भाजपा के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में काबीना मंत्री रह चुके लालजी टंडन द्वारा लिखित पुस्तक अनकहा लखनऊ का विमोचन 26 मई 2018 को बड़े तामझाम से लखनऊ में हुआ. इसमें भारत के उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय की उपस्थिति ने पुस्तक बहुचर्चित कर दिया. यह स्वभाविक रूप से होना था क्योंकि यह पुस्तक लालजी टंडन जी को अवध की संस्कृति व सांस्कृतिक इतिहास के नये भाष्यकार के रूप में स्थापित करने की लम्बी कवायद की परिणति थी.
अकादमिक व राजनीतिक गलियारे में एक प्रश्न की अनुगूंज रही कि अनकहा लखनऊ के माध्यम से टंडन जी कहना क्या चाहते हैं. हमारे जैसे लोगों के मन में जिज्ञासा जगी कि देखा जाए कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में क्या अनकहा रह गया, जिसका रहस्योद्घाटन टंडन की सशक्त कलम ने किया है. पुस्तक का विहंगावलोकन करते समय पृष्ठ संख्या 189 पर दृष्टि टिक गई. आजादी की लड़ाई में आम जन शीर्षक से संकलित लेख में लिखा है, अंग्रेज अपनी मंशा हर हाल में पूरी करते थे. लेकिन नाटक भी पूरा करते थे. उन्होंने काकोरी कांड के नायकों से कहा कि अगर वे चाहें तो अपने लिए वकील कर लें, इसके लिए 20 रुपए रोज दिए जाएंगे. ऐसा होने पर जब इन क्रांतिकारियों ने उस समय के नामी वकील गोविन्द वल्लभ पंत, जो बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, से सम्पर्क साधा तो पंत साहब ने अपनी फीस सौ रुपए बता दी और क्रांतिकारियों का मुकदमा लड़ने से इन्कार कर दिया. तब इन क्रांतिकारियों ने गोकर्णनाथ मिश्रा को तैयार किया.
इसी पृष्ठ पर पंडित जवाहर लाल नेहरू का भी नाम अवमानकारी तौर-तरीके से अनावश्यक रूप से लिया गया है, ताकि पाठकों में यह संदेश जाए कि पंडित नेहरू क्रांतिकारियों के विरोधी थे. टंडन जी ने अंततोगत्वा सलाह दी है, इतिहास को निष्पक्ष और स्पष्ट होना चाहिए और जिसने जो किया, वह सामने आना चाहिए. अपनी ही कही व लिखी बात पर टंडन जी स्वयं खरे नहीं उतरते. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के नवनिर्माताओं में अग्रगण्य, प्रथम मुख्यमंत्री व देश के दूसरे गृहमंत्री पंडित गोविन्द वल्लभ पंत को टंडन जी ने प्रत्यक्षतः धनलोलुप दर्शाने की कुत्सित कवायद की है.
अपने इस दुराग्रह के लिए वे इतिहास द्वारा कभी माफ नहीं किए जाएंगे. बकौल टंडन जी, जीपीओ पार्क में उन्हीं के द्वारा स्थापित शिलालेख में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि काकोरी के नायकों के मुकदमे में पांच वकीलों ने निःशुल्क पैरवी की थी. इनके नाम हैं, बैरिस्टर बीके चौधरी (कलकत्ता), पं. गोविन्द वल्लभ पन्त, चन्द्रभानु गुप्त, मोहन लाल सक्सेना और केएस हजेला. इस शिलालेख के अनुसार पंडित गोविन्द वल्लभ पंत ने काकोरी के योद्धाओं की ओर से मुकदमा लड़कर ब्रिटानिया हुकूमत को सीधी चुनौती दी थी. ऐतिहासिक कथ्य व तथ्य का उल्लेख अमर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा के आमुख में भी मिलता है. सर्वविदित है कि पंडित रामप्रसाद बिस्मिल काकोरी की क्रांतिकारी घटना के मुख्य सूत्रधार थे.
उनके मुख्य सहयोगी व प्रतिबद्ध साथी अशफाक उल्ला खान पर लिखी गई सुधीर विद्यार्थी द्वारा संपादित पुस्तक अशफाक उल्ला और उनका युग के अनुसार पंडित गोविन्द वल्लभ पंत ने 29 अक्टूबर 1925 को प्रांतीय काउन्सिल में काकोरी केस के कैदियों के पक्ष में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार को खूब आड़े हाथों लिया. इसी पुस्तक और काकोरी केस के दौरान अखबारों में प्रकाशित समाचारों से पता चलता है कि 17 दिसम्बर को प्रांतीय परिषद में पंत जी ने पुनः पूरी प्रतिबद्धता और ताकत से रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, चन्द्रशेखर आजाद समेत अन्य काकोरी-क्रांति से जुड़े क्रांतिकारियों का मामला उठाया था, किन्तु तत्कालीन अध्यक्ष ने उनकी एक न सुनी. मात्र 80 रुपए के लिए काकोरी के नायकों का मुकदमा लड़ने से इन्कार करने वाली कहानी लालजी टंडन की कपोल कल्पना है, जो पूर्णतया असत्य है.
यह पंत को लांछित करने और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ज्योतिर्मय इतिहास को कलंकित करने का असफल प्रयास है. गोविन्द जी की देशभक्ति स्फटिक की भांति निर्विवाद और स्पष्ट है, जिस पर कोई अल्पज्ञ भी प्रश्न खड़ा नहीं कर सकता. जो काम ब्रिटानिया हुकूमत के नुमाइंदे भी करने का साहस नहीं जुटा सके वह कृत्य लालजी टंडन ने अपने अल्पज्ञान अथवा षडयंत्री मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति अनकहा लखनऊ के माध्यम से की है.
लालजी टंडन का यह भी आरोप है कि गोविन्द वल्लभ पंत धनलोलुप थे और 100 रुपए फीस पर मुकदमा लड़ते थे. लालजी टंडन का निहितार्थ है कि पंतजी की वकालत का ध्येय धनार्जन करना था. यह भी मिथ्यारोप है. पंत जी के लिए वकालत न्याय से वंचित व्यक्तियों व वर्गों को उनका अधिकार दिलाने का पक्ष मात्र था. वे रायबहादुर बद्री के नाती थे. उनके पास वित्तीय संकट नहीं था न ही धन के प्रति किसी प्रकार का लोभ था. प्रसंगवश तीन घटनाओं का उल्लेख समीचीन है.
पंत जी ने शोषक पूंजीपतियों के खिलाफ बेगारों का मुकदमा लड़ा और बेगारी प्रथा पर प्रभावशाली अंकुश लगवाया. वे यदि धनलोलुप होते तो निर्धन बेगारों के बजाय धनिकों की ओर से मुकदमा लड़ते. यह घटना 1921 की है. इसके पूर्व 1914 में राष्ट्रीय विचारों के प्रति प्रतिबद्ध होने के कारण काशीपुर स्थित उदयवीर राज हिंदू इंटर कॉलेज पर अंग्रेजों द्वारा पाबंदी लगा दी गई. पंत जी ने ही 2500 रुपए जमा करवा कर प्रतिबंध हटवाया. सोचिए, कैसे सम्भव है कि हजारों रुपए राष्ट्रवादी विद्यालय के ऊपर व्यय करने वाला व्यक्ति मात्र 100 या 80 रुपए के लिए मुकदमा नहीं लड़ेगा!
यदि पंत जी को धन, सुविधाओं अथवा सत्ता का मोह या लोभ होता तो सत्याग्रह के दौरान संयुक्त प्रांत (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) का प्रधानमंत्री पद बिना हिचक छोड़कर जेल का रास्ता न चुनते. नमक सत्याग्रह व बयालिस की क्रांति के दौरान जेल जाले वाले पंतजी की देशभक्ति पर सवाल उठाकर लालजी टंडन, भाजपा और संघ क्या साबित करना चाहते हैं? इस पर व्यापक बहस जरूरी है.
कहीं यह पुस्तक इतिहास बदलने और संघ-परिवार से परे जितने भी महापुरुष हुए हैं, सबकी प्रतिष्ठा धूमिल कर स्वयं को देश के वास्तविक पुरोधा के रूप में स्थापित करने के गुप्त एजेंडे का प्रतिफल तो नहीं है? ऐसा कैसे सम्भव है कि विमोचन करने के पूर्व व बाद में वेंकैया नायडू, हृदय नारायाण दीक्षित, राम नाईक, योगी आदित्यनाथ व डॉ. महेन्द्रनाथ पांडेय आदि ने पुस्तक न पढ़ी हो. यदि नहीं पढ़ी तो दुःखद है और पढ़ने के बाद भी इतनी बड़ी तथ्यात्मक त्रुटि पर उनकी रहस्यमयी चुप्पी दुर्भाग्यपूर्ण है.
देश, विशेषकर उत्तर प्रदेश 30 नवम्बर 1928 का दिन कभी नहीं भूल सकता. साइमन कमीशन के विरोध में पंडित जवाहर लाल नेहरु व पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की अगुवाई में लखनऊ की सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा. अंग्रेज शासकों ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए यातना का सहारा लिया. पुलिस की लाठियां सत्याग्रहियों के शरीर पर वहशी की तरह टूट पड़ी. छह फुट के पंतजी ने पंडित नेहरु की रक्षा कवच बनकर की. यदि पंतजी न होते तो लाला लाजपत राय की तरह पंडित नेहरू भी नहीं बचते. इस तथ्य को पंडित नेहरू ने कई जगह व कई बार सार्वजनिक रूप से उद्धृत किया है. पंतजी में देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी.
उन्होंने 1907 में प्रयाग कुम्भ में देश की आजादी के पक्ष में जोरदार भाषण दिया. फलस्वरूप प्रिंसिपल जेनिंग्स ने उन्हें म्योर सेंट्रल कॉलेज से निष्कासित कर दिया और स्नातक की परीक्षा देने पर रोक लगा दी. मदन मोहन मालवीय के प्रभावी हस्तक्षेप व कानूनी कार्यवाही की धमकी के बाद पंतजी को परीक्षा देने की अनुमति मिली. उपरोक्त वर्णित घटनाओं एवं उदाहरणों से स्वतः स्पष्ट है कि पंतजी अप्रतिम व अनन्य देशभक्त थे.
अनकहा लखनऊ के पृष्ठ 189 पर गोविन्द वल्लभ पंतजी के साथ-साथ लालजी टंडन ने पंडित जवाहर लाल नेहरू की भी छवि धूमिल करने की सायास कोशिश की है. जिस तरह पंडित नेहरू के नाम का उल्लेेख किया है, उससे लगता है कि नेहरू जी काकोरी के नायकों के साथ नहीं, अपितु जगतनारायण व आनंद नारायण मुल्ला के पक्ष में खड़े थे. लालजी टंडन का एकांगी दृष्यांकन भी गहरे षडयंत्र का पता देता है. नेहरू परिवार, पंडित मोतीलाल व जवाहर लाल नेहरू काकोरी के शहीदों के साथ खड़े थे.
मोतीलाल नेहरु जी काकोरी के नायकों के खिलाफ पैरवी करने के कारण जगतनारायण मुल्ला से काफी नाराज थे. उन्होंने अपने जूनियर गोविन्द वल्लभ पंत को काकोरी के शहीदों की वकालत करने को कहा. अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की छोटी बहन शास्त्री देवी के एक मार्मिक लेख से पता चलता है कि अंग्रेजों की यातना से बिस्मिल के परिजनों की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो चुकी थी. ऐसे में पंडित नेहरू ने उस समय 500 रुपए की आर्थिक सहायता दी थी.
अनकहा लखनऊ के लेखक लालजी टंडन और संपादक विनय जोशी यदि रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा पढ़ लेते तो उनके हाथों इतना बड़ा अनर्थ होने से बच जाता. अनकहा लखनऊ के पृष्ठ 18 पर ही टंडन जी ने लिखा है कि जीपीओ में शिलापट्ट उन्होंने उत्तर प्रदेश के मंत्री के रूप में लगवाया था. सवाल यह खड़ा होता है कि उसी शिलापट्ट पर अंकित पंतजी का नाम टंडन जी को क्यों नहीं दिखा. इसी बहाने एक और झूठ सामने आया. जीपीओ पार्क में उक्त शिलापट्ट 1977 में स्थापित हुआ था, यह तथ्य उसी पर शिलांकित है. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के अनुसार 1977 में दो बार राष्ट्रपति शासन लगा और दो सरकारें इस वर्ष काबिज हुईं.
21 जनवरी 1976 तक उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था. 21 जनवरी से लेकर 30 अप्रैल तक यहां नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे, जिनके मंत्रिमंडल में टंडन जी के होने का प्रश्न ही नहीं उठता. 30 अप्रैल 1977 से 23 जून 1977 तक उत्तर प्रदेश में पुनः राष्ट्रपति शासन रहा. इसके पश्चात जनता पार्टी की सरकार रामनरेश यादव के नेतृत्व में 23 जून 1977 को शपथ ग्रहण करती है. रामनरेश मंत्री परिषद में 21 काबीना, 6 राज्य स्तरीय व 8 उपमंत्री थे, जिनमें लालजी टंडन नहीं थे.
लिहाजा, अनकहा लखनऊ झूठ का पुलिंदा और एक भ्रामक पुस्तक है. पुस्तक के लेखक, संपादक, प्रकाशक के अलावा सभी विमोचकों को पंडित गोविन्द वल्लभ पंत का अपमान किए जाने की गलती पर सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए और इतिहास को विद्रूप करने के लिए खेद प्रकट करना चाहिए. खास तौर पर बुद्धिजीवियों, प्रबुद्ध राजनीतिकों और नागरिकों को महापुरुषों के अपमान के खिलाफ मुखर होना चाहिए. लोग चुप हैं, यह उतना ही बड़ा अपराध है, जितना बड़ा अपराध अनकहा लखनऊ के लेखक, सम्पादक, प्रकाशक और विमोचकगणों ने किया है.
हमारे जैसे व्यक्ति ने पुस्तक यह सोचकर खरीदी कि ज्ञान का कुछ प्रकाश प्राप्त होगा. विमोचन समारोह में टंडन जी ने ऐसा ही दावा भी किया था. लेकिन पुस्तक इसके ठीक विपरीत निकली. पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां प्रासंगिक हैं, कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप/जो रौशनी थी वो भी सलामत नहीं रही.
(लेखक समाजवादी चिन्तक एवं बौद्धिक व चिन्तन सभा के अध्यक्ष हैं)