आज आपकी ओर से पूरी राजनैतिक व्यवस्था से बात करेंगे. इसमें सभी राजनैतिक दल, क्या सरकार और क्या विपक्ष, ऐसा हो गया है कि शर्म से कह सकते हैं कि हमाम में सब नंगे हैं. सरकार को एक पैराग्राफ पढ़ने के लिए लिख देते हैं.

विकास के नाम पर उठाया गया हर वो क़दम जो लाखों लोगों को उनकी रोज़ी और ज़मीन से वंचित कर देता है, सशस्त्र उग्रवाद (नक्सलवाद) और राजनैतिक अतिवाद को जन्म देता है. यह देश की संप्रभुता और अखंडता के लिए मुंह बाए खड़े तीन बड़े गंभीरतम ख़तरों में से एक है. ऐसे लोगों के लिए विकास एक भयानक और घृणित शब्द है. ये शब्द किसी सामाजिक कार्यकर्ता या समाज बदलने के काम में लगे किसी व्यक्ति द्वारा नहीं कहे गए हैं, जिन्हें कहने पर गृहमंत्री चिदंबरम से प्रेरित पुलिस जेल में डाल दे. ये शब्द देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कहे हैं. ये शब्द प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, राजनैतिक दलों के अध्यक्ष और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के कान में शायद नहीं पहुंचे हैं और न पहुंचना एक ख़तरनाक संकेत है.

अब आपको पूरी बात बताते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह सख्त टिप्पणी नक्सलवाद की आग में झुलस रहे पांच राज्यों में एक राज्य उड़ीसा में भूमि अधिग्रहण के एक मामले में की है. यह पहला मौक़ा है, जब सबसे बड़ी अदालत ने सरकारों का ध्यान उन लोगों की तऱफ खींचा है, जिन्हें विकास के नाम पर उजाड़ दिया जाता है. नक्सल प्रभावित सुंदरगढ़ में जंगली भूमि का यह अधिग्रहण 20 वर्ष पूर्व कोयला खनन के लिए हुआ था, जिसमें आदिवासियों के दस से ज़्यादा गांवों के उनके सदियों से चले आ रहे घरों को ध्वस्त कर दिया गया था.
जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने केंद्र सरकार से आदिवासियों को उचित मुआवज़ा दिलाने का निर्देश देते हुए हाईकोर्ट के एक जज को पूरे मामले का आयुक्त नियुक्त किया है. कोर्ट ने कहा है कि विकास का मतलब शहरी ढांचे, रोड, हाइवे, संचार, तकनीक, खनिजों का व्यवसायिक दोहन, ऊर्जा उत्पादन, स्टील उत्पादन और अन्य धातुओं का निर्माण है. लेकिन विकास नाम का यह शब्द लाखों लोगों के लिए भयानक और घृणित बन गया है. आख़िर क्या वजह है कि विकास के लिए राज्य द्वारा उठाए गए हर क़दम का वह व्यक्ति विरोध करता है, जिसके लिए क़दम उठाए जा रहे हैं. स्कूल, अस्पताल, रोड तथा रोज़गार सृजन के लिए आश्वासन के साथ भूमि अधिग्रहण किया जाता है, लेकिन वे हमेशा काग़ज़ों पर ही रहते हैं.
देश के सबसे बड़े कोर्ट ने आगे कहा है, भारत का जीडीपी और एचडीआई, जो कि जीवन, वयस्क साक्षरता तथा रहन-सहन के  मानकों से जुड़ा है, एक दूसरे के विपरीत तस्वीरें क्यों पेश करते हैं? भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में बारहवें नंबर पर है, वहीं इसकी प्रगति दूसरे नंबर पर है. लेकिन 2009 की एचडीआई रिपोर्ट के अनुसार, 182 देशों में भारत का नंबर 134वां है. यानी मानव विकास में हम पीछे हैं.
ये शब्द सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस आफताब आलम के हैं, जिनकी समझ कम से कम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जी व आडवाणी जी जैसे नेताओं जितनी तो है ही. ये शब्द भारत के राजनैतिक तंत्र को चलाने या चलाने का सपना देखने वालों के लिए स्पष्ट चेतावनी हैं. यह चेतावनी तब ख़तरनाक हो जाती है, जब हम सेना के रुख़ को इसके साथ मिलाते हैं. सेना ने नक्सलवादियों के ख़िला़फ उतरने से मना करते हुए कहा है कि अपने देशवासियों पर वह गोली नहीं चलाएगी. उसने यह भी कहा है कि नक्सलवाद की मुख्य जड़ विकास का न होना है तथा विकास के नाम पर सिविल तंत्र द्वारा खुली लूट है. सुप्रीम कोर्ट और सेना की राय एक हो जाती है और हमारे राजनेताओं, विशेषकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के कानों पर जूं नहीं रेंगती.
एक और घटना के बारे में आपको बताते हैं, जो इसी 17 जुलाई को झारखंड के जमशेदपुर के घाटशिला नामक स्थान पर घटी. यहां सड़क बनाने का ठेका दिया गया था. इलाक़े में न खेती के साधन हैं और न रोज़ी-रोटी कमाने के. गांव वालों ने सड़क बनाने वाले ठेकेदार से प्रार्थना की कि उन्हें काम दे, उनके पास कोई साधन नहीं है जीने का, वे कम से कम मज़दूरी में सड़क बनाएंगे. ठेकेदार ने उनकी बात मानने की जगह वहां मशीनें मंगवा लीं. मशीनों को देखकर गांव वाले पहले तो निराश हो गए, लेकिन बाद में उनमें गुस्सा पैदा हो गया. उन्होंने ठेकेदार की मशीनें, जो उसने सड़क बनाने के लिए मंगवाई थीं, जला दीं तथा कहा कि सड़क तभी बनेगी, जब उन्हें काम मिलेगा. ज़िले के अधिकारियों ने इसे नक्सलवादियों का कारनामा क़रार दिया तथा कहा कि ये लोग विकास के ख़िला़फ हैं.
ऐसे ही अधिकारी नक्सलवाद को पनपाते हैं. गांव वालों की सामान्य सी काम मांगने की मांग को उन्होंने नक्सलवाद से जोड़ दिया. दिल्ली के एक बड़े फोटोग्राफर जगदीश यादव पास के गांव में मौजूद थे, जहां वह आदिवासी ग्रामीण बच्चों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने गए थे. ऐसी घटनाएं हज़ारों-लाखों की संख्या में घट रही हैं, जिन्हें अधिकारी और सरकार नक्सलवाद के फ्रेम में देख रही है तथा मीडिया के पास उन्हें रिपोर्ट करने का न समय है और न इच्छा. इन दोनों के बीच में राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और ठेकेदारों का मिलाजुला लूट संगठन है, जो उग्र विरोध का कारण बन रहा है.
पूरी राजनीति के सामने, प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी सहित सभी राजनैतिक दलों के सामने अभी सोचने का समय है कि कैसे स्थिति की विकरालता को कम करें और सार्थक हस्तक्षेप कर विकास की संतुलित और आम आदमी से जुड़ी तकनीक को लागू करें. इन्हें डरना चाहिए, क्योंकि इनकी उदासीनता की वजह से ही आज दो सौ साठ ज़िले नक्सलवाद के प्रभाव में पूरी तरह से आ गए हैं. इन्हें डरना चाहिए कि सेना इस्तेमाल करने की इनकी मूर्खतापूर्ण मांग को सेना ने ठुकरा दिया है. इन्हें डरना चाहिए कि कहीं इतिहास इन्हें लोकतंत्र के खलनायक के रूप में चिन्हित न करना शुरू कर दे.
आम आदमी चाहता है कि स्थिति बदले, लेकिन राजनीति स्थिति बिगाड़ने में जुटी है. शौकिया अपराधी भी नक्सलवाद की रोमानी फिलासफी से जुड़ रहे हैं. दूसरी ओर नक्सलवादी सरकार से लड़ने के लिए यूनीफाइड कमांड बना अपने को तैयार कर चुके हैं. उनके पास इस साल का वार बजट 1400 करोड़ का है, जिसमें सबसे ज़्यादा हथियार ख़रीदने पर ख़र्च होना है. हथियार उन्हें स्वीडन से मुहैया कराए जा रहे हैं, जिसका रास्ता मलेशिया से म्यांमार और फिर बंगाल आता है. पैसा उन्हें विदेश की जगह देश से मिलता है, जिसमें न केवल बड़े उद्योगपति शामिल है, बल्कि सरकारी संगठन भी शामिल हैं. इनकी सूची गृह मंत्रालय के पास 2007 से है, लेकिन गृह मंत्रालय कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है. हो सकता है, गृह मंत्रालय में जो लोग हैं, वे सोच रहे होंगे कि समस्या और बढ़े, यूनीफाइड कमांड बनें और बजट में पैसा बढ़े तो खाने-कमाने का नया रास्ता बने.
भारत के संविधान की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री, गृहमंत्री सहित सभी राजनेताओं की नींद टूटना आवश्यक है. अगर नींद न टूटी तो ख़तरा इतना बढ़ जाएगा कि लोकतंत्र के सोने का ख़तरा पैदा हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट और सेना की भाषा का अर्थ समझो देश चलाने वालो, वरना लोकतंत्र के खलनायक की सूची का प्रारंभ आपसे ही होगा.

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