4अरब दुनिया में आग लगी हुई है और वहां के हुक्मरान भारत में पनाह तलाश करना चाहते हैं. चुनावी मौसम के शुरू होने से पहले ही ओमान, क़तर, यूएई एवं सऊदी अरब के साथ-साथ ईरान के कई सरकारी और ग़ैर-सरकारी नुमाइंदे लगातार भारत का दौरा करते हैं. उनके साथ वहां के कुछ धार्मिक गुरु भी यहां आते हैं और दिल्ली से लेकर असम तक मुसलमानों की बड़ी-बड़ी धार्मिक सभाओं में भाग लेते हैं. इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का क़द तो बढ़ता है, लेकिन अंदेशा इस बात का है कि कहीं उनके हस्तक्षेप से हमारा देश भी पाकिस्तान न बन जाए और हमारे यहां का धार्मिक सौहार्द्र न बिगड़ जाए, इसलिए हमें उन पर नज़र रखने की ज़रूरत है.
21 मार्च, 2010 को पाकिस्तान के अंग्रेजी अख़बार डेली टाइम्स में एक चौंकाने वाली ख़बर छपी. पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के एक पूर्व अधिकारी खालिद ख्वाजा ने यह खुलासा किया था कि 1980 के दशक में जब पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ पंजाब के मुख्यमंत्री थे, तो उस वक़्त वह सऊदी अरब के शाही खानदान से क़रीबी रिश्ता बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने खालिद ख्वाजा से कहा कि वह ओसामा बिन लादेन से उनकी मुलाकात कराएं, क्योंकि उन दिनों सऊदी के शाही खानदान के साथ ओसामा का उठना-बैठना था और तब तक ओसामा ने अलक़ायदा नामक आतंकवादी संगठन नहीं बनाया था. इस प्रकार खालिद ख्वाजा ने सऊदी अरब के अंदर ही नवाज़ शरीफ और ओसामा के बीच 5 मुलाकातें कराईं, जो अलग-अलग समय में हुईं. लेकिन, सबसे ख़तरनाक बात खालिद ख्वाजा ने यह बताई कि एक बार ओसामा ने नवाज़ शरीफ को एक मोटी रक़म देकर उनसे कहा कि वह पाकिस्तान की तत्कालीन बेनज़ीर भुट्टो सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश करें. बाद के दिनों में विकीलीक्स केबल से भी इस बात का खुलासा हुआ कि पाकिस्तान में 2008 के आम चुनाव में नवाज़ शरीफ के प्रचार अभियान पर सऊदी अरब ने काफी पैसे खर्च किए थे और अब एक बार फिर सऊदी सरकार ने 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर पाकिस्तान डेवलपमेंट फंड में जमा कराकर वहां हंगामा खड़ा कर दिया है. पाकिस्तान की विपक्षी पार्टियां पूछ रही हैं कि नवाज़ शरीफ बताएं कि सऊदी अरब इन पैसों के बदले पाकिस्तान से क्या कराना चाहता है?
इस समय भारत में भी लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में पिछले दो-तीन महीनों से सऊदी अरब के कई मंत्रियों, अधिकारियों एवं धार्मिक गुरुओं का भारत आना और यहां के मुस्लिम संगठनों द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान या फिर असम के नवगांवां ज़िले में इकट्ठा की गई मुसलमानों की लाखों की भीड़ से मुखातिब होना, इस अंदेशे को जन्म देता है कि इस बार सऊदी अरब भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना चाहता है. यह अंदेशा तब और भी गहरा हो जाता है, जब सऊदी अरब के मंत्रियों और धार्मिक गुरु से समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव, उत्तर प्रदेश के मंत्री आशु मालिक, कांग्रेस पार्टी के कपिल सिब्बल एवं राजीव शुक्ल, लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान, बसपा सांसद सालिम अंसारी, दिल्ली के विधायक शोएब इक़बाल, आसिफ मुहम्मद खां और असम से एआईयूडीएफ़ के एकमात्र सांसद बदरुद्दीन अजमल जैसे सियासी नेता मुलाक़ातें करते हैं.
सबसे पहले बात करते हैं सऊदी अरब के धार्मिक मामलों के मंत्री डॉ. शेख़ सालेह बिन अब्दुल अज़ीज़ की. वह 17 फरवरी को अपने एक निजी दौरे पर भारत पहुंचे. दूसरे दिन उन्हें हेलिकॉप्टर से देवबंद ले जाया गया. देवबंद की यात्रा में जमीअत उलेमा के एक धड़े के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी उनके साथ रहे और फिर उसी दिन शाम को दिल्ली के पांच सितारा ताजमहल होटल में अरशद मदनी ने उनके लिए रात्रि भोज का इंतज़ाम भी किया. मज़ेदार बात यह है कि ताजमहल होटल के इस कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव एक तरह से दूल्हा बने हुए थे और उन्हें सऊदी मेहमान की ़कुर्बत भी हासिल थी. सऊदी मंत्री ने यहां से भारतीय मुसलमानों को यह संदेश दिया कि सबको आपस में मिलकर इस्लाम धर्म, मुसलमानों की सुरक्षा एवं प्रगति और सऊदी अरब के  हितों के लिए किसी एक ऐसे बिंदु और केंद्र की तलाश करनी चाहिए, जहां से इस्लाम विरोधी ताक़तों का मुक़ाबला किया जा सके. सालेह बिन अब्दुल अज़ीज़ ने भारतीय मुसलमानों से यह अपील भी की कि वे उन लोगों से होशियार रहें, जो भारत-सऊदी संबंधों को ख़राब करना चाहते हैं. उनका इशारा एकता मंच के संस्थापक एवं नदवतुल उलेमा, लखनऊ के अध्यापक मौलाना सलमान हुसैनी नदवी की तरफ़ था, जो अब सऊदी सरकार के दोस्त से दुश्मन बन चुके हैं. ज़ाहिर है, सालेह बिन अब्दुल अज़ीज़ की उक्त सारी बातें राजनीति से जुड़ी हुई थीं. मुलायम सिंह यादव को उनसे मिलवाने में मौलाना अरशद मदनी ने मुख्य रोल निभाया. इन नेताओं के अलावा ताजमहल होटल के इस कार्यक्रम में अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय के कुलपति ज़मीरूद्दीन शाह और दूसरे मुस्लिम संगठनों के सरपरस्तों को भी बुलाया गया था, ताकि सऊदी मंत्री उन्हें भारतीय मुसलमानों का नुमाइंदा समझ कर उनसे जो भी बात करना चाहें, करें.
उसके बाद 28 फरवरी, 2014 को, जब सऊदी अरब के उप-प्रधानमंत्री एवं रक्षा मंत्री शहज़ादा सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ दिल्ली में राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात कर रहे थे, उसी समय मदीना के इमाम डॉ. अब्दुल मुहसिन-अल-क़ासिम असम के नवगांवां ज़िले के अमूनी गांव में जमीअत उलेमा-ए-हिंद (अरशद मदनी) द्वारा आयोजित अज़मते सहाबा कांफ्रेंस में राज्य भर से जमा हुए 10 लाख मुसलमानों की एक भीड़ को संबोधित कर रहे थे. याद रहे कि नवगांवां संसदीय सीट पर अगले 24 अप्रैल को मतदान होना है. सऊदी अरब से आए मेहमान अरबी में भाषण दे रहे थे और मौलाना अरशद मदनी वहां उपस्थित लोगों के लिए उसका उर्दू अनुवाद करने के साथ-साथ अपनी ज़रूरत और मस्लेहत की बातें भी उन्हें बता रहे थे. मदीना के इमाम की बातें तो पूरी तरह से धार्मिक थीं, लेकिन अरशद मदनी ने जब अलग से अपनी बात शुरू की, तो सबसे पहले उन्होंने यही कहा कि जमीअत उलेमा-ए-हिंद पूरी तरह से धार्मिक संगठन है, जिसका संसद और विधानसभा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. यहां पर सवाल उठता है कि क्या अरशद मदनी उस दिन असम में जो कुछ कह रहे थे, वह सही है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि आजकल वह जिस तरह से मुलायम सिंह यादव के आसपास नज़र आ रहे हैं और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को इस बार भी समाजवादी पार्टी को वोट देने के लिए तैयार कर रहे हैं, उससे तो उनकी यह बात झूठ साबित हो जाती है कि राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं है. इसी प्रकार असम की उस सभा में बदरुद्दीन अजमल की उपस्थिति भी यही साबित करती है कि वह मुसलमानों की इतनी बड़ी भीड़ से अपना राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने की आशा लिए बैठे थे. यही नहीं, मदीना के इमाम के ठहरने की व्यवस्था असम के ही एक मंत्री रकीबुल हसन के घर पर की गई और राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की तरफ़ से उनके लिए रात्रि भोज का इंतज़ाम भी किया गया था. हालांकि वह चुनावी व्यस्तता के कारण उस दिन उपस्थित तो नहीं थे, अलबत्ता उनके पुत्र गौरव गोगोई इस्लामी पहनावे के साथ न स़िर्फ उपस्थित रहे, बल्कि उन्होंने इमाम साहब के पीछे नमाज़ भी पढ़ी.
 

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