भारत की राजनीति में वैसे तो अजीब बातें होती रहती हैं, पर इस बार एक अद्भुत दृश्य दिखाई दे रहा है. प्रधानमंत्री पद की दावेदार दो बड़ी पार्टियां बिना किन्हीं मुद्दों के लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं. मुद्दों से मेरा मतलब बिना किन्हीं विशेष चिन्हित कार्यक्रमों के. वे जब मुद्दे की बात कहती हैं, तो भारतीय जनता पार्टी पांच टी (टैलेंट, ट्रेडिशन, टूरिज्म, ट्रेड, टेक्नोलॉजी) की बात करती है, राहुल गांधी नौजवानों को स्थान दिलाने की बात करते हैं. लेकिन कोई भी स्पष्टतय: यह नहीं बताता कि इनका मतलब क्या है. वे यह नहीं बताते कि अगर सत्ता में आएंगे, तो शुरू के एक साल में क्या-क्या करेंगे?
मुद्दों का मतलब रामचरित मानस की यह चौपाई नहीं होती कि हरि अनंत, हरि कथा अनंता. समस्याएं अनंत हैं, जब हम सत्ता में आ जाएंगे, तो उन्हें हल कर देंगे. पहले हमें सत्ता में तो भेजो. होना यह चाहिए कि महंगाई को नियंत्रित करने का क्या कार्यक्रम है? भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का क्या कार्यक्रम है? बेरोज़गारी को नियंत्रित करने का क्या कार्यक्रम है? देश में साठ साल के भीतर टूट गए शिक्षा और स्वास्थ्य के ढांचे को पुन:निर्मित करने का क्या कार्यक्रम है. क्या कोई वक्त बताया जा सकता है, एक साल, दो साल, तीन साल, पांच साल या दस साल, जबकि इनके ऊपर सरकारों का ध्यान जाएगा. दोनों पार्टियां इन सवालों के ऊपर चुप हैं.
एक और अद्भुत चीज सामने आई है कि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ओर से स़िर्फ नरेंद्र मोदी घूम रहे हैं और नीति संबंधी वक्तव्य दे रहे हैं. कांग्रेस की ओर से स़िर्फ राहुल गांधी घूम रहे हैं और नीति संबंधी वक्तव्य दे रहे हैं. हालांकि दोनों के नीति संबंधी वक्तव्यों का कोई मतलब नहीं है. दोनों मिलकर देश की जनता को सड़क पर होने वाले मदारी के तमाशे में उलझा रहे हैं. दोनों एक-दूसरे द्वारा बोली गई भाषा के ऊपर कटाक्ष कर रहे हैं. जाहिर है, जिस तरह से हम अपने दु:ख-दर्द को भूलने के लिए मनोरंजन के साधनों का सहारा लेते हैं, उसी तरह से इन चुनावों में हम ऐसी शब्दावली और ऐसे हाव-भाव में मजा लेने लगे हैं, जिनका हमारी ज़िंदगी से कोई लेना-देना नहीं है. चुनाव देश में व्याप्त समस्याओं का हल करने वाले दल को सत्ता में पहुंचाने का माध्यम है, पर जितने भी दल हैं, वे सब सत्ता में पहुंचना तो चाहते हैं, लेकिन समस्याओं को हल करने की कोई गारंटी नहीं देते.
भारतीय जनता पार्टी कथावाचक शैली में सभाओं पर सभाएं करती जा रही है और उसके मुख्य कथावाचक घटनाओं के ऊपर टिप्पणी करके अपनी पार्टी के जरिए लोगों को यह बता रहे हैं कि यही बदलाव का उनका दर्शन है. दूसरी तरफ़ कांग्रेस पार्टी स़िर्फ अपने स्टार प्रचारक राहुल गांधी के ऊपर निर्भर है और उसने उनकी छवि नाराज युवा या अंग्रेजी में कहें, तो एंग्री यंगमैन की बनाई है. वह हर जगह चिल्लाते हुए एक-दूसरे से न जुड़ने वाले शब्दों की माला लोगों के सामने परोसते हैं. यूं भी राहुल गांधी ने अपना कैंपेन बहुत देर से शुरू किया, लेकिन अभी भी वह कैंपेन नहीं कर रहे हैं. अभी भी वह कुछ सभाएं ही कर रहे हैं. उनका पहला बहु-प्रचारित इंटरव्यू अंग्रेजी न्यूज चैनल टाइम्स नाउ में देखा गया. अर्नब गोस्वामी ने वही सवाल राहुल गांधी से पूछे, जो सामान्य सवाल थे. देश को लेकर उनके नज़रिए, देश में व्याप्त अंतर्विरोध, देश में विकास और भ्रष्टाचार की जड़ों से संबंधित सवाल तो उन्होंने पूछे ही नहीं. लेकिन, उन आसान सवालों में भी राहुल गांधी इस तरह उलझ गए कि देश के लोगों को लगा कि उनके अंदर समस्याओं को देखने का कोई दृष्टिकोण है ही नहीं. नरेंद्र मोदी इस मामले में होशियार हैं. वह पत्रकारों का सामना नहीं करते. पत्रकारों के सवालों को आंख दिखाकर अनदेखा कर देते हैं और कोशिश करते हैं कि किसी भी क़ीमत पर वह देश से जुड़े सवालों और देश के सामने आने वाली समस्याओं पर अपना मुंह न खोलें, जिसमें वह अब तक सफल होते जा रहे हैं.
इन दोनों बड़े दलों के अलावा छोटे-छोटे दल भी समस्याओं को सामने रखकर अपनी कोई आधी-अधूरी योजना भी जनता के सामने नहीं रख रहे हैं. मार्क्सवादी पार्टी सालों पहले से जिस कार्यक्रम की बात करती आई है, अभी भी उसी के ऊपर चल रही है. एक नया मोर्चा बनने जा रहा है, जिसके मुख्य शिल्पी सीताराम येचुरी और नीतीश कुमार हैं. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) में सबसे होशियार नेता के तौर पर सीताराम येचुरी उभरे हैं और उन्होंने अपनी पार्टी के लिए उन दो राज्यों में जगह बनाने की कोशिश की है, जहां उन्हें जगह मिलेगी, आज तक ऐसा कोई नहीं सोचता था. जयललिता ने सीपीएम के लिए सीटें छोड़ने की घोषणा की है और उन्होंने राज्यसभा में मार्क्सवादी पार्टी के एक नेता को भी अपने समर्थन से भेज दिया है. दूसरी तरफ़ उड़ीसा में भी सीताराम येचुरी ने नवीन पटनायक को अपने साथ रहने के लिए तैयार कर लिया है. बंगाल में सीपीएम को कितनी सीटें मिलेंगी, वह दस सीटों की संख्या पार कर पाएगी भी या नहीं, इसमें संदेह है, क्योंकि इतने सालों के भीतर भी कम्युनिस्ट पार्टी के 35 साल के शासन के ख़िलाफ़ उपजे गुस्से को अभी तक कम होते हुए नहीं देखा गया है. 30 जनवरी को कोलकाता के परेड ग्राउंड में ममता बनर्जी की रैली हुई और वह रैली ऐसी थी, जैसी अब तक हिंदुस्तान के इतिहास में कभी हुई नहीं. लगभग 20 लाख लोग मैदान में थे, लगभग पांच लाख लोग मैदान के बाहर और तकरीबन पांच लाख लोग ही कोलकाता की सड़कों पर थे. पूरे पश्चिम बंगाल से लोग आए थे, गांव-गांव से लोग आए थे. ममता बनर्जी के पास काडर नहीं है. काडर वामपंथी दलों के पास है. लोग अपने आप आए. शांति से, अनुशासन से आए. रैली में शिरकत की और वापस चले गए. पंचायत चुनाव के बाद यह दूसरा संकेत है कि बंगाल अभी भी ममता बनर्जी के साथ चट्टान की तरह खड़ा है. तब जब सीपीएम को बंगाल में सीटें नहीं मिल रहीं, तो फिर दूसरी जगह जहां सीटें मिल सकती हैं, वह केरल है. इसका मतलब संपूर्ण वामपंथी पार्टियां 20-22 सीटों के आसपास सिमटती दिखाई दे रही हैं. अगर समूचे देश में कम्युनिस्ट पार्टियों को 20 या 22 सीटें मिलने की संभावना है, तब कैसे तमिलनाडु और उड़ीसा में उनके साथ दोनों मुख्यमंत्रियों ने समझौता किया, यह रहस्य है. रहस्य इसलिए भी है, क्योंकि जयललिता और सीपीएम को जोड़ने वाला दूर-दूर तक कोई धुंधला सूत्र भी नज़र नहीं आता. पर बिना किसी जोड़ने वाले सूत्र या धागे के अस्तित्व के दोनों में समझौता हो गया और ठीक यही बात नवीन पटनायक के साथ भी है.
एक चौदह पार्टियों का गठबंधन बना है, जिसमें कोई किसी को कहीं पर मदद नहीं कर पाएगा. एक वोट कोई किसी को दूसरे राज्य में नहीं दिलवा पाएगा. नीतीश कुमार, एचडी देवेगौड़ा, नवीन पटनायक, जयललिता, सीताराम येचुरी एवं बाबूलाल मरांडी, ये प्रमुख नाम हैं
अपने-अपने यहां से. लेकिन इन्हें अगर चुनाव जीतना होगा, तो अकेले जीतना होगा. हां, इनकी सभाओं में ये सारे नेता होंगे, लेकिन इनके पास न तो कोई भी साझा घोषणा-पत्र है और न साझा कार्यक्रम. उसी तरह शरद पवार भी इस गठजोड़ में शामिल हैं, लेकिन शरद पवार की पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को जोड़ने का सूत्र क्या है, यह भी समझ में नहीं आता. दरअसल, यह भी एक वैसा ही तमाशा रचने की कोशिश है, जैसा तमाशा भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस इस देश के लोगों के सामने मनोरंजन कार्यक्रम के रूप में रख रही हैं. एक और ताकत दिल्ली की गद्दी के लिए अपने को तैयार कर रही है.
ममता बनर्जी देश की पहली ऐसी नेता हैं, जो पहले दिन से ही आर्थिक कार्यक्रम देश के सामने रख रही हैं और उन्होंने इस देश के सबसे बड़े नैतिक आधार वाले व्यक्ति अन्ना हजारे के आर्थिक कार्यक्रम को न केवल माना, बल्कि उसे स्वीकार करने वाला जवाबी पत्र भी अन्ना हजारे को भेज दिया है. अन्ना हजारे ने 17 सूत्रीय कार्यक्रम मौजूदा आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ बनाया है. अभी मैंने ममता बनर्जी के अलावा जितने भी राजनीतिक दलों का जिक्र किया, ये सब मौजूदा आर्थिक व्यवस्था के पोषक हैं और एक ही अर्थव्यवस्था यानी बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को चलाने में इनकी रुचि है. जिस अर्थव्यवस्था ने इस देश में महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी बढ़ाई, जिसने किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया, जिसने अपनी अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी और जिसने संभावनाओं के रास्ते बंद कर दिए, उसी अर्थव्यवस्था को ये सारे दल लागू करना चाहते हैं. और ये देश के लोगों को यह बता रहे हैं कि इनमें से अगर कोई सत्ता में आया, तो देश में न तो महंगाई ख़त्म होगी, न भ्रष्टाचार ख़त्म होगा और न बेरोज़गारी ख़त्म होगी. गांव की लूट वैसे ही जारी रहेगी. इस स्थिति में ममता बनर्जी ने अन्ना हजारे के कार्यक्रम को स्वीकार करके कम से कम यह संकेत दिया है कि वह इस देश की बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को हटाकर गांव आधारित अर्थव्यवस्था लागू करेंगी. वह तकनीकी का उपयोग विकास के लिए करेंगी, शोषण के लिए नहीं. उनके इस कार्यक्रम में जहां किसान हैं, नौजवान हैं, छोटे उद्योग हैं, गांव आधारित उद्योग हैं, एक नई अर्थव्यवस्था की संभावना है, वहीं पर शहरों के भीतर भी पानी-बिजली जैसी चीजें सर्वोच्च प्राथमिकता पर हैं. ममता बनर्जी के आर्थिक कार्यक्रम में हर गांव को बिजली देने, हर गांव में बिजलीघर बनाने का वादा किया गया है. अपने शासन के अंतिम दिनों में मनमोहन सिंह ने गैस को लेकर अमेरिका के साथ ताबड़तोड़ समझौते किए. दरअसल, हमारे देश के सारे संसाधन कैसे अमेरिका के उपयोग में आएं और हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था को किस तरह से सहारा दें, इसकी योजना न केवल मौजूदा सरकार ने बनाई है और कांग्रेस पार्टी उसकी पोषक है, बल्कि नरेंद्र मोदी तो यहां तक कह रहे हैं कि यह योजना ठीक से नहीं बन रही है. हम और ज़्यादा अच्छे तरीके से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पोषण देने वाली योजना बनाएंगे. और जिन लोगों के ऊपर इससे लड़ने का ज़िम्मा था, जैसे जयललिता, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक और वामदल, ये लोग एक अनहोली अलाएंस या अलाएंस ऑफ कनविनिएंश या सुविधा के लिए गठजोड़ जैसे सवालों पर उलझे हुए हैं.
देश के सामने चुनौती है और ममता बनर्जी के सामने सारे लोग एक स्वर से खड़े हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आख़िर मुद्दों के आधार पर चुनाव लड़ने की बात ममता बनर्जी क्यों कर रही हैं? उन्हें भी उन्हीं सवालों को सामने रखना चाहिए, जिन सवालों को ये लोग तमाशे के रूप में देश के सामने रख रहे हैं. इसलिए आने वाला लोकसभा चुनाव ममता बनर्जी के अलावा सारे दलों के लिए तमाशा दिखाने का एक मौक़ा है. एक हल्की संभावना ममता बनर्जी ने दिखाई है कि वह देश के लोगों के सामने मुद्दे रखकर तस्वीर साफ़ करने की कोशिश कर रही हैं. अब ज़िम्मा लोगों पर भी है कि वे इस चीज को समझ पाते हैं या फिर साठ साल से चले आ रहे तमाशे को चलने देते हैं.
लोकतंत्र को तमाशा न बनने दें
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