वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत का हर प्रसंग और कथा का हर प्रहसन हमारे जीवन से अभिव्यक्त होता है। ज्योंकि महाभारत ग्रंथ की रचना हमारे वर्तमान जीवन को देख कर ही रची गयी हो। द्रौपदी के चीरहरण व अन्य प्रसंगों से लेकर युद्ध तक पूरी महाभारत को अपने जीवन के सापेक्ष में उतार कर देखें। कदम कदम पर आपको महाभारत घटित होते मिलेगा। तो क्या हजारों बरस पहले लिखा महाभारत हमारे जीवन की नियति का फेर है और क्या जो हमारे सामने घटित हो रहा है वह होना ही निश्चित है। वह अवश्यंभावी है ? एक युद्ध महाभारत का था, एक युद्ध वर्तमान में देश के सामने है। दोनों की प्रकृति में अंतर है। वहां एक दूसरे के सामने सब एक ही कुल के लोग थे। यहां भिन्नता है यह जानते हुए भी कि समूची मनुष्य जाति अपनी प्रकृति और चरित्र में एक जैसी ही है। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। आज के महाभारत में एक पक्ष बहुत कमजोर और थका हुआ सा और दूसरा पक्ष वज्र की सी छाती लिए सामने है। पिछले दस सालों में देश का राजनीतिक अतीत कुछ ऐसा बना जिसे समय रहते हमारे विपक्ष ने समझने में न केवल भूल की बल्कि गफलत में रहा। उधर दूसरी ओर एक व्यक्ति, एक दल , एक विचारधारा ने धीरे धीरे ऑक्टोपस की भांति हमारे समाज और देश को किस तरह जकड़ना शुरु किया उसे कोई राजनीतिक दल समय रहते समझ नहीं सका। ऑक्टोपस अपनी आठों भुजाओं से अपने शिकार को दबोचता है। ठीक वैसे ही चौतरफा भारतीय समाज भी हिन्दू और सनातन के अधकचरे ज्ञान और चकाचौंध से भ्रमित है। विपक्ष चाह कर भी इसका तोड़ नहीं निकाल पा रहा। यह वैसे ही है जैसे जब कोई इमारत बन रही हो तब आप चर्चा में मशगूल रहें और इमारत के बन जाने पर त्राहि त्राहि।
आप हमारे राजनीतिक दलों की दिमागी दरिद्रता पर विचार कीजिए। जो व्यक्ति बीस साल पहले गुजरात प्रांत से विपरीत अर्थों में मशहूर होकर आया हो और दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुआ हो उसे पहले ही दिन से हल्के में लेना कितनी बड़ी कीमत चुकाना है। नरेंद्र मोदी ने देश की सत्ता संभालने के बाद सिर्फ दो काम किये जो ऑक्टोपस की भांति समाज को जकड़ने के लिए काफी थे। एक तो उन्होंने बरसों से हिंदुओं के मन में सोयी हुई मुस्लिम विरोध की ग्रंथि को जगा दिया और दूसरा उन्होंने अंधविश्वासों से जकड़ी हुई जनता को और गहरे अंधविश्वासों के मकड़जाल में उलझा दिया। ऐसी जनता चमत्कारों में अंधभक्ति से विश्वास करने वाली होती है। यह जनता अपने दुख दर्दों को पाप पुण्य के आलोक में देखती है। आंखों के सामने जो चमत्कार हो रहा है उससे अभिभूत होती है और भोथरे सत्य को थ्री डी के चश्मे से देख कर ही चमक उठती है। 3 जी 4जी और 5जी की चमक धमक में उसके पास सोचने के लिए कुछ बचता ही नहीं। डिजिटल दुनिया और डिजिटल पेमेंट ने उसे कांग्रेस के जमाने से बहुत आगे की दुनिया दिखाई है। और उसके लिए यह सब एक व्यक्ति के हाथ से दी गई उपलब्धि है। ऐसे माहौल में आप राजनीतिक युद्ध की कल्पना कीजिए। जिस युद्ध में मोदी को स्वयं भगवान का रूप दे दिया गया हो और उसे देने वाला पूरा मीडिया वर्ग रोजाना जनता के वास्तविक मुद्दों से हट कर विपक्ष पर हमलावर रहता हो वहां मोदी के सामने कोई शख्सियत हो तो आफत न हो तो आफत । झूठ फरेब के मौजूदा वक्त में स्थिति कुछ ऐसी है कि तराजू के एक पलड़े में मोदी और दूसरे में समूचा विपक्ष। फिर भी मोदी का पलड़ा भारी क्योंकि बरगलाई हुई देश की अनपढ़ जनता मोदी के साथ है। कांग्रेस के समय तक देश का मध्यम वर्ग थोड़ा सिमटा था आज वही मध्यम वर्ग बीच से नीचे की ओर और फैल गया है। मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग ने मिल कर जो असंगठित क्षेत्र का निर्माण किया है वह आज मोदी की कृपा पर है। यह वास्तविकता विपक्ष का मतदाता भी देख रहा है और परेशान है। इससे भी ज्यादा परेशानी यह है कि विपक्षी दल अपने ही मतदाताओं में विश्वास नहीं जगा पा रहे हैं।
एक दूसरा अध्याय भी है कि जब समाज अपनी सोच समझ और स्तर से नीचे गिरता है तो वह गिरावट चौतरफा होती है। आज के समाज की तुलना साठ सत्तर और अस्सी के दशक से कीजिए आपको अंतर साफ दिखलाई देगा। और इसका बड़ा कारण वैश्वीकरण है। भारत जैसे कुपढ़ देश में वैश्वीकरण का विस्तार बड़े फूहड़ ढंग से होता है। यह हम देख ही रहे हैं। मानसिक स्तर ऊपर उठने की बजाय नीचे और नीचे गिरा है। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म में आदमी उलझ कर रह गया है। उसे जब अपनी सुध नहीं तो अपनी आफतों, परेशानियों और मुद्दों की फ़िक्र कहां होगी। उसके इर्द गिर्द जो चमत्कार हैं उसी से वह चमत्कृत है। आप मानें न मानें हिंदुत्व के कट्टरवाद में लाल कृष्ण आडवाणी से बहुत भारी हैं नरेंद्र मोदी। आरएसएस जो मोदी से ज्यादा आडवाणी को चाह रही थी आज मोदी की सत्ता से बल्ले बल्ले है भले ही वह मोदी द्वारा उपेक्षित दिखती हो कभी कभी। लेकिन आरएसएस को अपने हिंदू राष्ट्र के सपने को मोदी की सत्ता से साकार होते देखने में जो खुशी है वह खुशी उसे सौ सालों में पहली बार मिलती दिखाई दे रही है। चौबीस के बाद पच्चीस में आरएसएस का सौंवा साल मनाया जाना है। क्या वह चाहेगी कि विपक्ष या कांग्रेस की सत्ता के चलते ऐसा हो । कदापि नहीं। हमारा बौद्धिक वर्ग, पत्रकार जगत और सामाजिक कार्यकर्ता सब स्तरहीन बौने से दिखने लगे हैं। वैश्वीकरण ‘हमारे मायने में’ कई अर्थों में अभिशाप सिद्ध हो रहा है। जिस व्यक्ति को बैठने की तमीज न हो उसके सामने आप सोफासेट रख दें वह उस पर उछलकूद करने लगेगा। हमारे संविधान निर्माताओं ने समाज के अभिभावक वर्ग से जो जो अपेक्षाएं की थीं उसमें वे सभी विफल हुए हैं। मिसाल के तौर पर पंद्रह साल के लिए हिंदी के बदले अंग्रेजी और दस साल के लिए आरक्षण की व्यवस्था। सालों साल बीत गए पर स्थिति जस की तस है। इसलिए देश को किस नजर से देखा जाए और आंका जाए वह आप सोचते रहें पर आज देश में राजनीतिक स्थिति भयावह है। सब कुछ खोकर अब विपक्ष एक होना चाहता है। लेकिन चाल ढीली है और सबके अपने अपने सुर हैं। हम तमाम तरह के सर्वे और आकलनों में उलझे हैं। घिसे पिटे पत्रकार हमारे सामने बैठ कर पैदा किए गए सर्वों पर अपना घिसा पिटा आकलन पेश करते हैं। एक से चेहरे कभी इधर कभी उधर। लेकिन यह भी बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं। क्योंकि मोदी सरकार जल्द ही ब्रॉडकास्ट बिल ला रही है जिससे यूट्यूब के उसके अनचाहे चैनलों को गिरफ्त में लेकर आसानी से बंद किया जाएगा। त्राहि त्राहि से उपजे आंदोलनों का समय अब निकल गया है यह सरकार जानती है। जो जनता सोशल मीडिया की अफीम चाट रही हो उसके लिए अब सड़कें वीरान ही अच्छी। चौबीस में क्या होने जा रहा है उससे किसी को गफलत में नहीं रहना चाहिए। अगर ‘वन टू वन’ सीटों का तालमेल भी हो तो भी विपक्ष दिलासा दे पाएगा उसमें संदेह है। स्वाभाविक है कि विभिन्न विचारों के दलों को एकसाथ आने में समय लगता है। वह समय ये लोग खो चुके हैं। तो लगता तो यही है कि नियति स्वयं चाहती है कि मौजूदा सत्ता के पापों का घड़ा और भरे ।
समाज में नायकों का भी टोटा हो रहा है। जिस तरह और जिस तरफ समाज बढ़ रहा है उसमें कोई एक नायक पल भर को भी उभर कर सामने आता है तो चर्चा का विषय बनता है। कल ‘सिनेमा संवाद’ में बात तो ‘डंकी’ फिल्म की और उसके बहाने सामाजिक संदेश की होनी थी पर चली गई शाहरुख खान की शख्सियत की तरफ । बहुत बाद में इसका एंकर को खयाल आया। चर्चा के लिए तीन लोग थे। अच्छी चर्चा लगी लेकिन सबसे गहरी बात सौम्या बैजल कह गईं । मजेदार बात लगी कि देशभक्त कौन कौन हैं। जो लिंचिंग कर रहा वह भी देशभक्त है, जो सरहद पर खड़ा वह भी देशभक्त है और हम तो देशभक्त हैं ही । जिसकी लिंचिंग हुई वह कौन है? आज की सत्ता और उसके प्रशंसकों के लिए वही देशद्रोही है। खैर, जो भी है। मौजूदा वक्त रचा जा रहा है। विपक्ष के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। कमजोर विपक्ष कैसे अपनी रणनीति बनाता है, कैसे तालमेल बैठाता है, कैसे अपनी गोटियां चलता है। यह देखना है। मोदी हर रोज को विजयी बनाना चाहते हैं विपक्ष हर रोज उन्हें देखता, खीजता, चिढ़ता और उनसे लड़ने को उन्हीं के रास्ते पर उलझता दिखता है। यानी लड़ाई भी मोदी की और रास्ता भी मोदी का । गजब है। हमारे विचार में तमाम तरह के सर्वे अब बंद हो जाने चाहिए। ये सर्वे कहीं न कहीं परोक्ष रूप से मोदी सत्ता को ही लोगों के मनों में दृढ़ करते हैं। यह वक्त सिर्फ और सिर्फ सही जानकारियां हासिल करने , जनता को समझाने और नतीजे देखने का है। सोशल मीडिया के चैनल भी बंद हो जाएं तो बेहतर ही होगा।
क्या नियति के फेर में मोदी सरकार अवश्यंभावी है ……
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