मध्यप्रदेश में भाजपा बीते 14 साल से सत्ता पर काबिज है. इस दौरान यहां उसने अपनी गहरी पैठ बना ली है. उधर लम्बे समय तक सत्ता की धुरी रही कांग्रेस वहीं के वहीं कदमताल करती हुई नजर आ रही है, ना तो उसने अपनी लगातार हार से कोई सबक सीखा है और न ही कभी-कभार मिली जीत से कार्यकर्ताओं में उत्साह है. कह सकते हैं कि कांग्रेस का जनता से जुड़ाव लगातार कमजोर हुआ है.

2018 का विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी बिना किसी विजन और लक्ष्य के एक बार फिर चुनाव में उतरने जा रही है. अगर कोई चर्चा है तो बस यही कि इस बार कांग्रेस की तरफ से चेहरा कौन होगा. पार्टी में तीन कोण बन चुके हैं एक तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं तो दूसरी तरफ कमलनाथ, तीसरे कोण पर अरुण यादव और अजय सिंह की जोड़ी है. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अगुआई में भाजपा की मिशन-2018 की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी हैं, चेहरा, भूमिकाएं, मुद्दे, नारे सभी कुछ तय हो चुके हैं.

कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. अगले साल कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन चारों राज्यों में कांग्रेस एक ताकत है और उसका मुकाबला यहां सीधे तौर पर भाजपा से है. यहां क्षेत्रीय पार्टियां नहीं हैं, अगर हैं भी तो उनकी स्थिति कमजोर है. मध्यप्रदेश की बात करें तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाईकमान की प्राथमिकताओं से यह प्रदेश गायब हो गया है, तभी तो दिग्विजय सिंह के बाद यहां   असमंजस और संशय की स्थिति बनी है. यहां से करीब आधा दर्जन क्षत्रप अपनी ढपली अपना राग बजाते हुए नजर आ रहे हैं. किसी को पता नहीं कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा. कार्यकर्ता दिशाहीन हैं और नेता अपनी-अपनी गोटियां फिट करने में मशगूल हैं.

कांग्रेस के अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, सूबे में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी दिखाई पड़ रही है, लेकिन समस्या यह है कि पार्टी अभी यही तय नहीं कर पा रही है कि 2018 के लिए पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा. मध्यप्रदेश की कमान संभालने को लेकर दिग्गज नेताओं में  रस्साकशी की स्थिति बन गई है, जिसमें सिंधिया, कमलनाथ और अजय सिंह व अरुण यादव की जोड़ी शामिल है.

इधर आलाकमान की तरफ से एकजुटता की कोशिशें भी हुई हैं. केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर प्रदेश कांग्रेस ने 22 फरवरी को विधानसभा घेराव का कार्यक्रम रखा था, जिसमें सभी दिग्गज नेता कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव और अजय सिंह शामिल हुए. लेकिन यह कदम भी कारगर साबित नहीं हुआ. मंच पर भले ही सभी नेता एक साथ बैठे लेकिन उनके समर्थक अपने-अपने नेताओं के नारे लगाते हुए दिखाई पड़े. नतीजे के तौर पर इस शक्ति प्रदर्शन के बाद भी संशय की स्थिति बनी हुई है. कोई भी पक्के तौर पर यह बताने की स्थिति में नहीं है कि कांग्रेस के मिशन 2018 के लिए चुनावी कमान किसके हाथ जाएगी? जून माह के अंतिम दिनों में राहुल गांधी का मध्यप्रदेश दौरा तय है. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि इस दौरान फैसला हो जाएगा.

अजय-अरुण की जोड़ी 

अरुण यादव को खुद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राज्य में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना था, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं.   उन्होंने कभी पदयात्रा की तो कभी पोल खोल अभियान चलाया, पर कुछ अपनी सीमाएं और कुछ कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव के कारण वे कामयाब नहीं हो पाए और न ही जनता के दिलो-दिमाग पर कोई छाप छोड़ सके. 2008 में चुनाव से करीब डेढ़ साल पहले जिस तरह उनके पिता मरहूम सुभाष यादव को हटाया गया था, आज पार्टी में अरुण यादव के लिए भी ठीक वैसी ही स्थिति बनी है. अरुण यादव भले ही राहुल गांधी से मुलाकात कर अपनी गोटी फिट करने में लगे हों, लेकिन हालत उनके विपरीत नजर आ रहे हैं. कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दो दिग्गज उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं. उनके साथ अकेले अजय सिंह ही नजर आ रहे हैं, जिन्हें सत्यदेव कटारे के असामयिक निधन के बाद विधानसभा में कांग्रेस की कमान सौंपी गई है. इससे पहले जमुनादेवी के निधन के बाद भी अजय सिंह नेता प्रतिपक्ष बने थे. तब उन्हें ढाई साल का मौका मिला था, लेकिन कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई थी. इस बार अजय सिंह का मिजाज बदला हुआ नजर आ रहा है. विधानसभा में अपना पदभार ग्रहण करने से पूर्व पीसीसी में आयोजित स्वागत कार्यक्रम में उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के साथ 2018 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने का संकल्प लिया था. पिछले दिनों जब उनसे कांग्रेस की तरफ से सीएम के चेहरे के बारे में पूछा गया तब उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया था कि मेरे चेहरे में क्या खराबी है?

सिंधिया बनाम नाथ

पिछले कुछ समय से ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने संसदीय क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ भोपाल में भी मेल-मुलाकात बढ़ाते हुए नजर आ रहे हैं. मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे के निधन के बाद खाली अटेर सीट पर हुए उपचुनाव में जिस तरह से उनके बेटे हेमंत कटारे की जीत हुई है, उसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया की बड़ी भूमिका रही है. अटेर विधानसभा सीट जीतने के लिए भाजपा ने सत्ता एवं संगठन के सारे संसाधन झोंक दिए थे, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस को मिली जीत ने सिंधिया की दावेदारी को और मजबूत किया है. उन्होंने सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की अपनी क्षमता का बेहतर प्रदर्शन किया है.

सिंधिया खुले तौर पर कह भी चुके हैं कि प्रदेश में कांग्रेस को सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करना चाहिए. खुद को सीएम प्रोजेक्ट करने के सवाल पर उन्होंने कहा था कि पार्टी उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपेगी, उसे वे पूरी निष्ठा के साथ निभाएंगे. वे अपने बयानों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंधिया पर लगातार हमला बोलते रहे हैं, जिससे उनकी दावेदारी को और बल मिला है.

यह पहली बार है कि कमलनाथ सूबे की राजनीति में इतना जोर लगाते दिख रहे हैं. वे भी मप्र के सीएम बनने का सपना देख रहे हैं और इसके लिए खामोशी से अपनी बिसात बिछाने में जुटे हैं. उनके पक्ष में दलील दी जा रही है कि यह कमलनाथ के लिए आखिरी अवसर है, जबकि सिंधिया के लिए अभी काफी वक्त है. कह सकते हैं कि वे मप्र में फ्री हैंड चाहते हैं. आर्थिक संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए अनुभवी और कुबेर के धनी कमलनाथ की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. पिछले दिनों राजधानी के अखबारों में ख़बरें छपी थीं कि भोपाल में कमलनाथ के बंगले को रंग-रोगन कर तैयार किया जा रहा है. वे हर तरह से दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. यहां तक कि इस दौरान कमलनाथ के भाजपा में जाने की अफवाहें भी उड़ाई गई थीं.

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