religions-in-indiaआगरा के तकरीबन 200 लोगों के कथित रूप से राशन कार्ड का लालच देकर कराए गए धर्मांतरण से उठा विवाद अभी शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. कई हिन्दू संगठन यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के कई सांसद यह ऐलान कर चुके हैं कि वे देश के दूसरे इलाकों में भी मुसलमानों और ईसाईयों के लिए घर वापसी का अभियान चलाने वाले हैं. धर्म जागरण समिति ने हर साल एक लाख मुसलमानों और ईसाईयों का धर्मांतरण करने का लक्ष्य रखा है. इस मुद्दे को लेकर विपक्ष ने संसद में हंगामा किया और लोक सभा और राज्य सभा की कार्रवाई में व्यवधान उत्पन्न किया. विपक्ष के विरोध के जवाब में भाजपा धर्मांतरण विरोधी कानून लाने की बात कर रही है. संसदीय कार्य मंत्री एम वेंकैया नायडू ने कहा कि इस समस्या का एक मात्र समाधान धर्मांतरण विरोधी कानून है. संघ तो बहुत पहले से इस कानून की मांग करता आ रहा है. लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या धर्म परिवर्तन के ऐसे मामलों को रोकने के लिए किसी नए कानून की ज़रूरत है? क्या धर्म परिवर्तन पर रोक लगाना संवैधानिक है? और धर्म मानने की आज़ादी के प्रश्‍न पर देश का संविधान और कानून क्या कहते हैं?

जहां तक आगरा प्रकरण का सवाल है तो इसमें लिप्त धर्म जागरण समिति के नेताओं पर आगरा पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 153 (धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने) और धारा 415 (धोखाधड़ी से काम लेने) के तहत एफ़आईआर दर्ज कर लिया है. इसलिए ऐसे मामलों के लिए अलग से कानून बनाने की आवश्यकता नहीं है. आम तौर पर हिन्दू संगठन ईसाई संगठनों पर यही आरोप लगते हैं कि वे ग़रीब आदिवासियों और दलितों को लालच दे कर और धोखे से उनका धर्म परिवर्तन करवा लेते हैं.
जहां तक धर्म मानने और अपनाने का सवाल है अपने उद्देशिका (प्रेएम्बले) में ही संविधान अपने नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्‍वास, धर्म और उपासना की आज़ादी देता है. हालांकि धर्म की स्वतंत्रता किसी भी आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादों में से एक है, लेकिन फिर भी भारतीय संविधान ने इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है. संविधान की धारा 25 (1) के मुताबिक लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने का, आचरण करने का और प्रचार करने का सामान हक होगा. धर्मांतरण और धर्म मानने की आज़ादी का मामला संविधान सभा में भी उठा था. के एम मुंशी ने अपने वक्तव्य में कहा था की इस धारा 25 में शामिल शब्द प्रचार आर्य समाज को शुद्धिकरण और ईसाईयों, मुसलमानों और दूसरे धर्म के लोगों को अपने-अपने धर्म के प्रचार की आज़ादी देता है. पवन खे़डा लिखते हैं संसद में धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने के लिए तीन प्रयास किए गए. वे लिखते हैं कि 1955 में इस तरह के पहले प्रयास में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था इस बिल से ग़लत तरीके से धर्मांतरण को नहीं रोका जा सकता, जबकि इस की वजह से बहुत सारे लोगों का उत्पी़डन शुरू हो जाएगा. नेहरू ने कहा था डरा धमका कर, लालच दे कर या धोखे दे कर कराए गए धर्मांतरण को आम कानून के जरिये निपटा जा सकता है.
हालांकि मध्यप्रदेश (1968), उड़ीसा (1967), राजस्थान (2006 राष्ट्रपति की सहमति अभी नहीं मिली है), छत्तीसगढ़ (2006) और गुजरात (2003)जैसे राज्यों ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाए गए, लेकिन धर्मांतरण के संवैधानिक औचित्य पर भी अक्सर सवाल खड़े किये जाते हैं. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों अपने फैसले दिए हैं. यह सवाल अक्सर उठता है कि संविधान धर्मांतरण की इजाज़त नहीं देता बल्कि धर्म के प्रचार की इजाजत देता है, और वह भी शर्तों के साथ यानि लोक व्यवस्था और सदाचार बनाए रखते हुए. मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1968 और उड़ीसा धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 1967 पर एक मामले की सुनवाई करते हुए शब्द प्रचार की व्याख्या इस तरह की थी कि इसका अर्थ अपने धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करना न कि किसी दूसरे व्यक्ति का अपने धर्म में धर्मांतरण करना. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दोनों कानूनों को संवैधानिक करार दिया था. अब इस फैसले पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं कि किसी व्यक्ति का अपने धर्म के प्रचार में अगर धर्मांतरण के उद्देश्य को हटा दिया जायेगा तो इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जायेगा.
भारत का संविधान हर एक व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने, दूसरे धर्म को अपने की पूरी आज़ादी देता है. लेकिन यह आज़ादी किसी को यह अधिकार नहीं देता कि किसी दूसरे धर्म का अपमान करके अपने धर्म का प्रचार करे. ठीक है अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही अहम है लेकिन आलोचना और अपमान में भेद होना चाहिए वह भी तब जब आलोचना या अपमान करने वाला व्यक्ति अपने धर्म के प्रचार से जुड़ा हुआ हो. मिसाल के तौर पर वर्ष 2006 में राजस्थान सरकार ने ईसाई मिशनरीयों द्वारा वितरित की जा रही दो किताबों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. जिसमें से एक किताब का नाम था: वे शर्म से हिन्दू कहते हैं क्यों? इन किताबों को लेकर राजस्थान में उस समय ईसाईयों पर हमले हुए थे. ईसाई मिशनरीयों पर प्रलोभन देकर भी धर्मांतरण कराने का आरोप है. लेकिन प्रलोभन बड़ा पेचीदा मामला है क्योंकि प्रलोभन की बात उस वक़्त बाहर आएगी जब धर्म परिवर्तन करने वाला व्यक्ति इसकी शिकायत करे, और जब कोई व्यक्ति केवल प्रलोभन की वजह से दूसरे धर्म को अपना रहा है वह इस की शिकायत क्यों करेगा. एायद इसीलिए जवाहरलाल नेहरू ने धर्मांतरण के सवाल पर कहा था कि हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि हम इन मामलों (धर्मांतरण) को चाहे जितनी सावधानी से परिभाषित करने की कोशिश करें इनके लिए उचित शब्द नहीं ढूंढ पाएंगे.
जहां तक घर वापसी अभियान का सवाल है तो इस में धर्म से कम और राजनीति से अधिक सरोकार है. यह एक तरह का राजनितिक शक्ति प्रदर्शन है, जिसमें संघ सरकार की हिमायत चाहता है. लेकिन वहीं इस हकीक़त से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि धर्मांतरण के बहुत सारे मामलों में कहीं न कहीं प्रलोभन ज़रूर रहता है. ऐसे में नया कानून बनाने कीबजाय जो कानून पहले से मौजूद हैं उन्हें ही कारगर ढंग से लागू किया जाना चाहिए और धर्म को व्यक्तिगत मामला ही रहने देना चाहिए.

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