शैक्षणिक अराजकता, फर्जी डिग्री और वित्तीय अनियमितता के कारण सुर्खियों में रहने वाला मगध विश्वविद्यालय एक बार फिर से चर्चा में है. इस बार भी मुद्दा गौरवान्वित करने वाला नहीं, बल्कि शर्मिंदा करने वाला ही है. पिछले डेढ़ दशक में इस विश्वविद्यालय को शायद ही ऐसा कुलपति नसीब हुआ हो, जिसपर वित्तीय गड़बड़ी से लेकर शैक्षणिक अराजकता को बढ़ावा देने का आरोप नहीं लगा हो. पिछले तीन कुलपति पर तो कई प्राथमिकी भी दर्ज हो चुकी है. दो पूर्व कुलपति पर अंगीभूत कॉलेजों के प्राचार्यों तथा शिक्षकों के पदस्थापन-स्थानान्तरण में भी बड़े पैमाने पर गड़बड़ी का आरोप लग चुका है. ये मामले अभी कोर्ट में लंबित हैं. फर्जी डिग्री के मामले में तो तत्कालीन परीक्षा नियंत्रक से लेकर मगध विश्वविद्यालय के कई कर्मी जेल की हवा भी खा चुके हैं. इस बार मामला करोड़ों रुपयों की वित्तीय अनियमितता का है.
तमाम नियम-कानून को ताक पर रखकर मगध विश्वविद्यालय के पदाधिकारियों ने करोड़ों की हेराफेरी कर दी. भारत के नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक ने इस गड़बड़ी को पकड़ लिया. महालेखाकर ने जब 2012 से मार्च 2016 के दौरान मगध विश्वविद्यालय में हुए करोड़ों के खर्च पर प्रश्न उठाया तो विश्वविद्यालय में हड़कंप मच गया. मगध विश्वविद्यालय को भेजे गए पत्र में महालेखाकार ने अप्रैल 2012 से मार्च 2016 तक के लेखा परीक्षण पर आपत्तियों के निराकरण के लिए प्रमाण पत्र के साथ वस्तुस्थिति स्पष्ट करने को कहा है.
महालेखाकार की रिपोर्ट में कहा गया है कि बगैर टेंडर, विज्ञापन व इकरारनामा के कई मदों में अनियमित तरीके से भुगतान किया गया है. दस लाख से अधिक के काम की निविदा प्रकाशित करनी थी, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसा नहीं किया.
महालेखाकार ने कहा है कि 24 मई 2015 को कुलपति के मौखिक आदेश पर मगध विश्वविद्यालय ने प्रशासनिक भवन की सफाई के लिए क्लीन इंडिया फर्म के साथ 38 हजार रुपए मासिक के दर पर तीन माह का इकरारनामा किया. इसमें कार्यक्षेत्र व परिसर के क्षेत्रफल का जिक्र नहीं था. जून 2015 से मई 2016 तक उक्त फर्म को 16 लाख 10 हजार 502 रुपए का भुगतान कर दिया गया. इसके बाद का भुगतान वित्त पदाधिकारी ने रोक दिया. जून 2016 से दिसम्बर 2016 तक का 26 लाख 98 हजार रुपए का भुगतान रुका हुआ है. गौर करने वाली बात ये है कि विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार दस लाख से ज्यादा का काम मौखिक आदेश पर किया जाना वित्तीय प्रावधानों का उल्लंघन है.
एक फर्जीवाड़ा कम्प्यूटर ऑपरेटरों की नियुक्ति में भी हुआ. नवम्बर 2008 में कम्प्यूटर जॉब को लेकर मगध विश्वविधालय ने मौखिक रूप से कोटेशन मांगा. साइवर इंडिया बोधगया के कोटेशन को न्यूनतम बताते हुए 4500 रुपए प्रति ऑपरेटर की दर से इस कम्पनी को काम दे दिया गया. कम्प्यूटर ऑपरेटरों की शैक्षणिक योग्यता व तकनीकी ज्ञान का उल्लेख एंजेसी ने नहीं किया और इसे लेकर इकरारनामा भी नही हुआ. बिना इकरारनामें के उक्त एजेंसी को 46 लाख 98 हजार का भुगतान कर दिया गया. निरंतर ऑपरेटरों की संख्या बढ़ाए जाने और निविदा व इकरारनामें और ऑपरेटरों की योग्यता की जानकारी के बिना 46 लाख 98 हजार के भुगतान को महालेखाकार ने अनियमितता माना है. सरकार ने विश्वविद्यालय को सरकारी दर पर सरकारी एजेंसी से काम का निर्देश दिया था. सरकार ने आउटसोर्सिग मद में 13 करोड़ 70 लाख का आवंटन किया था, लेकिन विश्वविद्यालय ने नियम के विपरीत आंतरिक स्त्रोत का इस्तेमाल किया.
बिहार वित्त अधिनियम की धारा 131 में कहा गया है कि सामान्यत: आपूर्तिकर्त्ता को भुगतान सेवा के बाद किया जाना चाहिए. लेकिन मगध विश्वविद्यालय ने ऐसा नहीं किया. उक्त अवधि में विश्वविद्यालय प्रशासन ने आपूर्तिकर्त्ता को 71 लाख 72 हजार का अग्रिम भुगतान कर दिया. इसमें भी अब तक 20 लाख 74 हजार का ही समायोजन हो सका है. फरवरी 2017 तक 50 लाख 96 हजार की राशि असमायोजित थी. 2013 से 2016 तक 26 लाख 48 हजार का अग्रिम भुगतान कर दिया गया था, लेकिन समायोजन मात्र 2 लाख 28 हजार का ही हुआ. इन अग्रिम भुगतानों की वसूली को लेकर किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं की गई. इस वित्तीय अनियमितता के
खुलासे के बाद मगध विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारी भी संदेह के घेरे में आ गए हैं.