महागठबंधन में टूट और जदयू के एनडीए में शामिल हो जाने के बाद बिहार का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल गया है. एक तरफ, भाजपा और जदयू नेताओं में खुशी की लहर है, वहीं राजद और कांग्रेस विधायक अभी से आगामी चुनाव को लेकर परेशान दिख रहे हैं. इसका सबसे अधिक असर मगध से आने वाले राजद और कांग्रेस विधायकोंें पर पड़ने वाला है. आने वाले समय में इनके रास्ते आसान नहीं होंगे. राजनीतिक समीकरण के हिसाब से देखें, तो जदयू के महागठबंधन से अलग हो जाने से इन विधायकों को चुनाव में जीत के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. 2005 और 2010 का विधानसभा का चुनाव राजद-कांग्रेस ने मिलकर लड़ा था. लेकिन उन्हें बहुत कम सफलता मिली थी. उस समय पूरे मगध में राजद-कांगेस के आधा दर्जन से भी कम विधायक थेे. उक्त दोनों चुनावों में एनडीए के विधायकों की संख्या दो दर्जन के आसपास थी. लेकिन चार साल बाद जदयू के पुन: एनडीए में शामिल होने के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण बदल गया है. स्वभाविक है मगध का भी वोट बैंक और राजनीतिक समीकरण पहले जैसा नहीं रहा.
सभी दलों के बड़े नेताओं को पता है कि मगध पर जिस दल या गठबंधन की मजबूत पकड़ हुई, बिहार की सत्ता पर वही काबिज होता है. 2010 के विधानसभा चुनाव मेंं मगध के गया जिले के दस विधानसभा क्षेत्रों में से राजद-कांग्रेस को सिर्फ बेलागंज विधानसभा क्षेत्र से ही सफलता मिल सकी थी, जहां से राजद के डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद यादव जीत हासिल किए थे. हालांकि उनकी जीत को पार्टी की जीत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे लगातार 1990 से वहां से विधायक हैं. शेष नौ विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए के प्रत्याशियों को सफलता मिली थी. डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद यादव अब भी अजेय स्थिति में नजर आते हैं. उसी तरह बोधगया सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान राजद विधायक कुमार सर्वजीत भी अपनी सीट बचा सकते हैं. वे दूसरी बार यहां से विधायक चुने गए हैं. 2010 के विधानसभा चुनाव में वे हार गए थे. ये सीट कुमार सर्वजीत के पिता पूर्व सांसद राजेश कुमार की परंपरागत सीट रही है.
2015 की बात करें, तो उस समय राजद-कांग्रेस के माय समीकरण के साथ-साथ नीतीश कुमार की साफ सुथरी छवि तथा महादलित और अति पिछड़ा वोट बैंक का भी फायदा मिला था महागठबंधन को. हालांकि इस बात को आज राजद-कांग्रेस के नेता स्वीकार नहीं कर रहे हैं. लेकिन जदयू और नीतीश कुमार को जनता के मूड का अंदाजा है. हालांकि बिहार में एक जाति और सबसे बड़े वोट बैंक का नेता लालू को ही माना जाता है. बिहार में मुस्लिम मतदाता भी मन से लालू के साथ हैं. लेकिन दूसरा तथ्य ये भी है कि बावजूद इसके, 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में लालू और कांग्रेस बुरी तरह हार गए. यही कारण है कि महागठबंधन से जदयू के अलग होने के बाद इसे कमजोर होने और एनडीए के मजबूत होने की बात कही जा रही है. इस स्थिति में फायदा एनडीए को ही होता दिख रहा है. गया के अलावा औरंगाबाद, जहानाबाद, नवादा और अरवल जिले में भी अब एनडीए मजबूत स्थिति में नजर आ रहा है. जदयू के एनडीए में आने से भाजपा-जदयू को तो फायदा होगा ही, एनडीए के अन्य घटक दलों हम, लोजपा और रालोसपा को भी इसका लाभ मिलेगा. 2015 के विधानसभा चुनाव में इन दलों के जो प्रत्याशी दूसरे स्थान पर आकर हार गए थे, वैसे प्रत्याशियों को 2020 के विधानसभा चुनाव में लाभ मिल सकता है. हालांकि इन सभी समीकरणों से इतर एक सच ये भी है कि बिहार की राजनीति में कब क्या हो जाय कहना मुश्किल है.