देश में 16वीं लोकसभा का चुनाव अपने पड़ाव की ओर आगे बढ़ रहा है. एक तरफ भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के रथ पर सवार चुनावों में विजय की नई गाथा लिखने को बेताब है, तो दूसरी ओर कांग्रेस पिछले 10 वर्षों के शासन काल का हिसाब-किताब के जरिए अच्छे नतीजों की उम्मीद कर रही है. चुनावों की इस गुणा-गणित को हम दक्षिण भारत के नजरिए से देखें, तो दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस और भाजपा के लिए दक्षिण भारत में पाने के लिए कम और खोने के लिए अधिक है. हालांकि, दोनों दल वहां की क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन के जरिए चुनावी रणनीति में जीत की किरण देख रहे हैं. आइए जानते हैं कि दक्षिण भारत की राजनीति में कौन-से दल और नेता मुख्य भूमिका में हैं.
दक्षिण भारत की राजनीति में आमतौर पर राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की अपेक्षा क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा अधिक होता है. हालांकि, भाजपा और कांग्रेस दोनों ने गठबंधन के जरिए कुछ सफलता हासिल की है. उत्तर भारत में जहां क्षेत्रों का काफी महत्व होता है, वहीं दक्षिण भारत में जाति, भाषा और जातीयता की भी काफी अहमियत है.
आंध्रप्रदेश
आंध्रप्रदेश में लोकसभा की कुल 42 सीटें हैं. राजनीतिक दलों की बात करें, तो छोटी-बड़ी कुल 30 से अधिक पार्टियां हैं. हर पार्टी का अपने क्षेत्र विशेष में एक खास दबदबा है. हालांकि, इन सभी में पांच या छह पार्टियां ही ऐसी हैं, जो प्रदेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. इन पार्टियों में कांग्रेस, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन, तेलुगूदेशम पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, बहुजन कम्युनिस्ट पार्टी, हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी, जय तेलंगना पार्टी, लोकसत्ता पार्टी, नव तेलंगना पार्टी, मन्ना पार्टी (इंडिया), पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (हैदराबाद), तेलंगना कम्युनिस्ट पार्टी, तेलंगाना जनता पार्टी, लेबर पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस पार्टी प्रमुख हैं.
साल 1953 में आंध्रप्रदेश के गठन के बाद यहां लगभग 30 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की सरकार रही. कांग्रेस पार्टी के गढ़ में पहली सेंध 1980 में लगी. दरअसल, तेलुगू फिल्मों के महानायक नंदमुरली तारक रामाराव (एनटीआर) ने आंध्रप्रदेश में क्षेत्रीय पार्टी तेलुगूदेशम पार्टी का गठन किया और 1983 का विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीता. वे आंध्रप्रदेश में पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने. आज आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की राजनीति में तेलुगूदेशम की अहम भूमिका है. आंध्रप्रदेश के चुनावी मैदान में आज कांग्रेस के अलावा वाइएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति, भाजपा, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन जैसे दल भी मैदान में हैं. हालांकि, जानकारों की मानें तो हालिया घटनाक्रम के कारण राज्य में होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इस बार क्षेत्रीय दल को ही सफलता मिलेगी. आंध्रप्रदेश के विभाजन का विरोध करने वाले वाइएसआर कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में बड़ी सपलता की उम्मीद की जा रही है, वहीं तेलंगाना क्षेत्र में टीआरएस को सफलता की बात की जा रही है. आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री एन किरण रेड्डी ने राज्य के एकीकरण के मुद्दे पर पार्टी से इस्तीफा देकर अपनी नई पार्टी समैक्यआंध्र पार्टी बनाई. हालांकि, उन्होंने चुनाव न लड़ने का फैसला किया है. उधर, पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी ने भी नेतृत्व विवाद के बाद कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई वाईएसआर-कांग्रेस. आंध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती माने जा रहे हैं. वहीं, 10 वर्षों से राज्य की सत्ता से बाहर रहने वाले चंद्रबाबू नायडू के हाथों में तेलुगूदेशम पार्टी की कमान है और उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर राज्य में गठबंधन किया है. तेलंगाना राष्ट्र समिति की बात करें, तो साल 2001 में के चंद्रशेखर राव ने इसका गठन किया था और वे इसके अध्यक्ष हैं. तेलंगाना क्षेत्र में उनका खासा प्रभाव माना जा रहा है. वहीं, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन की राजनीति को भी यहां खारिज नहीं किया जा सकता है. असदुद्दीन ओवैशी इसके चेयरपर्सन हैं और लोकसभा में भी वे ही अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं. हैदराबाद क्षेत्र में ओवैशी का प्रभाव अच्छा खासा माना जाता है. इसकी स्थापना 1927 में हुई थी.
कर्नाटक
कर्नाटक में लोकसभा की कुल 28 सीटें हैं. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का शुमार प्रदेश की प्रमुख पार्टियों में शुमार होता है. कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में जी परमेश्वर, नंदन निलेकणि, वीरप्पा मोइली, केएच मुनियप्पा, धरम सिंह इन चुनावों में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी है और प्रह्लाद जोशी, बीएस येदियुरप्पा, श्रीरामुलु, अनंत कुमार, सदानंद गौड़ा की भूमिका इन चुनावों में महत्वपूर्ण मानी जा रही है. जनता दल (सेक्युलर) तीसरी प्रमुख पार्टी है और प्रदेश में इसकी अगुवाई पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा कर रहे हैं. जेडी (एस) 1999 में जनता दल से टूटकर बनी थी.
कर्नाटक की राजनीति में जनता दल ने जितनी सफलता हासिल की, उतनी उसे केंद्रीय राजनीति में नहीं मिली. भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की भी अच्छी-खासी पैठ यहां रही है. फिलहाल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, तो इससे पहले भाजपा सत्ता में थी. कर्नाटक के मुख्य राजनीक दलों की बात करें, तो भाजपा और कांग्रेस के बाद नाम आता है, जनता दल (एस) का. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और उनके बेटे एचडी कुमारास्वामी इस पार्टी के मुख्य चेहरे हैं. 2013 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा से अलग होकर पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपनी एक अलग पार्टी बनाई थी, कर्नाटक जनता पक्ष. हालांकि, लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर लिया है. इसके अलावा कर्नाटक मक्काल पक्ष और सर्वोदय कर्नाटक पक्ष जैसी पार्टियां भी राज्य में सक्रिय हैं, लेकिन लोकसभा चुनावों में इन्हें खास फायदा नहीं होने वाला है. जानकारों का मानना है कि यहां दलित, आदिवासी, ईसाई और पिछड़े वर्ग की संख्या 45 प्रतिशत से भी अधिक है और राजनीतिक दलों की निगाह इन वोटों पर अधिक रहती है. हालांकि, यहां की राजनीति में लिंगायत और वोक्कालिग्स दो जातीय समूहों का दबदबा अधिक है.
तमिलनाडु
39 लोकसभा सीटों वाले तमिलनाडु में दो प्रमुख क्षेत्रीय दलों का ही कब्जा रहा है. ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) और द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके). भारत में क्षेत्रीय दलों का उद्भव एक तरह से 1967 में उस वक्त हुआ, जब तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के संस्थापक सीएन अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने. हालांकि, 1972 में एमजी रामचंद्रन की अगुवाई में द्रमुक से टूटकर एक और नई पार्टी बनी ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक). तमिलनाडु के दोनों क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. द्रमुक के नेता एम करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जे जयललिता का ही वर्चस्व राज्य की राजनीति में देखने को मिलता है. तमिलनाडु की राजनीति मेंकरुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन और अलागिरि की भी खास भूमिका है. लेकिन, पिछले दिनों करुणानिधि ने अलागिरि को पार्टी से निकाल दिया और इसका असर लोकसबा चुनावों में देखने को मिल सकता है. इसके अलावा विदुथलई चिरुथैगल काची पार्टी और उनके नेता टी थिरुमवल्लवन, एमडीएमके के वाइको, कांग्रेस के केवी थांगकाबालु, पीएमके के अंबुमणि रामदॉस, सीपीआई (एम) के जी रामाकृष्णन और सीपीआई के था पंडियन की भूमिका राज्य की राजनीति में अहम मानी जाती है.
केरल
केरल में लोकसभा की कुल 20 सीटें हैं और यहां की राजनीति में दो प्रमुख गठबंधन दलों का दबदबा रहता है. एक, कांग्रेस की अगुवाई वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) और दूसरा, सीपीआई (एम) की अगुवाई वाला लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ). कांग्रेसी नेता के करुणाकरण ने 1970 में यूडीएफ गठबंधन बनाया था. फिलहाल कांग्रेस पार्टी की कमान ओमान चांडी की हाथों में है. यहां के मतदाताओं में मुसलमानों और ईसाइयों को यूडीएफ का वोटबैंक माना जाता है, तो पिछड़ा समुदाय आमतौर पर एलडीएफ के कोर वोटर माने जाते हैं. पश्चिम बंगाल के बाद केरल वामपंथियों का दूसरा बड़ा गढ़ माना जाता है. केरल में कांग्रेस की अगुवाई वीएम सुधीरन कर रहे हैं. यूडीएफ गठबंधन में शामिल दलों और संगठनों में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस, सोशलिस्ट जनता (डेमोक्रेटिक) पार्टी, केरल कांग्रेस (बी), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (बेबी जॉन), केरल कांग्रेस (जैकब), सीएमपी हैं. वहीं, एलडीएफ गठबंधन की अगुवाई वामपंथी नेता वीएस अच्युतानंदन कर रहे हैं.
दक्षिण भारतीय फिल्म और राजनीति
राजनीति और फिल्म का गहरा नाता है. अगर उत्तर भारत में देखें, तो सुनील दत्त से लेकर, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, गोविंदा, जया बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, हेमा मालिनी, जयाप्रदा जैसे अभिनेताओं ने राजनीति में कदम रखा. लेकिन, इनमें से अधिकांश अभिनेता फिल्मों की तरह राजनीति में उतने सुपरहिट नहीं है, जितने दक्षिण भारतीय अभिनेता. दक्षिण भारत इस लिहाज से भी अलग है कि यहां कई अभिनेताओं ने अपनी अलग पार्टी की शुरुआत की और वे दक्षिण की सत्ताधारी या विपक्षी पार्टी के रूप में स्थापित हैं. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण एमजी रामचंद्रन और एनटी रामाराव हैं. तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन फिल्मों से जब राजनीति में आए, तो वे पहले डीएमके के सदस्य बने और 1972 में उन्होंने पार्टी छोड़ अपनी अलग पार्टी अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एडीएमके) बनाई. आंध्रप्रदेश में एनटी रामाराव ने 1982 में फिल्मों से राजनीति में कदम रखा और तेलुगूदेशम पार्टी बनाई. पार्टी बनाने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने भारी बहुमत हासिल किया और वे 1983 से 1995 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि शुरुआती दिनों में पूरे भारत में कांग्रेस और जनता पार्टी ने राज्यों में शासन किया. पूरे भारत को देखें, तो दक्षिण भारतीयों को द्रविड़ और उत्तर भारतीयों को आर्य माना जाता है. शुरुआत में दक्षिण भारतीय पार्टियों का उदय इसी भेदभाव, भाषा और पिछड़ों के आरक्षण के मुद्दे पर हुआ. तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक के गठन का आधार भी यही था. अरिगनार अन्ना के नेतृत्व में यह बना और कई लोगों ने इसका समर्थन किया. उन्हीं समर्थकों में एक नाम था, तमिल फिल्मों के स्क्रीनप्ले राइटर एम करुणानिधि. दरअसल, वे एक पत्रकार व राजनेता थे, जिन्होंने फिल्मों में भी काम करना शुरू किया था. एमजी रामचंद्र (एमजीआर) और करुणानिधि बहुत अच्छे मित्र थे. करुणानिधि की वजह से ही उन्होंने फिल्मों से राजनीति में कदम रखा. उन दिनों एमजीआर फिल्मों के पर्दे पर जब आ जाते, तो लोगों में गजब की हलचल हुआ करती थी. राजनीति में भी उन्होंने अपनी इस बेइंतहा लोकप्रियता का बखूबी इस्तेमाल किया. हालांकि, बाद में डीएमके और करुणानिधि से असहमति के बाद उन्होंने अपनी नई पार्टी अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एडीएमके) बनाई. राजनीति पर आधारित फिल्मों से एमजीआर को राजनीति में नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का सुनहरा अवसर मिला. तमिलनाडु में जो प्रभाव एमजीआर का था, वही असर आंध्रप्रदेश में एनटीआर का था. दक्षिण भारतीय फिल्मों के दो दिग्गजों ने फिल्मों के साथ-साथ राजनीति में भी वो मुकाम हासिल किया, जो आज किसी भी अभिनेता के लिए आसान नहीं है. विजयकांत और चिरंजीवी ने भी अपनी पार्टी बनाई. चिरंजीवी ने प्रजा राज्यम पार्टी बनाई और बाद में कांग्रेस में उसका विलय कर दिया. विजयकांत ने तमिलनाडु में डीएमडीके (देसीय मुरपोक्कु द्रविड़ कषगम) बनाई और उसने इन चुनावों में एनडीए के साथ गठबंधन किया है. तमिलनाडु में ही जे जयललिता फिल्मों में अभिनेत्री रही हैं और रुपहले पर्दे में एमजीआर और उनकी जोड़ी काफी पसंद की जाती थी. दरअसल, दक्षिण भारत के लोगों में फिल्मों और अपने अभिनेताओं के प्रति जुनून होता है. दक्षिण भारतीय अभिनेताओं के प्रशंसकों और समर्थकों की तादाद काफी अधिक होती है, इतिहास में उनका गहरा विश्वास होता है और यही कारण है कि वे राजनीति में आने से हिचकिचाते नहीं हैं.
लोकसभा चुनावों में दक्षिण भारत की राजनीति
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