मध्य प्रदेश किसानों के लिए क्या मृत्यु प्रदेश बनता जा रहा है? मध्य प्रदेश में किसानों की ताबड़तोड़ हो रही आत्महत्याओं से यह सवाल गहरा गया है. इसके साथ कई और सवाल जुड़े हैं. किन समस्याओं की वजह से किसान सिलसिलेवार आत्महत्याएं कर रहे हैं? शिवराज सिंह सरकार किसानों तक मदद पहुंचाने में क्यों विफल रही है? सरकारी योजनाओं का फायदा किसानों को क्यों नहीं मिल रहा है? ऐसे कई सवालों की पड़ताल करने के लिए चौथी दुनिया की टीम ने मध्य प्रदेश के कई प्रभावित इलाकों का दौरा किया और सुदूर गांवों तक जाकर किसान परिवारों से मुलाकात की, उनका हाल-चाल पूछा, ज़मीनी हक़ीक़त का जायजा लिया. तहकीकात में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए, जिनका खुलासा इस रिपोर्ताज में क्रमवार होता जाएगा और आपको किसानों की हताशा और उनकी त्रासदी का भयावह दृश्य दिखाई देगा, जिस पर अभी देश की निगाह नहीं है…
किसानों की आत्महत्या के तथ्यात्मक आंकड़ों को लेकर मध्य प्रदेश सरकार चाहे जितना कन्नी काटे और हेराफेरी करे, लेकिन सरकार और सामाजिक संस्थाओं के सर्वेक्षणों से जो तथ्य और परिणाम सामने निकल कर आ रहे हैं वह बेहद चिंताजनक हैं. पिछले नौ महीने में अगर नौ सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली, तो आप समझ सकते हैं कि मध्य प्रदेश की स्थिति कितनी भयावह है. किसानों की खुदकुशी का यह नौ सौ का आंकड़ा मध्य प्रदेश सरकार की आधिकारिक स्वीकारोक्ति है. पिछले चार महीने में ही करीब साढ़े तीन सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली है. मध्य प्रदेश सरकार के गृह मंत्री की तरफ से विधानसभा में यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया जा चुका है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी पिछले साल नवम्बर में यह कह चुके हैं कि उस एक साल में 1108 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी. सरकार और सामाजिक संस्थाओं के सर्वेक्षणों का औसत भी निकालें तो मध्य प्रदेश में हर साल आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद कम से कम एक हजार जरूर है. शर्मनाक पहलू यह है कि कुछ अर्सा पहले तक मध्य प्रदेश सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी कि प्रदेश के किसान आजिज आकर आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि इन आत्महत्याओं के बारे में सरकार को पक्की जानकारी थी.
शासन और प्रशासन की संवेदनहीनता का चरम यह है सरकार की फर्जी छवि बनाए रखने के लिए किसानों की आत्महत्या को आधिकारिक तौर पर दर्ज ही नहीं किया जा रहा था. सरकार सोचती है कि किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा बढ़ेगा तो सरकार की बदनामी होगी. आत्महत्या को लेकर मध्य प्रदेश सरकार का रुख देखते हुए पुलिस प्रशासन किसानों की आत्महत्या को आत्महत्या में न दर्ज करके अन्य कारणों से हुई मौत दिखाता रहा और मध्य प्रदेश सरकार किसानों की आत्महत्या से इन्कार करती रही. किसानों की आत्महत्या को लेकर जब भी कोई खबर आती तो सरकार की तरफ से उन खबरों का खंडन किया जाता रहा. कई मंत्री किसानों की मौत का मजाक उड़ाते रहे, यहां तक कि कई शर्मनाक बयान भी दिए गए.
सरकार की तरफ से बताया जाता रहा कि किसानों की आत्महत्याएं पारिवारिक कलह, प्रेम प्रंसग, नशा या फिर पागलपन की वजह से हो रही हैं. लेकिन मीडिया, सामाजिक संस्थाएं और किसान संगठन किसान आत्महत्या के मुद्दे को लगातार उठाते रहे. शिवराज सिंह सरकार किसान आत्महत्या को ही नकारती रही तो पीड़ित परिवारों को मुआवजा देने का सवाल कहां से उठता. सरकार के नियोजन के बावजूद किसानों की आत्महत्या के मामले धीरे-धीरे उजागर होते चले गए और तमाम कतरब्यौंत के बीच आखिरकार प्रदेश सरकार को सच्चाई स्वीकार करनी ही पड़ी. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में यह स्वीकार किया कि पिछले नौ महीनों के दरम्यान 897 किसानों ने आत्महत्या की और पिछले चार महीने में 342 किसानों ने फांसी लगा ली.
चौथी दुनिया का उद्देश्य किसानों की आत्महत्या के तकलीफदेह तथ्य को आंकड़ों में उलझाना नहीं है, बल्कि सुनियोजित तरीके से उलझा कर रखी गई उन वजहों को सामने लाना है जिन कारणों से किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अगर शिवराज सिंह सरकार समय रहते सतर्क नहीं हुई तो इस साल मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या के सारे रिकार्ड टूट जाएंगे. यह जमीनी हकीकत भी है और सरकार के लिए चेतावनी भी. मध्य प्रदेश के नौकरशाहों की टोलियों ने भी प्रभावित गांवों का सर्वे करके शिवपाल सिंह सरकार को जमीनी रिपोर्ट दे रखी है, लेकिन यह रिपोर्टें सरकार की इतनी व्याधियां उजागर करती हैं कि सरकार ने उस पर कार्रवाई करने के बजाय उसे दबा रखा है. वरिष्ठ नौकरशाहों की टीमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के आदेश पर ही गांवों का दौरा करने गई थीं.
25 अक्टूबर, 2015 को ही मुख्यमंत्री के निर्देश पर वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अफसरों की टीमें अलग-अलग गांवों में गई थीं. ज्यादातर अधिकारियों ने जो रिपोर्ट दी उससे यह साबित हो गया कि किसानों ने नाकारा व्यवस्था से विवश होकर आत्महत्या की है. कृषि क्षेत्र से जुड़ी योजनाओं का कोई लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है. इन रिपोर्टों से यह तथ्य आधिकारिक तौर पर सामने आया कि किसान कर्ज में डूब कर फांसी का रास्ता चुन रहे हैं. कई अधिकारियों ने यह माना और लिखा कि गांवों में सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है. खाद और बीज को लेकर किसान परेशान हैं और खेती में हुए नुकसान और ऊपर से कर्ज के बोझ की वजह से वे आत्महत्या कर रहे हैं. इन रिपोर्टों से सकते में आई सरकार ने चार महीने में 342 किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की बात स्वीकार की. हालांकि सामाजिक संस्थाएं कहती हैं कि सरकार इस संख्या को भी दबाकर बता रही है.
किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण उनसे बर्बर, अमानवीय और अतार्किक तरीके से कर्ज वसूला जाना है. कर्ज वसूल करने के जो मानक और मापदंड मध्य प्रदेश सरकार ने तय कर रखे हैं, उसे आप सुनेंगे तो आप निश्चित हो जाएंगे कि किसानों की आत्महत्याएं सरकार द्वारा नियोजित तरीके से उकसावा दिए जाने का परिणाम हैं. मध्य प्रदेश का किसान दो लाख, दस लाख और पंद्रह लाख तक के कर्जे में डूबा हुआ है. राज्य का ऐसा कोई भी इलाका नहीं है जहां के किसान कर्ज के बोझ से लदे नहीं हैं. किसानों को राहत देने वाले किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए जो ऋण दिया जाता है वही किसानों के लिए सबसे अधिक घातक साबित हो रहा है. सरकार यह दावा करती है कि किसानों को शून्य प्रतिशत की दर पर ऋण दिया जाता है.
लेकिन इस सरकारी योजना की जमीनी हकीकत विचित्र और अमानवीय है. एक बार जो किसान इस सरकारी ऋण की योजना में फंस गया उसे जिंदगी भर के लिए ऋण के दलदल में फंसा लिया जाता है. दरअसल, इस ऋण योजना की शर्त यह है कि किसानों को हर साल पूरा ऋण लौटाना अनिवार्य होता है. ऋण लौटाने की आखिरी तारीख 15 मार्च निर्धारित है. अगर कोई किसान 15 मार्च तक पैसे जमा नहीं करेगा तो वह डिफॉल्टर हो जाएगा. इस तारीख का निर्धारण ही किसानों के खिलाफ षडयंत्र का सबूत है. मार्च वित्त-वर्ष का आखिरी महीना सरकार और बैंक के लिए हो सकता है, लेकिन किसानों की मंडी 15 अप्रैल को खुलती है, जहां वह अपनी फसल बेच कर ऋण की अदायगी कर सके.
किसान होने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह या खुद को किसानों की हितैषी कहने वाली भाजपा के झंडाबरदारों को इतना भी नहीं पता कि 15 मार्च तक तो किसानों की फसलें खेतों में ही खड़ी रहती हैं. मार्च के आखिरी सप्ताह में कटाई शुरू होती है. क्या सरकार को इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि जब सरकारी मंडी 15 अप्रैल को खुलती ही है तो किसान अपने ऋण कैसे वापस कर पाएगा? किसान 15 अप्रैल के बाद मंडी खुलने पर अपनी उपज बेचता है. पैसे मिलने में भी कम से कम 15 दिन का समय लग जाता है. सरकार की धूर्तता देखिए कि वह मई के महीने में किसानों को पैसे देती है लेकिन ऋण वापस करने की आखिरी तारीख 15 मार्च तय कर देती है. साफ है कि यह योजना बनाई ही ऐसी गई है कि किसान डिफॉल्टर हो जाए.
15 मार्च की निर्धारित तारीख के बाद किसानों को 16 फीसदी की दर से इंट्रेस्ट देना होता है. इसके अलावा ऋण लेने के साथ ही 3 फीसदी बीमा राशि के रूप में रख लिया जाता है. इसके अलावा किसानों को ऋण लेने के लिए कई बैंकों और सरकारी दफ्तर का चक्कर लगाकर क्लियरेंस लेना होता है, उसमें भी पैसे खर्च होते हैं. कुल मिला कर किसानों को शून्य फीसदी इंट्रेेस्ट पर मिलना वाला ऋण एक छलावा है, जिसमें उन्हें 22-24 फीसदी की दर से ऋण का भुगतान करना पड़ता है. सरकार यह कतई नहीं कह सकती कि किसानों की इस समस्या से वह वाकिफ नहीं है. भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा कहते हैं कि वो सरकार को मीडिया के माध्यम से कई बार यह बता चुके हैं कि जीरो फीसदी ब्याज वाली ऋण योजना छलावा है. किसानों के खिलाफ एक षडयंत्र है, जिसकी चपेट में आकर किसान तबाह हो जाता है.
अब सरकारी तिकड़म को तफसील से देखिए. जो किसान इस ऋण योजना के जरिए पैसे लेते हैं उनकी गर्दन पर 15 मार्च की तलवार लटकी होती है. किसानों को मदद देने के नाम पर सरकार खुद ही सूद-चूसने वाले महाजन की भूमिका में आ जाती है. किसानों के पास 15 मार्च तक ऋण लौटाने का पैसा नहीं होता तो बैंक उस किसान को फिर से लोन दे देती है. बैंक अगले ही दिन इस नए लोन से मिले पैसे को जमा करा लेता है. इस तरह कागज पर किसान पिछले साल का कर्ज लौटा देता है और 16 फीसदी ब्याज देने से बच भी जाता है.
लेकिन बैंक यहां खतरनाक खेल यह कर देता है कि किसानों को जो नया लोन मिलता है उसमें वह पिछले लोन का 10 फीसदी जोड़ कर देता है. अगर किसी किसान ने एक लाख रुपये का लोन लिया था तो बैंक उसे अगले साल एक लाख 10 हजार रुपये का लोन दे देता है. लिहाजा, किसान हर साल 10 फीसदी के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा कर्ज में दबा चला जा रहा है. किसान क्रेडिट कार्ड के नाम पर जीरो फीसदी ब्याज के नाम पर जो मदद दी जा रही है वो दरअसल किसानों को हर साल पहले से ज्यादा कर्जदार बना रही है. साल दर साल किसान पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है और इससे निजात का रास्ता नहीं पाकर वह आत्महत्या कर रहा है.
यह तो हुई किसानों की आत्महत्या की सबसे प्राथमिक वजह. इसके अलावा सरकारी लापरवाहियों के कारण अन्य मुश्किलें खड़ी होकर किसानों की मौत की वजह का घेरा बनाती हैं. मध्य प्रदेश के अधिकतर इलाकों में आप देखें तो किसान शासन-जनित मुश्किलों के घेरे में घिरे दिखेंगे. किसानों की समस्याओं के प्रति सरकारी संवेदनहीनता की वजह से मध्य प्रदेश किसानों के लिए मृत्यु प्रदेश में तब्दील हो रहा है. दूसरी तरफ प्रकृति भी किसानों को मार रही है. पिछले तीन चार साल से लगातार कभी सूखा, कभी ओला तो कभी अतिवर्षा की वजह से किसानों की फसल बर्बाद होती रही है. खासकर पिछले दो साल में फसल अच्छी नहीं हुई है. पैदा हुआ गेहूं खाने लायक नहीं. सोयाबीन की फसल तो बिलकुल ही बर्बाद हो गई.
किसान की लागत में तो लगातार वृद्धि हो रही है पर उपज कम होती जा रही है. ज्यादातर किसान कर्ज लेकर खेती कर रहे हैं. पिछले दो साल से किसानों को लगातार भारी घाटा हुआ है. खेती से प्राप्त आय से किसान अपने घर को चलाने में असमर्थ होते जा रहे हैं. ऐसे में किसान अपने परिवारिक दायित्व यानि शादी विवाह, बच्चों की पढ़ाई और पर्व-त्यौहार के लिए पैसे कहां से लाएगा. अपनी प्रतिष्ठा समाज में कैसे बचा पाएगा. किसानों की आर्थिक स्थिति ने किसानों की मानसिक स्थिति को तनावगस्त कर दिया है. किसान वर्तमान और भविष्य को लेकर उदासीन हैं.
यही वजह है कि किसानों ने भारी संख्या में आत्महत्या की. अगर इस साल भी यही हाल रहा तो किसान इसे बर्दाश्त नहीं कर सकेगा. जो वर्तमान स्थिति है. इस साल मौसम का जो हाल है. फिलहाल खेतों में फसल की जो हालत है और राज्य सरकार का जो गैरजिम्मेदाराना रवैया है उसमें बड़ी तादाद में किसानों की आत्महत्या की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता.
मध्य प्रदेश के अधिकतर ग्रामीण इलाकों में फरवरी और मार्च के महीने में ही मई-जून की तरह पानी की कमी है. हर तरफ हाहाकार है. सरकार चैन की नींद सो रही है. प्रशासन लापरवाह और संवेदनहीन है. सरकार मध्य प्रदेश के किसानों के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले अवार्ड को प्रचारित करने में लगी है. झूठ और फरेब से किसानों को मौखिक रूप से खुशहाल साबित करने में शिवराज सिंह जुटे हैं. जबकि खेतों में किसान निराश और परेशान हैं. खेतों को देख कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को रोना आ जाए. इस बार गेहूं, चना, मसूर, धनिया जैसी कई फसलों की उपज ठीक नहीं है.
पानी की कमी तो सब जगह है, लेकिन सबसे बुरा हाल बुंदेलखंड और चंबल इलाके का है. सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है और भू-जल स्तर भी लगातार नीचे जा रहा है. सिंचाई की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं होने के कारण किसानों को सिचाई के लिए पानी खरीदना पड़ रहा है. किसान किसी इलाके में सौ रुपये तो किसी इलाके में दो सौ रुपये प्रतिघंटे के हिसाब से पानी खरीदने को मजबूर है.
कुछ इलाकों में तो पानी का स्तर इतना नीचे जा चुका है कि कुएं और पंप बेकार हो गए हैं. मई और जून में क्या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. अगर बारिश नहीं हुई तो लोगों के लिए पीने का पानी भी दुर्लभ हो जाएगा. सिंचाई के लिए पानी कहां से आएगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है. मध्यप्रदेश के दरवाजे पर इतनी बड़ी मुसीबत खड़ी है लेकिन मध्य प्रदेश सरकार पूरे राज्य में कृषि कर्मण अवार्ड की होर्डिंगें लगाकर अपनी पीठ खुद थपथपा रही है.
किसानों की आत्महत्या की एक और वजह यहां व्याप्त भ्रष्टाचार है. हर काम के लिए किसानों को अधिकारी ठग रहे हैं. यहां किसानों को राहत पहुंचाने वाली नीतियों की भी कमी है. मध्य प्रदेश में खाद पर वैट लगता है. कृषि यंत्रों पर टैक्स लगता है. यहां ट्रैक्टर के रजिस्ट्रेशन में दूसरे राज्यों से ज्यादा टैक्स लगता है. मध्य प्रदेश में मंडी का शुल्क भी ज्यादा है. किसान हर तरफ से लूटा जा रहा है. इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश नकली खाद और नकली बीज का भी अड्डा बना हुआ है. नकली कीटनाशक यहां बिकता है. भोले-भाले किसानों को कैसे धोखा देकर लूटा जा सकता है वह सारा दृश्य मध्य प्रदेश में देखा जा सकता है. किसान सरकारी बीज बोता है लेकिन उसमें फसल नहीं होती. अब बीज ही नकली निकल जाए तो पैदावार कैसे होगी.
किसान यूरिया खरीद कर लाता है. वह भी नकली निकलता है. किसान इस तरह की शिकायतें मध्य प्रदेश के हर इलाके में करते मिलेंगे. पता चला कि मध्य प्रदेश में खाद की जांच करने की एक ही लैबोरेटरी है और वह जबलपुर में है, जो कि 1965 में बनी थी. यह लैब नकली खाद की बिक्री रोकने में कारगर साबित नहीं हुई है. साफ है कि मध्य प्रदेश में नकली बीज, नकली खाद और नकली कीटनाशक का कारोबार सरकारी संरक्षण में बहुत ही संगठित ढंग से चल रहा है. ऐसा हो ही नहीं सकता है कि सरकार और अधिकारियों को इसके बारे में पता न हो. दोषी लोगों पर आज तक कोई कार्रवाई न होना यही साबित करता है.
हैरानी यह है कि राज्य की विपक्षी पार्टियां भी किसानों की तबाही के मसले पर कोई आवाज नहीं उठा रहीं. किसान संगठन भी इन मुद्दों पर मीडिया में बयानबाजी कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं. किसानों के साथ खड़े होकर उन्हें लामबंद करने और जूझारू आंदोलन करने की कोई पहल नहीं हो रही. मुसीबतों से घिरा किसान व्यक्ति के तौर पर सत्ता-व्यवस्था से नहीं लड़ सकता. किसान इतना पढ़े लिखे भी नहीं कि वे प्रशासन तक पहुंच कर नकली बीज, नकली खाद और नकली कीटनाशक की शिकायत दर्ज करा सकें. कुछ पहुंचे भी तो उल्टे पुलिस के हाथों प्रताड़ित हुए.
यह अजीब विडंबना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की होर्डिंग प्रदेश के हर शहर और चौराहों पर लगी है जिसमें वे मुस्कुराते हुए अन्नदाता को धन्यवाद देते नजर आते हैं, यह किसानों के साथ क्रूर मजाक ही तो है. इन होर्डिंग्स में प्रधानमंत्री द्वारा प्राप्त कृषि कर्मण अवार्ड की गाथा टंगी है. इस गाथा में है कि मध्य प्रदेश अनाज पैदा करने में देश का सबसे अव्वल राज्य बन गया है. इस वजह से पिछले चार साल से मध्य प्रदेश को लगातार यह अवार्ड मिल रहा है.
अनाज उत्पादन में मध्य प्रदेश के अव्वल आने का मसला भी भीषण घपला और धोखाधड़ी का परिणाम है. सवाल है कि पिछले तीन साल से जब मध्य प्रदेश में सूखा पड़ा है और हर जगह फसलें नष्ट हुई हैं तो राज्य की पैदावार कैसे बढ़ गई. यह पूरा मामला नियोजित धोखाधड़ी है. फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के आंकड़ों से यह तय होता है कि किस राज्य में सबसे ज्यादा उपज हुई है.
घपला यह किया जा रहा है कि मध्य प्रदेश से सटे दूसरे राज्यों से अनाज को तस्करी कर मध्य प्रदेश की मंडियों में एफसीआई को बेचा जाता है. मध्य प्रदेश सरकार गेहूं में एफसीआई की दर से सौ रुपये प्रति क्ंिवटल के हिसाब से बोनस देती है. इस वजह से दूसरे राज्यों का गेहूं मध्य प्रदेश की मंडियों में आकर बिकता है. भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा कहते हैं कि राशन की दुकानों का अनाज भी गरीबों तक नहीं पहुंच कर मंडियों में वापस पहुंच जा रहा है.
गरीबों के पास अनाज पहुंचने के बजाय एफसीआई के गोदामों तक पहुंच रहा है. इससे पैदावार का आंकड़ा बढ़ जाता है. शिवकुमार शर्मा का दावा है कि उन्होंने कई बार इस फर्जीवाड़े को पकड़वाया भी है और सरकार से आरटीआई के तहत पिछले साल गेहूं की पैदावार की जानकारी मांगी तो सरकार से दो अलग-अलग विरोधाभासी जवाब मिले.
सरकारी लापरवाही का दूसरा परिदृश्य देखें. फसल नष्ट होने के बाद भी किसानों के लिए सरकारी राहत की कोई व्यवस्था नहीं है. केंद्र सरकार और राज्य सरकार किसानों के लिए बीमा की तो घोषणाएं कर रही है लेकिन इसका लाभ किसानों को नहीं मिलने वाला. प्राकृतिक आपदा से फसल नष्ट होने के बाद किसानों को कम से कम इतना जरूर मिलना चाहिए जिससे उसकी लागत निकल सके. जबकि वर्तमान व्यवस्था ही गलत है. प्राकृतिक आपदा आने के तीन महीने बाद तो सरकार सर्वे करा पाती है. सरकार को कौन समझाए कि तीन महीने तक किसान नहीं रुक सकता है, उसे अगली फसल की तैयारी शुरू करनी होती है. अधिकारी दफ्तर में बैठकर ही मूल्यांकन कर रहे हैं और किसान जमीन पर आत्महत्या कर रहे हैं.
मुनादी : संतोष भारतीय
यह विडंबना हिन्दुस्तान में ही हो सकती है कि पांच हजार से पच्चीस हजार रुपये कर्ज का बोझ जिंदगी से ज्यादा बड़ा बोझ बन जाये और कोई किसान आत्महत्या कर ले. पंजाब में सवा लाख का कर्ज जिसके सिर पर है, वह आत्महत्या कर रहा है. दूसरी तरफ बैंकों के करीब 18 लाख करोड़ रुपये औद्योगिक घरानों ने ह़जम कर लिए हैं. वही बैंक जो किसी उद्योगपति के दरवाजे पर नोटिस नहीं चिपकाते, महज कुछ हजार रुपये कर्ज लेने वाले किसान के दरवाजे पर नोटिस चिपकाकर उसकी इज्जत और साख कौड़ियों के भाव बिखेर देते हैं. यह भेद किसानों में चेतना जाग्रत कर रहा है. सरकार इतनी बहरी है कि उसे किसानों की आत्महत्या से उपजी चीख नहीं सुनाई देती. संसद भी बहरी हो गई है जो किसानों का करुण क्रंदन नहीं सुन पा रही. संसद में किसानी का पेशा करने वाले 70 प्रतिशत से ज्यादा सांसद हैं. जिनका रिश्ता गांव से है वो भी किसानों की आत्महत्या की अनदेखी कर रहे हैं. कुछ सांसद तो यह कहते हैं कि किसानों ने आत्महत्या को फैशन बना लिया है. सांसदों द्वारा ऐसे बेरहम वक्तव्य दिया जाना देश के किसानों का अपमान है. क्या किसान संगठित होकर कॉरपोरेट के खिलाफ और कॉरपोरेट को बचाने वाली सरकार के खिलाफ संघर्ष का कभी ऐलान करेंगे! किसान संगठनों ने भी अलग-अलग चूल्हे बना लिए हैं. राजनीति में घुसने के लिए वे भी उन्हीं दलों का सहारा लेना चाहते हैं जो उनकी दुदर्शा के लिए जिम्मेदार हैं. किसान जब तक अपने आंसू पोंछने के लिए दूसरों के इंतजार में रहेंगे तब तक उनके आंसू खून बनकर बहते रहेंगे. जिस दिन देश का किसान आत्मविश्वास से भर कर अपने आंसू खुद पोंछने का फैसला कर लेगा उसी दिन से उसकी किस्मत और इस देश कि किस्मत बदलनी शुरू हो जायेगी. हमारा यह अंक संसद, सुप्रीम कोर्ट और मीडिया के मुंह पर तमाचा है, ऐसा तो हम नहीं कहेंगे, पर उनके अंधेपन और बहरेपन को चुनौती अवश्य है.