नई दिल्ली: मैला प्रथा के खिलाफ सबसे पहली आवाज़ महात्मा गांधी ने 1901 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में उठाई थी. 1947 में देश आज़ाद हुआ. हालाँकि आज़ादी मिलने के कुछ दिनों बाद ही गाँधीजी की हत्या कर दी गई, लेकिन उनके जो अनुयायी सत्ता पर विरजमान हुए उन्हें उनकी ये बात याद न रही. उन्हें याद दिलाने में 50 साल लग गए. बहरहाल 1993 में मैला ढोने वालों के रोज़गार और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर निषेध लगाने के लिए एक कानून पारित किया गया. 1993 में ही सफाई कर्मचारी आयोग का गठन हुआ. चूंकि इस क़ानून में बहुत सारी खामियां थीं, इसलिए 2013 में और क़ानून पारित किए गए. लेकिन जमीनी हालात जस-के-तस बने हुए हैं. आए दिन सीवर और सेप्टिक की सफाई के दौरान ज़हरीली गैसों की चपेट में आकर सैकड़ों लोग दम तोड़ रहे हैं.
शुष्क शौचालयों के निर्माण (निषेध) अधिनियम (1993) संसद में पारित कर मैला ढोने और शुष्क शौचालयों के निर्माण को ग़ैर क़ानूनी करार दिया गया. इसके तहत दोषियों को एक वर्ष की कैद और 2000 रुपए जुर्माने का प्रावधान था, लेकिन यह क़ानून कभी सही ढंग से लागू नहीं हुआ. कानून पारित होने से पहले ही इसके दुरुपयोग की आशंका व्यक्त की जा रही थी. इस तरह के मामलों में स़िर्फ ज़िलाधिकारी ही मुक़दमा दायर कर सकता था. सफाई कर्मचारी आन्दोलन के संयोजक विज्वाड़ा विल्सन के मुताबिक इस कानून के तहत 1993 से लेकर 2002 तक एक भी म़ुकदमा दर्ज नहीं हुआ, लेकिन इसका एक फायदा ज़रूर हुआ कि अब सफाईकर्मी आवाज़ उठाने लगे. वे इस काम को छोड़कर वैकल्पिक रोज़गार की तलाश भी करने लगे.
सरकारी स्तर पर महज़ टालमटोल की कोशिश होती रही. वर्ष 1993 से 2012 के बीच केंद्र और राज्य सरकारों ने यह प्रथा पूरी तरह से समाप्त करने के लिए कई बार समय सीमा बदली, लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने रहे. सफाई कर्मचारी आयोग के गठन का भी कोई अपेक्षित नतीजा सामने नहीं आया, बल्कि उल्टा असर यह हुआ कि अगर कोई ग़ैर सरकारी संस्था या सिविल सोसायटी का कोई व्यक्ति इस समस्या को लेकर सरकार या किसी ज़िम्मेदार अधिकारी के पास जाता, तो उसे आयोग में अपनी शिकायत दर्ज करने के लिए कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया जाता. सफाई कर्मचारी आयोग और 1993 का क़ानून इस प्रथा को खत्म करने में पूरी तरह से नाकाम रहे. सिविल सोसायटी और इस क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के दबाव के बाद 2013 में हाथ से मैला ढोने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम (प्रोहिबिशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्केवेंजर एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट) पारित हुआ. इस क़ानून में यह प्रावधान किया गया कि सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करने वालों को भी मैनुअल स्केवेंजेर स्वीकार किया जाए. कोई भी इंसान सफाई के लिए सीवर के अंदर नहीं जाएगा, यदि जाएगा भी, तो आपात स्थिति में और पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ. एक्ट में इस प्रथा से जुड़े लोगों के पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता देने के लिए सर्वे कराने का भी प्रावधान रखा गया था. लेकिन अभी तक जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उससे यही ज़ाहिर होता है कि इस कानून पर कछुए की रफ़्तार से प्रगति हो रही है. हालिया दिनों में सरकार ने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास से सम्बंधित जो आंकड़े जारी किए हैं, उससे तो यही ज़ाहिर होता है.