कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आए और नई सरकार में नए चेहरे दिखें तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। लेकिन केरल में वाम मोर्चे की सत्ता में फिर से ऐतिहासिक दमदार वापसी के बाद नई कैबिनेट में बहुप्रशंसित पूर्व मंत्री के.के.शैलजा का नाम न होना, कई सवाल खड़े करता है। यह सवाल वैसा ही है कि जैसे 2014 में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का रास्ता निष्कंटक करने 75 पार का फार्मूला लागू कर अपने कई वरिष्ठ सेनापतियों को बेरहमी से घर बैठा दिया था। उस वक्त भी विपक्ष के कई नेताओं ने ‘नए खून को आगे लाने’ के नाम पर भाजपा के ‘ निपटाओ फार्मूले’ पर सवाल उठाए थे। जबकि अपने खून-पसीने से देश में भाजपा को खड़ा करने वाले ये नेता अब घर बैठकर ‘मन की बात’ सुनते हैं, कभी-कभार मोदी सरकार पर हमला करते हैं या फिर यशवंत सिन्हा जैसे इक्का-दुक्का लोग विरोधी पाले में अपनी राजनीतिक गुमठी सजा लेते हैं। कांग्रेस में ऐसा कम इसलिए होता है, क्योंकि वहां युवा-वृद्ध जैसी कोई ऑफिशियल लाइन है ही नहीं। वहां गुट काम करते हैं, जब जो हावी हो जाए। चूंकि वहां शीर्ष सत्ता अपरिवर्तनीय है, इसलिए सैद्धांतिक और नीतिगत सवाल भी बुलबुले की तरह उठते और तुरंत फोड़ भी दिए जाते हैं।
यूं अपनी कैबिनेट बनाना किसी भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, जो पार्टी की मोटी गाइड लाइन और राजनीतिक तकाजों के हिसाब से उपयोग किया जाता है। इस लिहाज से केरल के दोबारा मुख्यमंत्री बने अनुभवी पी. विजयन को भी यह अधिकार है कि वो किसे कैबिनेट में लें और किसे बाहर रखें। उनकी ताजा कैबिनेट में (विजयन को छोड़कर) सभी नए और युवा चेहरे हैं। इसके पीछे माकपा की सोच यह है कि अब युवा खून को आगे बढ़ाया जाना जरूरी है। इसलिए भी क्योंकि माकपा में बूढ़े और काफी हद तक थके हुए चेहरों की भरमार है। यह वृद्धों के मान –सम्मान को कायम रखने की दृष्टि से तो ठीक है, लेकिन पार्टी में नए और ऊर्जावान खून की दरकार के हिसाब से बहुत ठीक नहीं है। लगता है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के घोर निराशाजनक नतीजों के बाद माकपा ने तय कर लिया है कि अब वह नई पीढ़ी पर ही दांव खेलेगी। यह फैसला समयानुकूल भी है। क्योंकि पार्टी के रथ को लगातार दौड़ना है तो ताजा दम वाले घोड़े और सारथी चाहिए।
बावजूद इसके केरल में चौथी बार विधायक बनी और पूर्व में मंत्री रहीं के.के.शैलजा को मंत्रिमंडल में नहीं लिया जाना किसी को पच नहीं रहा है। शैलजा, जो ‘शैलजा टीचर’ और ‘राॅक स्टार’ के नाम से मशहूर हैं, को केरल में कोविड और निपाह वायरस प्रकोप को प्रभावी रूप में नियंत्रित करने वाले चेहरे के रूप में जाना जाता है। इसमें संदेह नहीं कि िपछले साल देश में कोरोना का पहला केस केरल में मिलने के बाद भी कोविड का वैसा भयानक प्रकोप इस दक्षिणी राज्य में देखने को नहीं मिला, जैसा दूसरे राज्यों में था। इसका कारण राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं का बेहतर प्रबंधन और सामाजिक जागरूकता रही है। यहां तक कि कोरोना की दूसरी लहर में राज्य में कोविड टीकाकरण में वैक्सीन बर्बाद न होने देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने केरल की सार्वजनिक रूप से तारीफ भी की, जिसे सुखद आश्चर्य की तरह देखा गया। जाहिर है कि राज्य की कमान भले मुखिया पी. विजयन के हाथ में हो, लेकिन स्वास्थ्य विभाग की कार्यकारी कमान तत्कालीन स्वास्थ्य और समाज कल्याण मंत्री शैलजा के हाथों में थी। उनके काम और समर्पण की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ हुई।
खास बात यह है कि पार्टी में पितामह की हैसियत वाले मुख्यमंत्री पी. विजयन की टीम में उनके अलावा सभी नए चेहरे हैं। यूं पार्टी ने शैलजा के काम की तारीफ करते हुए उन्हें को विधानसभा में दल का सचेतक बनाया है। यह वैसा ही है कि किसी को कमांडो ड्यूटी से हटाकर होम गार्ड बना देना। केरल के सीपीएम एमएलए ए. एन. शमशीर ने दावा किया कि ऐसा कठोर फैसला करने का साहस हमारी पार्टी में ही है। इस बार कई टाॅप परफार्मर्स को कैबिनेट से बाहर रखा गया है। ताकि नए चेहरों को जगह मिले। वैसे पार्टी जिसे ‘साहसिक निर्णय’ बता रही है, वैसे फैसले भाजपा पहले भी कर चुकी है। याद करें दिल्ली के तीन नगर निगमों के चुनाव। तब भाजपा ने सारे पुराने पार्षदों के टिकट काटकर नयों को प्रत्याशी बनाया और तीनो नगर निगमों पर फिर से कब्जा कर लिया। मोदी सरकार में भी ‘75 पार’ और ‘आजादी के बाद की पैदाइश’ के फार्मूले के तहत कई बुजुर्ग नेताओं को घर बिठा दिया गया था। हालांकि कई लोगों ने इसे पार्टी द्वारा अपने ही वयोवृद्ध नेताअों के साथ ‘अपमानजनक व्यवहार’ के रूप में देखा।
अगर ‘युवा नेता’ शब्द की व्याख्या समझें तो राजनीति में इसका अर्थ समय सापेक्ष ज्यादा होता है। उदाहरण के लिए जिन के.के.शैलजा को ‘बुजुर्ग’ मानकर मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया, उनकी उम्र 64 साल ही है। जबकि राज्य के दोबारा मुख्युमंत्री बने पी. विजयन ‘मात्र’ 85 साल के हैं। लिहाजा राजनीति में उम्र अंकों से ज्यादा काम करने की ऊर्जा और पार्टी के आंतरिक संघर्षों से ज्यादा पारिभाषित होती है। माकपा अधिकृत तौर पर भले इससे इंकार करे, लेकिन उसके इस फैसले में यह गंध आती है कि शैलजा की अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता उनके आड़े आ गई। कोई भी प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री, चाहे किसी भी पार्टी का हो, ज्यादा नगीनों को अपनी कैबिनेट में नहीं रखना चाहता। क्योंकि इससे उसकी लोकप्रियता और एकछत्रत्व घटने की आशंका सदा मंडराती रहती है। चक्रवर्तित्व का यह अहंभाव लोकतांत्रिक मुखियाओं में भी वैसा ही रहता है, जैसा कि राजशाही में हुआ करता था। यकीनन शैलजा अपने काम से मुख्यमंत्री पद की दावेदार हो सकती थीं, जो पार्टी के ही बहुत से नेताओं को रास नहीं आएगा। ऐसे में अपने फैसले का औचित्य ठहराने के लिए अमूमन पार्टी लाइन और सामूहिक निर्णय की एंटीबाॅडीज खड़ी की जाती हैं।
इसमें दो राय नहीं कि चाहे केन्द्र के स्तर पर हो या राज्य स्तर पर। चमकते हीरों को सरकार के मुखिया अपनी अंगूठी में जड़ने में ही विश्वास रखते हैं। मोदी सरकार का ही उदाहरण लें तो जिस केन्द्रीय मंत्री के परफार्मेंस और व्यवहार की विरोधी भी तारीफ करते हैं, वो हैं नितिन गडकरी। लेकिन इस महाभयंकर कोविड काल में स्वास्थ्य विभाग की कमान गडकरी की सौंपने के भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी के सुझाव को बड़ी सफाई से अनसुना कर दिया गया। जबकि कोरोना की दूसरी और महाघातक लहर से निपटने के लिए केन्द्रीय स्तर पर ऐसे मंत्री की दरकार थी, जो बेहतर और व्यावहारिक रणनीति तथा दूरद,र्शिता के साथ काम करता। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्द्धन के काम में वो दबंगई नहीं दिखती, जो उनसे अपेक्षित है। लेकिन वो बने रहेंगे, क्योंकि उनसे ‘किसी’ को खतरा नहीं है।
जाहिर है कि हर प्रधानमंत्री ( डाॅ.मनमोहन सिंह जैसे अपवाद छोड़ दें) और मुख्यमंत्री पूरा फोकस अपने पर ही बनवाना चाहता है। इसमें चालाकी यह है कि हर अच्छे काम और उपलब्धि का श्रेय उनके खाते में ही डाला जाना अनिवार्य होता है तो हर नाकामी के लिए ‘सामूहिक जिम्मेदारी’ का देसी काढ़ा बंटने के लिए तैयार रखा रहता है। ताकि असफलता का ठीकरा किसी एक के सिर पर फूटने की बजाए खुद असफलता पर ही फूटे। कांग्रेस जैसी पार्टी में तो नाकामी का यह काढ़ा पीने का रिवाज भी खत्म हो चुका है। बहरहाल, केरल में एक ‘परफार्मर मंत्री’ की जगह एक ‘ह्विप’ शैलजा सदन में क्या करेंगी, सोचने की बात है। उनकी पार्टी माकपा कुछ भी तर्क दे, लेकिन इस फैसले को ‘प्रगतिशील’ तो नहीं ही ठहराया जा सकता। सोशल मीडिया तो यह बात बार- बार कह रहा है। कोई न सुने, यह बात अलग है।