मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी शोर में मिजोरम विधानसभा चुनाव के मुद्दों पर चर्चा नहीं हो रही है. उत्तर-पूर्व के इस महत्वपूर्ण राज्य में चकमा शरणार्थियों का मुद्दा इसबार जोर पकड़ रहा है. राज्य के प्रभावशाली गैर सरकारी संगठनों द्वारा विरोध किए जाने के बावजूद राजनीतिक दलों द्वारा विधानसभा चुनावों में चकमा उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की संभावना है. किसी भी राजनीतिक दल ने अभी तक दो चकमा वर्चस्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है.
सेंट्रल यंग मिजो एसोसिएशन और मिजो जिरलाई पॉल जैसे कई एनजीओ के संगठन मिजोरम एनजीओ समन्वय समिति ने 2017 में मिजो समाज पर भारी प्रभाव डाला था. इन संगठनों ने राजनीतिक दलों से कहा था कि वे किसी भी चकमा को चुनाव मैदान में न उतारें, जिनमें से अधिकतर बांग्लादेश से अवैध अप्रवासी हैं.
मिजोरम एनजीओ समन्वय समिति के महासचिव लालमाचुआना ने कहा कि अगर चकमा विधायक चुने जाते हैं, तो हमें डर है कि वे बांग्लादेश के चकमा शरणार्थियों को राज्य में शरण देने के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेंगे और वे चकमा स्वायत्त जिला परिषद (सीएडीसी) को भंग करने की मांग भी कर रहे हैं.
लालमुचुआना ने कहा कि हमने एक सप्ताह पहले उसी अपील के साथ एक मेमोरेंडम भेजा था, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने हाल के पत्र का जवाब नहीं दिया है. 2017 में जोरम नेशनलिस्ट पार्टी, जो बाद में जोरम पीपुल्स मूवमेंट का हिस्सा बन गई थी, ने कहा था कि चकमों को चुनाव मैदान में नहीं उतारेंगे.
ईसाई वर्चस्व वाले मिजोरम में चकमा एक बौद्ध अल्पसंख्यक हैं. इस बीच मिजोरम में प्राथमिकता बनाने की उम्मीद करते हुए भाजपा ने सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. हाल ही में राज्य में यात्रा के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने आत्मविश्वास से कहा था कि मिजोरम भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार के तहत क्रिसमस मनाएंगे.