आधार को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने को लेकर मद्रास हाई कोर्ट में एक याचिका डाली गई थी. याचिका में कहा गया था कि मतदाता सूची में फर्जी मतदाताओं के पंजीकरण को रोकने के लिए वोटर आईडी को आधार से जोड़ दिया जाए. इस पर मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस दिया और अब चुनाव आयोग ने जवाब दिया है कि उसे आधार को वोटर आईडी और मतदाता सूची से जोड़ने में कोई आपत्ति नहीं है. हालांकि चुनाव आयोग ने यह भी कहा है कि आधार की वैधता को बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अध्ययन करने के बाद ही आधार को वोटर आईडी से जोड़ने पर कोई फैसला किया जाएगा. अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होनी है.
चुनाव आयोग के पास 32 करोड़ आधार कार्ड!
चौथी दुनिया ने इसी साल 18 जून से 24 जून के अंक में आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने की कवायद पर लीड स्टोरी छापी थी. उस स्टोरी में यह तथ्य निकल कर आया था कि चुनाव आयोग के पास मतदाता सूची शुद्दीकरण के लिए पहले से ही करीब 32 करोड़ मतदाताओं के आधार कार्ड हैं. अब इन 32 करोड़ आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ा जा चुका है या नहीं, इस पर चुनाव आयोग ने अभी तक कुछ नहीं कहा है.
सबसे बड़ा सवाल है कि अगर वोटर कार्ड को आधार से लिंक किया गया, तो इसकी क्या गारंटी है कि आपका वोट गुप्त रह पाएगा? दरअसल, तीन मार्च 2015 को चुनाव आयोग ने नेशनल इलेक्टोरल रोल प्योरीफिकेशन एंड ऑथेंटिकेशन प्रोग्राम (नेरपाप) लॉन्च किया था. इस कार्यक्रम के तहत मतदाताओं के एपिक डेटा (वोटर कार्ड डेटा) को आधार कार्ड के साथ लिंक और ऑथेंटिकेट किया जाना था.
यह काम बूथ लेवल ऑफिसर से लेकर ऊपर तक के अधिकारियों के जरिए कराया गया. बीएलओ मतदाताओं के घर जाकर ये डेटा (आधार कार्ड डिटेल) इकट्ठा कर रहे थे. हालांकि, इसमें यह भी कहा गया कि मतदाताओं के लिए अपना आधार कार्ड डिटेल देना अनिवार्य नहीं होगा और डेटा की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएंगे. खैर, आधार इकट्ठा करने के लिए कई तरीके अपनाए गए. जैसे, डेटा हब, केंद्र और राज्य के संगठन और अन्य एजेंसियों के जरिए आधार डेटा इकट्ठा किए गए.
कई राज्यों ने भी स्टेट रेजिडेंट डेटा हब बनाए हैं, जिसमें मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, दिल्ली आदि शामिल हैं. स्टेट रेजिडेंट डेटा हब के जरिए राज्य सरकारें अपने नागरिकों के आधार कार्ड को विभिन्न कार्यों के लिए लिंक करती हैं. स्टेट रेजिडेंट डेटा हब का अर्थ है, सरकार के पास अपने नागरिकों की 360 डिग्री प्रोफाइल तैयार करना. 360 डिग्री प्रोफाइल का अर्थ यह है कि आपकी कोई भी जानकारी, आपकी कोई भी ऐसी राय, विचार जो किसी सोशल साइट्स या स्मार्ट फोन पर मौजूद है, उसकी हर एक जानकारी सरकार के पास होगी.
राज्य सरकार के पास यूआईडीएआई की तरफ से मुहैया कराई गई हर एक जानकारी (बायोमेट्रिक) होगी. चुनाव आयोग ने ऐसे ही स्टेट रेजिडेंट डेटा हब से भी डेटा लिए और इस तरह से चुनाव आयोग तकरीबन 32 करोड़ मतदाताओं के आधार डेटा इकट्ठा कर चुका था.
11 अगस्त 2015 को सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश आया. जस्टिस केएस पुट्टास्वामी (रिटायर्ड) की याचिका रिट पेटिशन सिविल संख्या 494/2012 पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा कि आधार का इस्तेमाल सिवाय पीडीएस (राशन) वितरण के, कहीं नहीं किया जा सकता है. अदालत ने यहां तक कहा कि सरकार किसी को दबाव के तहत आधार कार्ड बनवाने के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकती.
इस आदेश के आने के तुरंत बाद ही चुनाव आयोग ने सभी राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को 13 अगस्त 2015 को पत्र लिख कर तत्काल मतदाताओं से आधार डेटा इकट्ठा करने का काम बंद करने को कहा. आयोग ने नेशनल इलेक्टोरल रोल प्योरीफिकेशन एंड ऑथेंटिकेशन प्रोग्राम को भी स्थगित कर दिया. लेकिन इस बीच करीब 32 करोड़ मतदाताओं के आधार डेटा चुनाव आयोग के पास पहुंच चुके थे.
आयोग ने वैसे तो भरोसा दिलाया कि जमा किए गए डेटा की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग की मानव शक्ति और तकनीकी ताकत (खुद की न कि आउटसोर्स्ड) इतनी है, जिससे वो इस डेटा सुरक्षा की गारंटी दे सके. गौरतलब है कि चुनाव आयोग के बहुत सारे काम (खास कर तकनीकी) आउटसोर्स्ड होते हैं. चुनाव आयोग ने अब तक 32 करोड मतदाताओं के वोटर कार्ड आधार से लिंक किए है या नहीं, इसकी आधिकारिक जानकारी चुनाव आयोग को देनी चाहिए. यहां यह स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि वोटर कार्ड का आधार कार्ड के माध्यम से वेरीफिकेशन करना एक अलग बात है और वोटर कार्ड को आधार कार्ड से लिंक करना एक अलग बात है.
सवाल और आशंकाएं
यदि एक बार वोटर कार्ड को आधार से लिंक कर दिया गया, तो आने वाले समय में देश में ई-वोटिंग की प्रक्रिया भी शुरू की जा सकती है. ऐसी एक कोशिश गुजरात के स्थानीय नगर निगम चुनाव में हो भी चुकी है. इस वक्त गुजरात के 8 नगर निगम में ई-वोटिंग को अपनाया जा रहा है. ई-वोटिंग का सबसे बड़ा खतरा तो यही है कि मतदाता को यह पता ही नहीं होगा कि उसने किसे वोट दिया.
मतदाता अपने स्मार्ट फोन या कंप्यूटर पर एक नंबर दबाएगा और वोट चुनाव आयोग या ई-बूथ पर रखी मशीन में दर्ज हो जाएगा. अब वो मशीन क्या दर्ज कर रहा है, मतदाता कभी नहीं जान पाएंगे, सिवाय विश्वास करने के. ई-वोट फेल हुआ या उसके साथ फ्रॉड हुआ, यह जानने का क्या विकल्प होगा, इसे लेकर भी सवाल है.
दूसरी तरफ, यूआईएडीएआई ने यह स्वीकार किया है कि सरकारी सेवाओं के साथ आधार लिंकिंग की असफलता दर 12 फीसदी है. टेक्निकल एरर अलग से है. यदि वोटिंग सिस्टम में भी बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन अपनाया जाता है (जैसे अभी वोट करने से पहले वोटर कार्ड मिलान और हस्ताक्षर आदि करवाए जाते है, स्याही लगाई जाती है) तो जाहिर है कि उसमें भी वेरिफिकेशन का सक्सेस रेट घट-बढ़ सकता है. ऐसे में जिनका भी बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन नहीं हो पाएगा, वो वोटिंग से वंचित भी किए जा सकते हैं. कई ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं, जिनमें जिस व्यक्ति का आधार कार्ड बना है, बाद में उसके अंगूठे का निशान या आंख की पुतली मेल नहीं खाती.
ऐसे मतदाताओं का क्या होगा? क्या वे फिर भी वोट दे सकेंगे? फिर किसी भी संभावित टेक्निकल एरर (कनेक्शन फेल होने या अन्य तकनीकी दिक्कत) के कारण भी कोई मतदाता वोट देने से वंचित हो सकता है. क्या वोटर प्रोफाइल में हेरफेर की आशंका से इंकार किया जा सकता है, जिसका अनुचित लाभ उठाया जा सके? यदि इस पूरी योजना के क्रियान्वयन में कहीं कोई तकनीकी खामी रह जाती है, तो क्या उसका गलत फायदा कोई नहीं उठा सकता है?
ऐसे में मतदाता की संवेदनशील पूर्ण जानकारी क्या गलत तत्वों के हाथ नहीं लग सकती या फिर कैंब्रिज एनालिटिका के तर्ज पर इसका अनुचित तरीके से राजनीतिक लाभ नहीं उठाया जा सकता है? जाहिर है, वोटर कार्ड को आधार से जोड़ने के लिए हमारी चुनाव प्रणाली पूरी तरह से हैकप्रूफ और सुरक्षित होनी चाहिए.