नई दिल्ली: देश में शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी के अंदरुनी कलह की लौ धीमी जरूर है, पर आंच धीरे-धीरे सुलगने लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू जैसे-जैसे जनता के दिमाग से उतर रहा है, खुद भाजपा में विरोध के सुर बजने लगे हैं. यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के बाद अब मोदी को निशाना बनाया है बिहारी बाबू यानी शॉटगन शत्रुघ्न सिन्हा ने और सिन्हा ने यह तीर भाजपा के भीष्म पितामह सरीखे नेता लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर चलाया है.
सिन्हा ने अपने हमले के लिए आडवाणी का नाम क्यों चुना इसकी वजह जानने के किये हमें नजर डालनी होगी आडवाणी जी की उस सियासी यात्रा पर, जिसने कभी उन्हें भाजपा का सर्वमान्य नेता बना दिया था और शत्रुघ्न सिन्हा उनके करीबी बन गए.
अटल, आडवाणी और जोशी की त्रिमूर्ति के सबसे ख़ास सदस्य आडवाणी की अगुआई और रहनुमाई में भाजपा ने अतीत में तमाम बुलंदियां छुईं. वही आडवाणी जिन के राम मंदिर आंदोलन ने देश में हिंदुत्व का नया समर्थक वर्ग पैदा किया. यह आडवाणी ही थे जिन की रथयात्रा ने कालान्तर में भाजपा को वह बुनियाद मुहैया कराई, जिससे वह केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में सरकार बनाने में कामयाब हुई.
आडवाणी के आलोचक भी मानते हैं कि हार्ड लाइन हिंदुत्व का अलख जलाने के बावजूद भी उन्होंने कभी सिद्धांतों की राजनीति नहीं छोड़ी. यह आडवाणी ही थे, जिन्होंने हवाला डायरी में महज नाम भर आ जाने से चुनावी राजनीति से तब संन्यास ले लिया था, जब वह प्रधानमंत्री पद के सबसे सबल दावेदार थे. बाद में उन्होंने अपनी जगह अटल जी का नाम आगे किया.
यह आडवाणी ही थे, जो पाकिस्तान की धरती पर जाकर जिन्ना को सेकुलर कहने का साहस कर सकते थे. हालांकि इसी ने उनका राजनीतिक कैरियर तबाह कर दिया. वह संघ की आँखों में खटकने लगे, और उनकी काट के लिए आरएसएस ने उनके ही चेले नरेंद्र मोदी को हथियार बना लिया.
अब शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कहकर भाजपा में हलचल मचा दी है कि पार्टी के 80 फीसदी लोग लालकृष्ण आडवाणी को देश के अगले राष्ट्रपति के तौर पर देखना चाहते थे. लोग चाहते थे कि आडवाणीजी ही देश के राष्ट्रपति बनें, पर यह कुछ लोगों को पसंद नहीं आया. लालकृष्ण आडवाणी को अपना दोस्त, मार्गदर्शक, दार्शनिक बताते हुए सिन्हा ने दावा किया कि वही मेरे अंतिम नेता हैं.
आपको याद दिला दें कि शत्रुघ्न सिन्हा ने राष्ट्रपति चुनाव से पहले जब भाजपा की ओर से उम्मीदवार का ऐलान नहीं हुआ था तो ट्विटर पर आडवाणी के पक्ष में अभियान भी चलाया था. इसकी वजह भी है. 2013 में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया था तो आडवाणी उस गुट की अगुवाई कर रहे थे जिसका मानना था कि पार्टी मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित नहीं करे, और चुनाव बाद चुने हुए सांसद इसका फैसला करें. शत्रघ्न सिन्हा ने भी तब इस बात का समर्थन किया था.
हालांकि 2013 में इस गुट की राय को स्वीकार नहीं किया गया था और नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. मोदी इस बात को भूले नहीं और जब भाजपा को प्रचंड जीत हासिल हुई और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, तो आडवाणी सहित शत्रुघ्न सिन्हा व यशवंत सिन्हा को भी हाशिये पर धकेल दिया गया, जो इस ब्रिगेड के अहम सदस्य थे.
मोदी के पीएम बनने के बाद भाजपा के भीतर एक नई परंपरा शुरू हुई मार्गदर्शक मंडल की और लालकृष्ण आडवाणी की पार्टी के भीतर सलाहकार की भूमिका को खत्म कर दिया गया. यही नहीं खुद शत्रुघ्न सिन्हा को भी पार्टी ने धीरे-धीरे किनारे लगा दिया और उन्हें पार्टी के अहम कार्यक्रमों से बाहर रखा जाने लगा.
यहां तक कि मूलरूप से बिहार से आने वाले सिन्हा को पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के कार्यक्रम में भी न्योता नहीं दिया गया, जबकि वह उस विश्वविद्यालय के छात्र भी रहे हैं. यही नहीं सिन्हा ने चार बार संसद में इस राज्य और खुद पटना से नुमाइंदगी भी की. वह केंद्र में मंत्री भी रहे हैं. यह सच है कि आडवाणी इनदिनों नेपथ्य में हैं पर उनके पक्ष में बयान देकर सिन्हा ने मोदी के खिलाफ एक तरह से बिगुल बजा दिया है.
मोदी और शाह पर कटाक्ष करते हुए शत्रुघ्न सिन्हा ने यह भी कहा कि बीजेपी मेरी पहली, आखिरी और एकमात्र पार्टी है, मैंने इसे तब ज्वाइन किया था जब इसके लोकसभा में दो सांसद थे. अब बीजेपी टू मैन आर्मी पार्टी है. पर मैं जनता का नेता हूं. जिनदिनों मैं यहाँ चुनाव लड़ रहा था, मेरे पक्ष में प्रचार करने कोई नहीं आया.पर मैं जीता. एक चुने हुए जनप्रतिनिधि की इतानी भी अहमियत नहीं.
शत्रुघ्न सिन्हा का आरोप है कि कुछ हफ्ते पहले मैंने प्रधानमंत्री से मिलने का वक़्त मांगा था लेकिन नहीं मिला. मुझे अब किसी कार्यक्रम या बैठक में आमंत्रित नहीं किया जाता. पर क्या इससे सिन्हा की हैसियत कम हो जाएगी? जाहिर है नहीं. यह लोकतंत्र है, और इसमें कब, कौन, कहां, कैसे छा सकता है, कहना मुश्किल है.
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