभूमि और गुजरात चुनाव में कांग्रेस के समर्थन के मद्देनज़र यह नहीं कहा जा सकता कि पद के लालच में उन्होंने ऐसा किया होगा, लेकिन 2014 में उन्होंने जिस स्थिति में कांग्रेस का हाथ छोड़ा था, आज यदि कांग्रेस की हालत उससे ख़राब नहीं तो उससे बेहतर भी नहीं हुई है. लिहाज़ा इस आरोप में कोई दम नहीं दिखता. भाजपा यह भी नहीं कह सकती कि वो कांग्रेस के थे और कांग्रेस में चले गए. क्योंकि यदि ऐसा है, तो अब भी भाजपा में अनगिनत कांग्रेसी पृष्ठभूमि के सांसद और विधायक मौजूद हैं. फिर क्या वजह थी, जिसने पटोले को यह क़दम उठाने पर मजबूर किया? ज़ाहिर है किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता ने उन्हें ये क़दम उठाने पर मजबूर किया. महाराष्ट्र से ही भाजपा सांसद राजू शेट्टी भी सरकार के खिलाफ किसानों के आन्दोलन का नेतृत्व कर चुके हैं.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में जिस तरह क़र्ज़ मा़फी का तमाशा किया गया और अब महाराष्ट्र में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े और सरकारी क़र्ज़ मा़फी की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकारें किसानों की समस्याओं को लेकर उदासीन हैं. मीडिया भी उनकी परेशानियों को उस तरह नहीं उठा रहा है, जैसे उठाना चाहिए. नतीजतन किसानों को अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाने के लिए अपनी फसल जलानी पड़ रही है, किसान नंगा प्रदर्शन कर रहा है, खुद को ज़मीन में गाड़ कर धरना प्रदर्शन करना पड़ रहा है. ऐसे में पटोले का क़दम एक साहसिक कदम है. उन्होंने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है, जिसपर न केवल सरकार को सोचना है बल्कि देश को लोगों को भी विचार करना है. क्योंकि सरकार जिस तरह अपने नव उदारवादी पॉलिसी के तहत किसानों की अनदेखी कर रही है, उससे लगता है कि आने वाले दिनों में किसानों की स्थिति और दयनीय हो जाएगी.