छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के बाद पहली जांच सात दिनों के भीतर पूरी कर ली गई. 13 दिसंबर को रविवार था. उस दिन तत्कालीन रक्षा मंत्री शरद पवार ने कुछ दोस्तों और सहयोगियों को एक साथी सांसद के घर आमंत्रित किया. उन्होंने एक फिल्म देखी-मस्ज़िद विध्वंस की लाइव फुटेज, जो किसी सरकारी एजेंसी की थी. शायद इंटेलिजेंस विभाग की. वह पुरानी रील अब भी कहीं सरकारी आर्काइव में प़ड़ी होनी चाहिए. उस फिल्म के बाद शायद ही किसी जांच आयोग की ज़रूरत थी, या कोई जांच आयोग उन सबूतों में कोई इज़ाफा कर पाता. छह दिसंबर का पूरा घटनाचक्र उस फिल्म में क़ैद था, जिसमें आख़िरकार मस्ज़िद को ढाह दिया गया था.
इस ऐतिहासिक घटना के कारण भी पूरी तरह सबके सामने थे. लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा कोई छिपी और अचानक हुई यात्रा नहीं थी. सच पूछिए तो बड़े पैमाने पर मीडिया कवरेज इसकी एक वजह रही हो, चूंकि आडवाणी अपनी राजनीतिक योजना के लिए बड़े पैमाने पर जनता की हिस्सेदारी चाहते थे. न ही यह कोई छिपी बात रही थी, जब कांग्रेस ने 1989 के आम चुनावों के बीच राममंदिर का शिलान्यास किया था. बोफोर्स के साथ ही बाबरी मस्ज़िद भी उन नाटकीय चुनावों का एक अहम हिस्सा थी. 1989 में भी भाजपा में आज के वरुण गांधी के संस्करण थे और उनके नारे, उनकी आवाज़ पूरी बुलंदी पर थी. अपने नारों में वे ऐसी आलंकारिक सजावट करते थे, जिस पर बाद में प्रतिबंध लगाया गया-मंदिर वहीं बनाएंगे या मुसलमान के दो स्थान, पाकिस्तान या क़ब्रिस्तान. किसी ने कुछ नहीं छिपाया.
लोकशाही खुले में खेला जाने वाला अस्थिर खेल है. आख़िर इस खुले खेल फर्रूखाबादी में छिपा क्या था, जिसकी जांच करने की ज़रूरत थी.
एक सरकारी जांच केवल यही कर सकता था कि जानी हुई बातों पर ही पक्षपातरहित फैसले की न्यायिक मुहर लगाता. यह क्या अजीब नहीं लगता कि 16 दिसंबर 1992 को नियुक्त जस्टिस लिबरहान को तीन महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट सौंपने को कहा गया था. अगर उनको छह महीने या एक वर्ष का भी विस्तार मिला होता, तो बात समझ में आती, लेकिन उन्होंने 17 साल क्यों लिए?
सारे मुख्य किरदार जाने हुए और उपलब्ध थे. आख़िर लिबरहान ने वी पी सिंह का बयान लेने में नौ वर्षों से अधिक और पी वी नरसिंहराव के बयान के लिए साढ़े नौ वर्ष क्यों लगा दिए? ज़ाहिर तौर पर वह उनके आदेशों से बच नहीं रहे थे? आडवाणी, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता भाजपा नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे, जब उन्होंने बयान दिए. आरएसएस के पूर्व प्रमुख केएस सुदर्शन केवल एक बार छह फरवरी 2001 को उपस्थित हुए. राव ने 9 अप्रैल 2001 से पहले बहुत कुछ बता दिया होता, जब वह प्रधानमंत्री नहीं रहे थे.
क्या आयोग ने सचमुच ही अपना उद्देश्य 2001 के पहले पा लिया था? उसने राव के प्रधानमंत्री के काल के बाद भी कई वर्षों तक काम किया था. इससे यह तो तय हो गया कि इसकी जांच से राव को इस्तीफा देने की मांग का सामना न करना पड़े. नरसिंह राव छह दिसंबर 1992 के बाद भी बचे रह गए, क्योंकि उन्होंने उनको ही ख़रीद लिया, जिनसे उनको सबसे अधिक ख़तरा महसूस होता था. वह कांग्रेस के भीतर के मुसलमान थे. सरकार के अंदर मौजूद कुछ को तऱक्क़ी दी गई और बाहर के अधिकतर को 3 जनवरी 1993 को मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में जगह दे दी गई. अंतरात्मा ख़रीद ली गई. ज़िंदगी चलती रही.
यह जानना मज़ेदार होगा कि लिबरहान आयोग ने क्या खुलासा किया है? आख़िर राव उस पूरे दिन क्या कर रहे थे? बाबरी मस्ज़िद कोई अचानक और ताक़तवर विस्फोट से नहीं गिराई गई थी. उसे पत्थर-दर-पत्थर तोड़ा गया था. कारसेवकों द्वारा.
तो राव इन मिनटों और घंटों के दौरान-यानी सुबह से शाम तक-क्या कर रहे थे? सो रहे थे. जैसा कि उनके व्यक्तिगत सहायक ने कई क्षुब्ध कांग्रेसियों को बताया, जो जानना चाहते थे कि आख़िर सरकार सो क्यों रही है? वे इस जवाब को सुनकर अवाक रह गए थे. यह सचमुच सरकारी जवाब था. उनका विरोध तब शांत हो गया, जब उन्हें लगा कि पार्टी को इसकी सचमुच बड़ी क़ीमत चुकानी होगी. साथ ही, ज़ाहिर तौर पर मौन का अपना महत्व है.
17 वर्षों की जांच की कोई तार्किक व्याख्या नहीं होगी, पर इसकी राजनीतिक व्याख्या है. 1992 से 2004 के बीच हरेक सरकार का निहित स्वार्थ देरी में था. एच डी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की अल्पमत सरकार राव-केसरी की कांग्रेस के समर्थन के बिना एक दिन भी नहीं चल सकती थी. (उस समय सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष नहीं थीं). न तो देवगौड़ा और न ही गुजराल कोई ऐसी रिपोर्ट चाहते थे, जो उनको लाभ पहुंचाने वालों को नुक़सान पहुंचाए.
भाजपा नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार छह साल तक चली और सारे दोषी इसकी आगे की पांत में ही बैठे थे. केवल उमा भारती इतनी बेबाक थीं कि उन्होंने कहा कि मस्ज़िद टूटते व़क्त उनको ख़ुशी हुई थी. (मैं मस्ज़िद टूटने की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हूं और इसकी एवज में फांसी पर लटकने को भी). जस्टिस लिबरहान भाजपा की अगली पंक्ति में कुछ नैतिक छिद्र तलाश सकते थे. और यही वजह थी कि एक के बाद एक जब उन्होंने विस्तार मांगा तो सार्वजनिक तौर पर चुप्पी और निजी तौर पर ख़ुशी ज़ाहिर की गई.
भले चाहे या अनचाहे, लेकिन जस्टिस लिबरहान ने दोनों ही पक्षों के नेताओं को बचाया. यहां भी एक सवाल बच जाता है. उन्होंने 2004 में अपनी रिपोर्ट क्यों नहीं दी? ज़ाहिर तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह तब नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे. हालांकि उनको बाबरी की राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था. जब देरी इतनी आरामदेह बन जाए, तो चिंता क्यों करें?
क्या 17 वर्षों के बाद न्याय के कुछ मायने हैं?
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