54ac4a8c576f7साल 1971 का भूत बांग्लादेश का पीछा नहीं छोड़ रहा है. यह भूत किसी न किसी शक्ल में अपने ख़ूनी पंजे से बांग्लादेश को लहुलुहान कर रहा है. बांग्लादेश उन देशों में शामिल है, जहां समस्याएं अधिक हैं और संसाधन कम. बांग्लादेश का नाम दुनिया के ग़रीब देशों में शुमार होता है. बांग्लादेश की स्थापना के समय जो सपना देखा गया था, वह आज तक पूरा नहीं हो सका. न तो देश में शांति स्थापित हो सकी और न ही ग़रीबी दूर करने के लिए कोई ठोस पहल की गई. हालांकि निजि स्तर पर नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने बहुत काम किए, लेकिन सरकार उसका लाभ भी नहीं उठा सकी. आज़ादी के बाद से अब तक यहां की सरकारें अपने हित के लिए क़ानूनों का प्रयोग करती आ रही हैं और जनता का शोषण होता रहा है, लेकिन वर्ष 1996 के बाद से देश के जो हालात हैं वे बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं.

1996 में शेख हसीना ने बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के समर्थन से चुनाव लड़ा और सरकार बनाई. इस दौरान बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ. जनता में नाराज़गी बढ़ती गई, इसका नतीजा यह हुआ कि 2001 के चुनावों में 40 प्रतिशत वोट प्राप्त करने के बावजूद उनकी पार्टी सरकार नहीं बना सकी. पूर्व सहयोगी जमात-ए-इस्लामी ने हसीना की पार्टी का साथ छोड़कर बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी(बीपीएन) के साथ हो गई और उनकी सरकार बनाने में मदद की. इसके बाद ख़ालिदा जिया ने देश की कमान संभाली. बस यहीं से जमाते इस्लामी और शेख़ हसीना के बीच दुश्मनी की बुनियाद पड़ी. इस दुश्मनी का बदला साल 2009 के आम चुनावों के बाद लिया गया. इस चुनाव में हसीना एक बार फिर सफल हुईं. सरकार बनाते ही उन्होंने जमात-ए-इस्लामी एवं बीएनपी से राजनीतिक प्रतिशोध लेने के लिए इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल स्थापित किया. उनके इस फैसले का पूरी दुनिया में विरोध किया गया, लेकिन सभी विरोधों को नज़र अंदाज़ करके जमात-ए-इस्लामी और बीएनपी के कई महत्वपूर्ण नेताओं पर मुक़दमे चलाये गये. ये वही नेता थे, जिन्होंने बांग्लादेश की स्थापना के समय बांग्लादेश को अलग मुल्क बनाने का विरोध किया था. इसी वजह से पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन 1975 में जमात-ए-इस्लामी पर लगे सभी प्रतिबंध हटा दिए गये. इसके बाद इस पार्टी ने चुनावों में हिस्सा लिया और कई बार सरकार बनाने वाली पार्टी को समर्थन दिया, लेकिन इन सभी बिंदुओं को नज़रअंदाज़ करके 2009 में इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्युनल स्थापित किया गया और बांग्लादेश के कई नेताओं को अपराधी घोषित किया गया. इनमें अब्दुल क़ादिर मुल्ला और मुतीउर रहमान जैसे कद्दावर नेता भी शामिल थे. इन नेताओं को फांसी की सज़ा देने के बाद देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और नतीजे में सैंकड़ों लोग मारे गए, लेकिन सरकार ने इन विरोध प्रदर्शनों और हिंसा पर कोई ध्यान नहीं दिया. मुक़दमों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. इसके बाद 5 जनवरी, 2014 को देश में एक बार फिर आम चुनाव हुए. इन चुनावों का विपक्षी पार्टियों ने बहिष्कार किया. विपक्ष की मांग थी कि सत्ताधारी शेख हसीना संविधान के अनुसार सरकार से अलग हो जाएं और अंतरिम सरकार की निगरानी में स्वतंत्र चुनाव संपन्न कराये जाएं, लेकिन हसीना सत्ता छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुईं, नतीजतन विपक्षी दलों ने आम चुनाव में हिस्सा नहीं लिया. विपक्ष के बहिष्कार का फ़ायदा सत्तापक्ष को हुआ और हसीना वाजिद की पार्टी को एक बार फिर बहुमत हासिल करने में सफल हुई और अपनी सरकार बनाई. सरकार के गठन के विरोध में विपक्ष ने बहुत आवाज़ उठाई लेकिन उनकी आवाज़ दब कर रह गई. इस बार हसीना की प्रताड़ना का शिकार जमात-ए-इस्लामी ही नहीं, अन्य विपक्षी पार्टियां भी थीं.
चुनावों के बहिष्कार का आहवान करने के कारण मतदान से एक सप्ताह पहले ही विपक्ष नेता ख़ालिदा जिया को 27 दिसंबर 2013 को उनके निवास में नज़रबंद कर दिया गया था, जब वह विपक्षी दलों की सभाओं की अध्यक्षता कर रही थीं. इनकी नज़रबंदी के बाद सरकार विरोध में प्रदर्शन तेज़ हो गये और देश भर में हुई झड़पों और दंगों में तकरीबन 100 से अधिक लोगों की मौत हुई थी. हजारों की संख्या में लोग घायल हुए थे. विपक्षी दलों की ओर से चुनावों का बहिष्कार शेख हसीना वाजिद और उनकी पार्टी के लिए तथाकथित चुनावों में कारगर साबित हुआ और उन्हें खुला मैदान मिल गया. इस वजह से उन्होंने अपनी मर्जी से चुनाव कराकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और अपनी सरकार बना ली. ख़ाालिदा जिया और उनके सहयोगी दल लगातार इन चुनावों को ख़ारिज करने और दोबारा पारदर्शी तरीके से चुनाव कराने की मांग करती रहीं, लेकिन सरकार पर उनकी मांग का कोई असर नहीं हुआ. अब वह अपनी मांग के पक्ष में जनसमर्थन जुटाकर सरकार पर दबाव बनाना चाहती थीं. इसके लिए वह ढाका से लॉन्ग मार्च करना चाहती थीं. लेकिन इस बार भी शेख हसीना ने ताक़त का प्रयोग करते हुए ख़ालिदा को उनके ऑफिस में नज़रबंद कर उनकी आवाज़ को दबाने की कोशिश की. वहां के अखबारों में छपी खबरों के अनुसार वह लॉन्ग मार्च की पूरी तैयारी कर चुकी थीं. ठीक एक दिन पहले वह अपने ऑफिस में थीं और उन्हें वहां से अपने किसी संबंधी का हालचाल जानने जाना था. जैसे ही वह ऑफिस से बाहर निकलीं आफिस के परिसर में उपस्थित सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें यह कहकर बाहर जाने से रोक दिया कि उनके बाहर जाने से शांति भंग होने का ख़तरा है. यही नहीं, किसी और को भी उनसे मिलने नहीं दिया जा रहा था, तब उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें नज़रबंद कर दिया गया है. हालांकि सरकार नज़रबंदी की बात से लगातार इंकार करती रही, लेकिन बांग्लादेश में इस घटना के बाद जो प्रदर्शन हुए. इस विरोध-प्रदर्शन में कई लोगों की जानें गईं, इससे अंदाज़ा हो जाता है कि ख़ालिदा को सुरक्षा देने के नाम पर उनके ऑफिस में नज़रबंद कर दिया गया. इस तरह शेख़ हसीना वाजिद सरकार ने बांग्लादेश में विपक्ष के खिलाफ़ कार्रवाई करके लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश कर रही हैं. वह लोकतंत्र जिसे बांग्लादेश की स्थापना के समय उनके पिता एवं बंगपिता शेख़ मुजीबुर्र रहमान ने अपनाया था. शेख़ मुजीबुर्र रहमान के बाद देश में फौजी शासन कई बार लगा, लेकिन लोकतंत्र की वापसी होती रही और यह सिलसिला बिगड़ कर भी किसी न किसी तरह बरक़रार है.

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