आईबीएन के मुंबई और पुणे के दफ़्तरों पर हमला हुआ तथा भारी तोड़फोड़ हुई. हमलावरों ने अपना काम कर रहे पत्रकारों पर शारीरिक हमले किए, जिनमें महिला पत्रकार बड़ी संख्या में शिकार बनीं. हमलावर शिवसेना के थे तथा उनका कहना था कि बाल ठाकरे की आलोचना नहीं होनी चाहिए. यह समाचार एक आम समाचारों की तरह अख़बारों में छपा और आम रिपोर्ट की तरह टेलीविज़न पर दिखाया गया.
पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं, लेकिन कभी-कभी. जब ज़्यादा गुस्सा आता था तो अख़बार या पत्रिका की प्रतियां फाड़ या उन्हें चौराहे पर जला कर विरोध प्रदर्शन किया जाता था. पत्रकारिता का पेशा ही ऐसा है जो लोगों को, ख़ासकर ताक़तवर लोगों को ख़ुशी नहीं देता, क्योंकि ताक़तवर लोग ही अन्याय और अत्याचार के पीछे होते हैं. ऐसे लोग राजनैतिक दलों में, अपराधी गुटों में और पैसे वाले तबके में बहुत बड़ी संख्या में हैं जो विरोध आयोजित करते हैं. वे नहीं चाहते कि उनके करतब या कमज़ोरियां आम लोगों के सामने आएं. ये आम लोग ही उनके शिकार या उनसे प्रभावित होते हैं, पर अंत में फैसला भी ये कमज़ोर लोग ही लेते हैं. सही पत्रकारिता इन आम लोगों के लिए ही है.
अब ये ताक़तवर लोग चाहते हैं कि अख़बार या टीवी पर वही दिखाया जाए, जो वे चाहते हैं. उन्हें नहीं पसंद कि कोई उनके कामों का हिसाब मांगे, कोई उनकी गतिविधियों का ब्योरा दे. इसलिए इन्होंने विरोध प्रदर्शन की जगह शारीरिक हमले और तोड़फोड़ की शैली अपनाई है. इनका लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है, इनका लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है.
राजनैतिक दल राजनैतिक गिरोहों में तब्दील हो गए हैं. चुनाव में गए, जनता ने नकार दिया तो यह जनता की समस्याएं नहीं उठाएंगे, क्योंकि इन्हें विरोधी दल का रोल नहीं निभाना है, ये स़िर्फ सत्ताधारी दल का रोल निभाना चाहते हैं. ये चुनाव में हार जाएं तो इन्हें गुस्सा आता है आम जनता पर कि क्यों उसने इन्हें वोट नहीं दिया.
ये आम जनता को भी फूहड़ गालियां देते हैं, कुछ इस अंदाज़ में कि मानो इन्होंने जनता को बनाया है, जनता ने इन्हें नहीं. ये अपनी कमियां बताने पर, पत्रकारों पर जानलेवा हमला कराते हैं. लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है मीडिया को. मीडिया के पास एक अलिखित अधिकार है कि वह जनता के लिए किसी से, कैसा भी सवाल पूछ सकता है. वह ज़िम्मेदारी के साथ कार्यपालिका, विधायिका और राजनैतिक व्यवस्था एवं राजनैतिक कार्यकलाप से जुड़े लोगों के समाचार देता है. लोकतंत्र के चारों अंग एक दूसरे के साथ संतुलन बना कर चलते हैं तो लोकतंत्र ख़ुशबू बिखेरता है.
शिवसेना ने संगठित हमलों की शुरुआत की है, पिछले सालों में मुंबई में टेलीविज़न और प्रिंट के कई पत्रकार इसके शिकार हुए हैं. शिवसेना को अपने ऊपर की गई किसी तरह की आलोचना बर्दाश्त नहीं है. कल अगर न्यायपालिका ने उनके किसी नेता के ख़िला़फ फैसला सुनाया तो यह संभव है कि वे न्यायालय में घुस जाएं और न्यायाधीश तथा वकीलों को पीटें और अपने अख़बारों में लिखें कि जज भगवान नहीं है जो उनके ख़िला़फ फैसला लिखे.
चलिए, मान लेते हैं कि लोकतंत्र के ख़ात्मे की शुरुआत हो चुकी है, क्योंकि कार्यपालिका और विधायिका ऐसी सोच का मुक़ाबला ही नहीं करना चाहती. विधानसभा में जूते चप्पल तो चलते ही थे, कुर्सियां तोड़ी जाती थीं, पर अब तो एक सदस्य को पकड़ कर पीटा भी जाने लगा है. आम लोग भले अ़फसोस करें, पर लोकतंत्र के विरोध में काम कर रहे लोग बेशर्मी से मुस्कराते हुए ऐसे ही काम आगे करते रहने का वक्तव्य भी देते हैं. ऐसी ताक़तों को जनता हराती है, पर अगर इनकी बहुत छोटी संख्या भी विधानसभा में पहुंच जाए तो उसे नियंत्रित करने में वे क्यों असफल हो जाते हैं, जिन पर सरकार बनाने की ज़िम्मेवारी जनता ने डाली है. अगर इस राजनैतिक हमाम में सभी नंगे हो रहे हैं या हो चुके हैं तो मान लेना चाहिए कि हम लोकतंत्र के ख़ात्मे की ओर बढ़ना शुरू कर चुके हैं.
इन सब के बीच ख़ुद मीडिया कहां है? मीडिया इस आत्मदंभ से पीड़ित है कि वह सर्वशक्तिमान है. हर चैनल और अख़बार समझ रहा है कि चाहे जो लिखो, चाहे जो दिखाओ, लोग सही समझ लेंगे. आगे रहने की अंधी दौड़ में दौड़ने वाले सच्चाई को कोसों पीछे छोड़े जा रहे हैं. अख़बारों में तो फिर भी इतनी शर्म बाक़ी है कि ग़लत साबित होने पर वे मा़फी मांग लेते हैं, पर न्यूज़ चैनल तो ग़लत ख़बर ही नहीं, ग़लत तथ्य और असत्य को जानबूझ कर दिखा कर मुस्करा कर चल रहे हैं. बहुतों ने समाचार को मसखरी में बदल दिया है. इस पेशे में ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया है जिन्हें न समाचार संकलन का ज्ञान है, न रिपोर्ट के सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक पक्ष की समझ. न ही वे समाचार के पीछे के तथ्यों को जानते हैं और न समाचार की गहराई का उन्हें पता है. इसीलिए समाचार के द्वारा पड़ने वाले प्रभाव का भी उन्हें पता नहीं होता. वे पता लगाना भी नहीं चाहते, क्योंकि वे इसे अपनी सामाजिक ज़िम्मेवारी नहीं मानते.
इसका परिणाम निकला है कि लोग अब मीडिया पर भरोसा नहीं करते. उन्हें लगता है कि हर कोई किसी न किसी राजनैतिक हित या व्यापारिक हित से जुड़ा है और उनकी लॉबिंग कर रहा है. बहुत से लोगों को यह भी लगता है कि पत्रकारिता के पेशे में जाना मतलब दलाली का लाइसेंस मिल जाना है. ज़िले में छोटे अख़बारों से जुड़े और राजधानियों में बड़े अख़बारों से जुड़े कई पत्रकारों को बस इन्हीं कामों के लिए जाना जाता है. इसके बीच असली पत्रकारिता ग़ायब होती जा रही है. आम आदमी, उसका दुःख सुख, उससे जुड़े मुद्दे, उसकी तक़ली़फ मीडिया का विषय नहीं है. लोग भी अलग खड़े हैं कि जब आपको उनकी चिंता नहीं है तो वे क्यों आपकी चिंता करें.
लोगों की छोड़ दें, आपस में भी जलन इतनी है कि एक पर हमला दूसरे के मनोरंजन का विषय बन जाता है. वे दिन गए, जब एक पर हमला सब पर हमला माना जाता था और सभी एक होकर आवाज़ उठाते थे. आम लोगों को लगता था कि उनके बारे में लिखने वालों पर हमले का मतलब उन पर हमला होना है तथा जो ऐसी हरकतें करते थे, वे लोगों की नज़र में अपराध करते थे. आज ऐसा नहीं है. मीडिया जनता से अलग हो गया है तो जनता भी मीडिया से अलग हो गई है. जिस मीडिया पर लोकतंत्र के पक्ष में रिपोर्ट करने की ज़िम्मेवारी है, वह लोकतंत्र की बुनियाद से हट गया है. इसीलिए मीडिया बंट गया है. बंटते-बंटते सभी अकेले हो गए हैं. कोई भी उन्हें धमका लेता है, तोड़फोड़ कर, पीट कर चला जाता है, पर उनकी कलम नहीं उठती और न ही कैमरा ऑन होता है. सभी अकेले-अकेले इस स्थिति का शिकार हो रहे हैं.
किससे अपील करें कि पहले अपनी सामाजिक और पत्रकारीय ज़िम्मेवारी समझिए. अपने ऊपर दूसरों के हित संरक्षण का लगा तमगा हटाइए. राजनैतिक गिरावट का हिस्सा बनने से अपने को रोकिए और उनके बारे में लिखना और बोलना सीखिए जो इस देश में सौ करोड़ हैं, समस्याओं से पीड़ित हैं, कमज़ोर हैं, लेकिन फिर भी लोकतंत्र चाहते हैं. उनके ख़िला़फ लिखना सीखिए, जो लोकतंत्र के ख़िला़फ हैं. यह सही है कि हम कलम रख सकते हैं, रिवाल्वर नहीं. हमारे लिखने से गिरोहों में प्रतिक्रिया होती है तो अच्छा है, पर उनमें साख तो बढ़नी चाहिए जिनके लिए लिखते हैं.
आज ज़रूरत है कि मीडिया के अंगों में, संस्थानों में एक सहमति बने और आपस में संवाद हो. संवाद ईमानदारी से हो, संवाद व्यापक हो. रिपोर्ट को विदूषक स्वरूप से निकालना चाहिए और पेशे में आए लोगों को पत्रकारिता का बुनियादी मतलब बताना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो महाराष्ट्र में घटी घटना से प्रेरित होकर कोई गिरोह दिल्ली सहित प्रदेशों की राजधानियों में भी ऐसे कांड कर सकता है. क्या मीडिया आपस में एकजुट होने का संकल्प ले सकता है?