यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि क्रूरता और डर हमेशा एक साथ चलते हैं। और इसी कारण बदहवासी भी वातावरण में छाई रहती है। हम आजादी के बाद अपने सत्तर साल के लोकतंत्र में पहली बार कुछ अलग और अनोखे ऐसे राजनीतिक प्रयोग देख रहे हैं जो हमारी कल्पना से दूर थे । ये प्रयोग हमें कहां ले जाकर छोड़ेंगे इसका कोई सटीक अनुमान तो नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि ये किसी भी देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं।
इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जहां राजा द्वारा जनता अपने तरीकों से हांकी जाती रही है। राजा प्रजा का यह समीकरण वक्त चलते समाप्त हुआ था लेकिन गारंटी से हम नहीं कह सकते कि यह समीकरण संस्कार विहीन भी हुआ था। ऐसा हुआ होता तो आज हमारे देश में जो राजा और प्रजा का खेल नजर आ रहा है वह पुनरावृति के रूप में नहीं होता। इसको इस रूप में देखिए कि भारत एक विशाल देश है। इस विशाल देश में गरीबी सत्तर सालों से लगभग एक ही पैमाने पर यथावत बनी हुई है। नेहरू जैसे समाजवादी और प्रगतिशील नजरिए के प्रधानमंत्री के चलते भी जो भौतिक विकास हुए हों लेकिन न गरीब का स्वरूप बदला और न उसकी गरीबी । देश के इस गरीब और उसकी गरीबी पर जिस व्यक्ति की हमेशा से पैनी नजर रही है वह आज हमारे देश के प्रधानमंत्री के रूप में सुशोभित हैं। चाहे अनचाहे वे हम सबके प्रधानमंत्री हैं।
नरेन्द्र मोदी को हमेशा 2002 की क्रूर परिघटना की नजर से ही आंका जाएगा। चाहे उनके समर्थक हों या उनके विरोधी। समर्थक क्रूरता में भविष्य का सपना समेटे हुए हैं। एक ऐसा राष्ट्र जहां हिंदुओं के अतिरिक्त हर धर्म और समुदाय दोयम दर्जे का होगा और उसके साथ जब चाहे जैसा भी व्यवहार किया जा सकेगा। समर्थकों के लिए यह उल्लास और उन्माद का विषय है तो यही मोदी विरोधियों के लिए उनमें क्रूर शासक के लक्षण देखने का। मोदी का एजेंडा खुल कर सामने आ गया है। और इसी तरह मोदी समर्थक और विरोधी भी खुल कर सामने आ गये हैं। पलड़ा किसका भारी हो रहा है और क्यों , इसे समझने की जरूरत है।
मैं हमेशा से उन लोगों को शंका की नजर से देखता रहा हूं जो कहते नहीं थकते कि जनता मूर्ख नहीं, वह बेहद समझदार है। आज हम उन्हीं लोगों के मुख से बार बार सुन रहे हैं कि जनता ही मूर्ख है। ऐसा क्यों आखिर, इसलिए कि उन्होंने कभी गांधी के नजरिये से जनता को नहीं समझा। जस्टिस काटजू तो गांधी को गाली ही देते रहे। इसीलिए वे कहते हैं कि भारत की नब्बे फीसदी जनता मूर्ख है। जनता को मूर्ख कह देना एक तरह से फतवा दे देना है। जबकि ऐसा है नहीं। मूर्ख वह होता है जो पढ़ा लिखा होने के बावजूद अपने व्यवहार और आचरण में उस तरह का दर्शन प्रस्तुत नहीं करता। मतलब न वह सही क्या है और गलत क्या है इसे ठीक ठीक समझता है। जो अनपढ़ है, भोला और लगभग नासमझ है उसे आप मूर्ख कैसे कह सकते हैं। खेत में काम करती एक महिला घर के कामों में तो सिद्धहस्त हो सकती है लेकिन देश और लोकतंत्र में उसके अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान वह स्वयं कैसे प्राप्त कर सकती है। उसको सिर्फ यही दिख रहा है याकि समझाया जा रहा है कि एक राजा है और वही हमारा पालक है। उसके विवेक की सीमाएं हैं। या कहिए वह विवेकशील है ही नहीं। लेकिन हमारा संविधान उसको वोट देने का अधिकार देता है। उस एक महिला और उस जैसी महिलाएं व उसके विशाल समाज को मिला कर एक ऐसी गरीब जाति बनती है जो भोली तो है पर मूर्ख नहीं है। इस जाति या इस समुदाय को आप जैसे चाहें हांक सकते हैं। चाहे जैसे स्वप्न दिखाई सकते हैं।
मोदी से पहले कभी और किसी व्यक्ति ने गरीब जनता के इस स्वरूप की पहचान नहीं की थी। सच कहें तो किसी को इस तरफ झांकने की भी फुरसत नहीं थी। हर शासक मध्य वर्ग को ही सामने रख कर चला। मोदी ने अपनी नीतियों, जुमलों और हवाबाजियों का प्रयोग इन पर किया। एक ऐसा मायाजाल जिसे समझते समझते सालों लग जाएं और तब तक इन भोले गरीबों के बीच मोदी मनुष्य से इतर पारलौकिक हो जाएं। जब मोदी प्रधानमंत्री के रूप में घोषित हुए थे तब देश के बुद्धिजीवियों ने विरोध प्रकट किया था। वह विरोध प्रतीकात्मक था। इसीलिए मोदी ने अपना समर्थक ऐसा वर्ग चुना जो कुछ भी हो सकता था पर बुद्धिजीवियों का उंगली पकड़ तो नहीं हो सकता था। चतुर और चालाक मोदी ने बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा अपनी रफ़्तार पकड़ी। जिसका परिणाम आज सबके सामने है। आज हर वर्ग में मोदी के चाहने वाले हैं। और विरोधी इस कदर कमजोर कि कुल 37 प्रतिशत वोट पाकर भी मोदी बहुत बहुत भारी हो जाते हैं। चौबीस में भी उनका प्रतिशत ज्यादा नहीं होने वाला, लेकिन जो होगा वह कट्टर और प्रतिबद्ध होगा। और विरोधी ज्यादा प्रतिशत पाकर भी क्षत विक्षत।
इस बार कोई पुलवामा नहीं है। लेकिन पुलवामा से बड़ा फंडा है — अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण और राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा। मोदी ने स्वयं को लार्जन दैन लाइफ बनाया, पुलवामा से देशभक्ति जाग्रत की, अब मंदिर से धर्म को सर्वव्यापी बनाने की चेष्टा है। यानी दो बार की सत्ता के बाद जो ‘एंटीइंकमबैंसी’ होती उसे ढोंग, लालच और फर्जी मुद्दों से ढंक दिया गया है। खेत में काम करती उस महिला से पूछिए महंगाई किस कारण से है और कौन इसका जिम्मेदार है तो उसका जवाब यही होगा कि भगवान की मर्जी। गरीबी तो हमारे नसीब की लिखी है तो दोष किसका ?
विपक्ष हमारा कमजोर ही नहीं, पराजित भी है। हमारा प्रबुद्ध वर्ग आज शून्य पर आकर खड़ा है। मेरी नज़र में वे मूर्ख हैं जो राहुल गांधी से उम्मीदें बांध बैठे हैं। श्रवण गर्ग की बुद्धि पर तरस आता है जो चाहते थे कि कांग्रेस तीनों राज्यों में हारे । इस हार में वे कांग्रेस की मजबूती और साथ ही साथ सहयोगी दलों के साथ उसका लचीलापन भी देखते थे। यह कैसा बचकानापन था जो इतना बड़ा पत्रकार चुनावों को ‘लूडो’ या कुछ ऐसा ही खेल समझ रहा था। वे शायद भूल गये थे कि सामने कौन है। एक ऐसा शख्स को राजनीति, लोकतंत्र सबको उलट पलट कर विरोधियों और खासकर कांग्रेस को मटियामेट कर देना चाहता है। ऐसे में ‘पहले तू हार फिर जीत’ वाले खेल का क्या मतलब। आज विरोधियों की चाल देख कर आप रोने के सिवा क्या कर सकते हैं। सीट शेयरिंग महज एक चमकता हुआ फार्मूला है। और विपक्ष तो किसी नजर से आगे नहीं बढ़ रहा। गरीब जनता को कुछ लेना देना नहीं। पढ़ी लिखी जनता सब देख रही है। और मोदी से दुखी जनता भी सब देख रही है।
आज मोदी हर किसी के साथ हर कोण से खेल रहे हैं। उनका डर उनके प्राप्त प्रतिशत में है। हर शासक तब तक डरा होता है जब तक अनुकूल परिणाम उसके पक्ष में न आ जाएं। इसीलिए हमने लिखा क्रूरता और डर साथ साथ चलते हैं। विपक्ष में कोई सिर झुकाना नहीं चाहता। कोई विन्रम होना नहीं चाहता। कांग्रेस आलाकमान और अनुभव विहीन दल हो चुकी है। राहुल संतई कर रहे हैं। वे उस खिलौने की भांति हैं जिसमें वक्त वक्त पर चाबी भरी जाती है। दो महीने कैसे गुजर जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा। विपक्ष ढाई कदम चल कर बार बार दो कदम पीछे आता रहेगा। और चुनाव बाद कांग्रेस और सारे क्षत्रप जम कर एक दूसरे के खिलाफ कैसे महाभारत करेंगे, देखिएगा।
लाउड इंडिया टीवी पर संतोष भारतीय लीगल मुद्दों को लेकर हर हफ्ते आवश्यक चर्चा करते हैं। उसे देखा जाना चाहिए क्योंकि चौबीस के बाद सोशल मीडिया के चैनल कितने दिखेंगे, कितने नहीं , यह बड़ा प्रश्न है। हाल में मोदी सरकार ने जिन पुराने कानूनों को बदला है उन पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। और हमारा एक सुझाव यह भी है कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की एक टीम विपक्ष को उचित सलाह देने का काम करे । दो महीने का समय भी समय तो है ही आखिर। वरना देश डूबा ही समझिए। फिल्मों पर जो कार्यक्रम कल अमिताभ श्रीवास्तव ने किया उस पर लिखना भी जरूरी है। फिर किसी दिन इसी सप्ताह।
पुनश्च: आजकल एक चर्चा चैनलों का विषय बनी हुई है कि अयोध्या में निमंत्रित सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को अयोध्या जाना चाहिए या नहीं। तरह तरह के सुझाव आ रहे हैं। हमारे मत से एक सुझाव बड़ा सीधा सा है। दोनों को यह कहते हुए इसका बहिष्कार करना चाहिए कि क्योंकि यह धार्मिक आयोजन न होकर बीजेपी का राजनीतिक आयोजन है इसलिए ऐसे कार्यक्रम में जाना राजनीतिक रूप से हमें सुझाता नहीं। यदि यह धार्मिक कार्यक्रम होता और किसी धर्माचार्य द्वारा इसका उद्घाटन और प्राण प्रतिष्ठा की जा रही होती तो निश्चित ही उसमें शरीक होना हमारा सौभाग्य था।
कुछ लोग यह भी सुझाव दे रहे हैं कि उद्घाटन के समय न जाएं बाद में चले जाएं। ये लोग भूल जाते हैं कि निमंत्रण ही उद्घाटन के लिए है।बाद में जाने का अर्थ क्या ? जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन बात करने वाली बातों पर बात नहीं होती। यही रंज है।
क्रूरता और डर साथ साथ चलते हैं …..
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